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Wednesday, March 11, 2009

3. अन्तिम संस्कार

अन्तिम संस्कार

कहानीकार - शकुन्तला प्रसाद

मुरारी बाबू मास्टरी के नौकरी से रिटायर हो गेलन हल । अप्पन बीतल जिनगी के एक-एक लमहा के इयाद करके जेत्ते ऊ खुशी के अनुभव करऽ हलन ओत्ते ही अप्पन आगे के जिनगी के बात सोंच-सोंच के उनकर लिलार पर सिकन पड़ जा हल ।

मुरारी बाबू के दूगो बेटा हल पुजारी आउ तिरपुरारी । दुन्हूँ बेटा के बहुत्ते लगन आउ जतन से पढ़इलन मुरारी बाबू । दुन्हूँ लइकन में एगो डागडर त दोसरका इंजीनियर होके अमेरिका चल गेल आउ ओहीं बस गेल । विदेश में नौकरी करे से अफरात पइसा मिले लगल । पछियारा रीति-रेवाज के चकाचौंधी में दून्हूँ के रहन-सहन के अस्तरो ऊँचा होइत गेल, पर एकरा चलते ओकन्हीं दुन्हूँ ई भूल गेलन कि हम कउन ही, कहाँ के ही आउ केकर ही । ऊ ई भी भूल गेलन कि हम्मर अप्पन देस में खून के रिश्ता हम्मर बाट जोहऽ होयत । दुन्हूँ लइकन के दिल में भावनात्मक सम्बन्ध नाम के कोई चीजे नयँ रहल । ओकन्हीं में ई सोचे के ताकते नयँ रहल कि एगो बापो होवऽ हे जे बुतरुअन के पेड़-पौधा नियन पाल-पोस के तइयार करऽ हे ई ला कि आगू जाके अगर ऊ फल-फूल नयँ देत, त कम से कम छाँहीं तो देत । दुन्हूँ बुतरुअन के पढ़ावे-लिखावे आउ अप्पन घर के आदर्श परिवार बनावे लागी मुरारी बाबू कोइयो कसर नयँ छोड़लन हल ।

जुआनी के दिन में मुरारी बाबू सोचऽ हलन कि उनका नियन किस्मत वाला अप्पन सगा- सम्बन्धियो में कमे लोग होयतन जिनका कोई तरह के मानसिक चिन्ता नयँ होवऽ होयत । उनकर सगा-सम्बन्धी भी उनकर बड़ाई करे में कोताही नयँ करऽ हलन । उनकर उदाहरन अच्छा-अच्छा परिवार में देल जा हल । मुरारी बाबू ई सोच के खुश हो जा हलन कि समाज में ऊ अप्पन परिवार के एगो आदर्श बना चुकलन हल । उनकर गुन के चर्चा सब जगह होवऽ हल ।

जब उनकर मेहरारू के तबियत खराब रहे लगल, तब ऊ अप्पन दुन्नो बेटा के खबर भेजलन । जवाब में उनकर दुन्नो बेटा कुछ-कुछ रुपइया भेज के अप्पन जवाबदेही से मुक्त हो गेलन । इहाँ तक कि उनकर अन्तिम दर्शन करे ला भी ऊ दुन्नो न अयलन । मुरारी बाबू बुज्झल मन से उनकर श्राद्ध कैलन । अब उनकर जिनगी में अन्धेरा गहराय लगल । उनका सम्हारे वला अब कोई नयँ हे । पर जिनगी तो काटहीं पड़ऽ हे, चाहे हँस के काटऽ, चाहे रो के ।

जब तक मुरारी बाबू के मेहरारू जिन्दा हलन, तब तक उनका कोई काम करे के चिन्ता नयँ रहऽ हल । भोजन-पानी के बेवस्था से लेके दोसर सब काम समय पर हो जा हल आउ उनकर जिनगी मस्ती में बीत रहल हल । बाकि घरुआरी के मरला के बाद खाना-पीना समय पर न मिले से ऊ धीरे-धीरे कमजोर होवे लगलन । उनकर आगे के जिनगी कइसे कटत, ई सोच-सोच के उनका चिन्ता होवे लगल आउ ई बात तो सब कोई जानऽ हे कि चिन्ता चिता से जादे खतरनाक होवऽ हे ।

मुरारी बाबू से मिले ला अकसर एगो नौजवान मोहन आवइत रहऽ हल । मोहन उनकर पुराना चेला हल । ऊ उनकर दवा-दारू के इन्तजाम कर दे हल । तइयो बुढ़ापा आउ बेमारी के मार से मास्टर साहेब के हालत में कुच्छो सुधार नयँ हो रहल हल । एक दिन बाते-बात में मोहन उनका से कहलक - 'सर ! अपने के अब सेवा के जरूरत हे । अपने हम्मर घरे चलूँ, उहाँ अपने के कोई दिक्कत नयँ होवत । हम्मर घरुआरी अपने के सेवा करत ।'

मुरारी बाबू कहलन - 'मोहन, पढ़ावे घड़ी बचपन में हम तोरा केतना पीटऽ हलियो । बाकि तूँ तो हमरा पर एकदम से मेहरबान हो रहलऽ हे । जउन काम हम्मर बेटा के करे के चाही, ऊ काम तूँ करे ला तइयार ह । बाकि तूँ ई नयँ समझ रहलऽ ह कि तोहर घर में हमरा रहे से तोरा सबके बहुत कष्ट होतो ।'

'न सर ! हम्मर मइया-बाबू तो तबे स्वर्ग सिधार गेलन जब हम छोटा गो हली । हम्मर मेहरारुओ के माय-बाप न हथन । अपने के सेवा करे से हमनी दुन्नो के जिनगी सार्थक हो जायत । हम्मर लड़कन के भी दादा जी मिल जयतन ।'

'तोहर बात बिलकुल ठीक हे मोहन ! बाकि हमरा अइसन उमर वला अदमी के देख-रेख करना असान न हई । तूँ जानबे करऽ ह कि लचार शरीर जिन्दा लाश के बरोबर होवऽ हे ।'

मोहन कहलक -'अपने तो हमरा लेल कुम्हार के काम कर पइली हे । अपनहीं के मेहनत से हम अप्पन पढ़ाई पूरा कइली हल । हम्मर जिनगी के काम लायक बनावे में अपनहीं के विशेष हाथ हे ।'

मुरारी बाबू सोचे लगलन कि अखनियो दुनिया में इन्सान के कमी नयँ हे । बहुत मान-मनउवल के बाद आखिर में ऊ मोहन के बात मान लेलन ।

मोहन के घर के माहौल एतना बढ़िया हल कि ऊ अप्पन घर से भी जादे आनन्द पावे लगलन । मोहन के घरुआरी तो उनकर खेयाल रखबे करऽ हल, ओकर लड़कन के साथे भी उनकर दिल लग गेल । लइकनो के उनका जौरे खूब मन लगऽ हल । ऊ लोग उनका जौरे खेलबो करऽ हलन आउ उनका से पढ़बो करऽ हलन ।

समय के पहिया अप्पन गति से चलल जाइत हल । मुरारी बाबू अकेले में अकसर सोचे लगऽ हलन कि हम अप्पन औलाद के पढ़इली तो खूब, बाकि बुझा हे कि उनका सब में उत्तम संस्कार न देली । शायद उनका सब के पाले-पोसे में हमरा से कोई चूक हो गेल । लोग भगवान से एही ला बेटा माँगऽ हे कि बुढ़ापा में बेटे बाप के सहारा होवऽ हे । बाकि आजकल पइसा के चकाचौंध में सब अप्पन करतब के भुला देलन । खाली एक्के गो बात सोच के मुरारी बाबू अप्पन दिल के तसल्ली दे हलन कि उनकर दुन्नो बेटा अप्पन-अप्पन परिवार के साथे खुशी से तो रहइत हे ।

सब कुछ ठीके-ठाक हल, बाकि का जानि का भेल कि अचानक एक दिन मुरारी बाबू के हार्ट-अटैक भेल आउ उनकर प्राण-पखेरू उड़ गेल । अब मोहन के सामने एगो विकट समस्या ई आयल कि उनकर दाह-संस्कार कइसे होयत आउ कउन करत ? ऊ सोचे लगल कि हम तो धरम के बेटा ही, जबकि दाह-संस्कार के अधिकार तो अप्पन बेटा के होवऽ हे । शास्त्र-पुराण के अनुसार जब तक अप्पन बेटा मुखाग्नि नयँ देत, तब तक बाप के आत्मा भटकइत रहत ।

एही सोच के मोहन तुरते दुन्नो बेटा हीं फोन कैलक । छोटका बेटा ई काम के जिम्मेवारी बड़का बेटा पर डाल के टाल देलक । फिर बड़का बेटा भी कोई बहाना बना के बात के टाल देलक । जब दुन्नो बेटा में से कोई भी आवे ला तइयार न होयल तब पंडित जी के सलाह पर महल्ला भर के लोग के मदद से मोहने उनकर दाह-संस्कार कैलक ।

विधिपूर्वक दाह-संस्कार कैला के बाद मोहन जब स्थिर होयल, तब गरीब लोग के बीच में बाँटे ला मुरारी बाबू के सर-समान बक्सा में से बाहर निकाले लगल । मुरारी बाबू के कपड़ा के बीच में एगो बन्द लिफाफा पर मोहन के नजर जड़ल । मोहन जब लिफाफा खोलके देखलक, त अवाक रह गेल । मुरारी बाबू अप्पन मकान आउ बैंक में जमा रुपइया के वसीयत मोहन के घरुआरी के नाम से कर देलन हल । मोहन के दुन्नो आँख से टप-टप लोर गिरे लगल ।

['अलका मागधी', बरिस-१३, अंक-११, नवम्बर २००७, पृ॰१३-१४, से साभार]

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