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Wednesday, March 04, 2009

4. मगही आउ हिन्दी

मगही आउ हिन्दी

लेखक - मोहनलाल महतो 'वियोगी' (1899-1990)

लोग पूछ बइठऽ हथ कि जब हिन्दी के विरोधी ढेर-सा भासा खड़ा हथ तब मगही के खड़ा करके एगो आउ विरोधी काहे बढ़ावल जाय !

बात असल में ई हे कि भासा के अप्पन प्रकृति होवऽ हे, शब्द के चिंतनधारा के, अभिव्यक्ति के । ई विचार से हिन्दी आउ मगही के प्रकृति में कोई विरोध न हे, बलुक ई कहल जाय कि दुन्नों में बड़ी मेल हे तो जादे ठीक होयत । ई मेल के ओज्जह से हिन्दी आउ मगही एक दूसर के मदत कर सकऽ हे, अनहित इया विरोध नऽ । मानली कि हमर प्रकृति ठंढा के हे, तऽ गरम तासीर के चीज विकार पैदा कर देत । मगही, भोजपुरी, अवधी, ब्रजभासा इत्यादि के प्रकृति हिन्दी के प्रकृति से मेल खा हे, ई से ई सब भासा हिन्दी के साधके हो सकऽ हे, बाधक नऽ । अगर अवधी आउ ब्रजभासा के कवि तुलसी आउ सूर के हम हिन्दी के कवि कह के पढ़ऽ ही आउ एकरा से हिन्दी के कुछ अनहित न होय तो भला मगही के भी हिन्दी के साथ पढ़े से हिन्दी के अनहित कइसे होयते ई बात हमरा समझ में न आवे । मैथिली, बंगला इत्यादि के हम मिश्रित (फेंटुआ) प्रकृति के मानऽ ही; ई सब हिन्दी के आधे साधक हो सकऽ हथ, पूरा नऽ । मगही के प्रकृति हिन्दी से मिलऽ-जुलऽ हे, ओकर अध्ययन से हिन्दी के समृद्धिये होयते, ऐसन हम मानऽ ही ।

हाँ, एगो समस्या हे कि कुछ हिन्दी शब्द के मगही रूप से पढ़ुआ लोग के भरम पैदा हो सकऽ हे । बाकी हियाँ भी अगर तनी-सा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनावल जाय तो कोई गड़बड़ी न होय । शब्द के व्यवहार के स्वीकृति जन-प्रवाह दे हे, भासाशास्त्री लोग के देल शब्द जन-प्रवाह में न आ सके । जइसे 'लगाव-बझाव' मगही शब्द के भाव हिन्दी में कुछ दोसर हे आउ मगही मुहावरा 'लगउनी-बझउनी' के भाव जन-प्रवाह में कुछ दोसर । दुन्नों के माने में बड़ी तफरका हो जा हे । तब नियम ई बनावे के चाही कि जन-प्रवाह में जउन शब्द के जे रूप जउन भाव में चालू हो गेल हे ओकरे मगही में लेवे के चाही आउ जेकर चलन अभी न होयल हे ओकर शुद्ध तत्सम रूप लेवे के चाही । अपना मन से शब्द के गढ़नई में न लगे के चाही । अगर तत्सम शब्द के मगही में जगह न देम तो मगही भासा समरथहीन भासा कहल जायत । उच्चारण आउ लिखावट में भेद रहऽ हे आउ एकरा से कोई हानि न हे, बलुक भासा में एकरूपई लावे ला ई बड़ी जरूरी हे । मगही में भी एकरूपई लावे ला लिखावट आउ बोली में थोड़ा-मना कहीं-कहीं फरक करे पड़े तो हरज न माने के चाही


["मागधी विधा विविधा" (विविध विधा में स्तरीय मगही लेखन के परिचायक एगो संकलन); खण्ड-१: मगही गद्य साहित्य; सम्पादक - हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी, मगध संघ प्रकाशन, सोहसराय (नालन्दा); १९८२; कुल पृष्ठ ४+१४२+२; ई लघु निबन्ध पृ॰१ पे छपले ह ।]

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