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Wednesday, March 11, 2009

4. खिलाफत के फल

खिलाफत के फल

कहानीकार - प्रभात वर्मा

भोरे-भोरे ककैला में ई बात बिजुरी नियन सगर फैल गेल कि महादेव जी के घर होल डकइती में मजूर टोली के फुलेसर के बेटा जगेसरो के नाम पड़ल हे आउ एहू कि थनमा के दरोगा जी बुलकन चउकीदार के औडर देले हथिन कि चौबीस घंटा के अन्दर जगेसरा के थाना में हाजिर करऽ, नयँ तो कातो दरोगा जी अप्पन सिपाही-पुलिस ले के गाम पर चढ़ जयथिन । जेत्ते मुँह ओत्ते बात ।

खबर जान-सुन के गाम के लोग अचरज में डूबल हलन - 'का जगेसरो डकइत हो सकल हे ? देहाती-भुच्च फुलेसर के जब ई बात मालूम होल कि महादेव जी हुनखर कउलेजिया बेटा के डकइत बनवा देलका हे, त हुनखर तो पराने अँटक गेल । हुनखर मोटबुद्धि में ई बात पइसवे नयँ कयलक कि महादेव जी जगेसरा के कउन बात के खार चुका रहलन हे ?

फुलेसर हाँफे-फाँफे घर पहुँचलन, त अप्पन बेकत के पुकारते कहलन - 'कन्ने हउ जगेसरा ? ओकरा हिआँ से जल्दी सन भगावऽ, नयँ तो ...'

'नयँ तो का ? कउची बिगड़लको हे जगेसरा, जेकरा हिआँ से भगा दीअई ?' बीचे में मरद के बात काटइत झंझुअइते भभक पड़ल परमेसरी - 'तूँ तो जब घरे आवऽ ह, एक्के बात के खोवसन दे ह, जगेसरा के दबावऽ, जगेसरा के चेतावऽ ! जइसे जगेसरा अमदी नयँ बाघ हे आउ अमदी सबके गरसले चलऽ हे ।' तनि रुक के ऊ मुँह बिचकइते बोलल - 'तोरा तो जगेसरा फुटलो आँख नयँ सोहा हो, कहिओ जरी सन तूँ ओकरा से बढ़िया से बोल-बतिआ नयँ सकऽ ह, जइसे जगेसरा अभिओ बुतरुए हे ।'

फुलेसर के मन में बेकत के बात सुनके गोस्सा हो उठल - 'तोहीं माथा पर चढ़यले हें जगेसरा के । पूरा गाम के देखे-सुने के ठीका उठइलको हे । हम्मर कोय असरा ऊ पूरा नयँ कर सकऽ हे । गरीब दुखिया ला मदतगीर बनल चलऽ हे, नेतागिरी करते चलऽ हउ ।' अप्पन गोस्सा उतारते परमेसरी से हाथ नचा के फुलेसर पूछलक - 'अब के बचावऽ हउ ओकरा थाना-पुलिस जेहल से ?'

'अयँ, ई का कहऽ ह ?' चिहा के पुछलक परमेसरी - 'का कयलके हे जगेसरा ?'

'का कइलको हे, से तो जा के बड़का घरवा वाला महादेव जी से पूछ, जिनखा हीं होल डकइती में मुँह-कान झाँपले कातो जगेसरो हलई । महादेव जी के पुतोहिआ ओकरा अप्पन आँख से चिन्हलके हे ।' सुनल बात बतइते फुलेसर कहलन ।

'ई सब झूठ-फूस के बात हे । हम्मर जगेसरा अइसन नयँ हे, ओकरा हमरा से जादे के जानत ?' परमेसरी बेटा के पछ खिंचते, हाथ चमकइते, मुँह बनइते बोललक - 'महादेव जी के पुतोहिआ केतना चिक्कन सतबरती हई, से हम नयँ जानऽ ही का ? सउँसे गाम के जुआन लोग से मुँह लगयले चलऽ हे । ऊ हम्मर बेटा के डकइत बनयतइ, त भगवाने जी इन्साफ करतन सच आउ झूठ के ।'

अभी दुन्नो माउग-मरद में बतकहिए हो रहल हल कि माथा में नीला रंग के मुरेठा लपेटले हाथ में बड़गो लाठी पकड़ले, मोट-छोट, करिआ-कुलाठ, मोछ वला बुलकन जी फुलेसर के दुआरी पर पहुँच के हँकयलन - 'फुलेसर हीं हो, अहो फुलेसर ! कहाँ हउ जगेसरा ? बहरी भेजऽ ओकरा ।'

घर के दरोजा पर अयते सकपकायल घबरायल फुलेसर मिठबोलिया बोली में पुछलक - 'कउन बात हे चउकीदार जी ? जगेसर तो बहरे होतो ।'

फुलेसर के बात सुन के बुलकन जी अप्पन फेंटा सरिअइते कड़क अवाज में हँकड़लन - 'बात का पूछऽ हें ? बेटा के चोरिए-डकइती करे ला कौलेज में पढ़इबे कइले हें । गामे घर के लुटले चले हे, त बात का पूछऽ हें ?' बुलकन लाठी जमीन पर पटकते धिरौलन - 'अबरिए तो तोहनी के पता चलतउ कि डकइती के माल खाय के फल कइसन होवऽ हे ।'

'ई कउन इलजाम लगा रहलऽ हे ?' दुआरी पर ठाड़ परमेसरी बीचे में टभक पड़ल - 'चउकीदार जी ! जगेसरा के तूँ नयँ जानऽ ह का ? हठी हे, मुँहफट हे, सब के साथ निआय-अनिआय ला लड़ले चलऽ हे, बाकि ऊ डकइत थोड़े हे ?'

'केकरो लिलार पर तो नयँ लिखल रहऽ हे कि कउन चोर आउ कउन साधु हे । अब तो पढ़ल-लिखल लोग जादे लन्द-फन्द, चोरी-डकइती में पकड़ा रहलन हे ।' बुलकन जी हड़कयते कहलन - 'जगेसरा के भेज दे थाना में, उहें अप्पन सफाय देते जइहें । एजा सफाय देवे से काम नयँ चलतउ ।' एतना कह के हाथ के लाठी नचइते ऊ ओजा से सोझ हो गेलन ।

साँझ होते-होते थाना के दरोगा जी बन्दूकधारी सिपाही लोग के साथे महादेव जी के दुआरी पर पहुँच के मजमा लगइले हलन । हुनखर अगुआनी में गाम-जेवार के कयगो चउकीदार-दफादार सभ खिदमतगिरी में जुटलन हल । महादेव जी के दलान पर पड़ल चउकी-पलंग पर सफेदा आउ मसलन्द देवल गेल हल आउ घर के भीतर से घीउ में छना रहल पूड़ी के सुगन्ध सगर फैल रहल हल । पलंग पर मसलन्द दबयले हाथ के रूल नचइते दरोगा जी बुलकन के तरफ इसारा करते पुछलन - 'जगेसरा कहाँ हय ? ओकरा अभी तक तूँ हाजिर काहे न कयलऽ हमरा सामने ?'

बुलकन जी दुन्नो हाथ जोड़ले बोललन - 'हुजूर ! हम तो कल्हे से ओकरे फिराक में लगल हली, कय तुरि ओकर घर के चक्कर लगा चुकली हे, मगर ऊ नयँ भेंटल हुजूर !'

'ठीक हे, अब हम देखऽ ही कि भाग के कहाँ जा हे ससुर !' बन्दूकधारी सिपाही सब के औडर देलन - 'जा, जगेसरा इया ओकर बाप फुलेसर, जे मिले ओकरे पकड़ के इहाँ ले आवऽ !'

बुलकन जी के साथ ले के सिपाही लोग फुलेसर के घरे पहुँचलन आउ फुलेसर के पकड़ के महादेव जी के दलान पर ले अयलन । पीछु-पीछु उनका साथे परमेसरी भी ओजा पहुँच गेल ।

दरोगा जी भिर दुन्नो माउग-मरद लाख सफाई देलन, मगर दरोगा जी कुच्छो नयँ सुनलन आउ महादेव जी के सलाह पर एगो सिपाही के औडर देलन - 'मारऽ दुन्नो के पचास डंटा, सब हेंकड़ी भुला जायत, डकइती के माल खा-खा के बड़ी सफाई देबे चललक हे ।'

सिपाही जी के डंटा तड़ाक ... तड़ाक फुलेसर के देह पर बजरे लगल । परमेसरी भोंकार पार के रोते-चिल्लइते मरद के देह से सट गेल ।

'ठहरऽ !' सिपाही जी के हाथ ई दहाड़ सुन के एकाएक रुक गेल । सब लोग के नजर ओन्ने घूम गेल जेन्ने से लपकते-धपकते एगो नौजवान चलल आ रहल हल गरजते-भोंकरते । दरोगा जी भिर पहुँच के ऊ तैश में बोललक - 'हम ही जगेसर, महादेव जी के कुकरम के विरोध करे वला ।' फिर मार खाइत अप्पन बाप भिर जा के गरजलक - 'जे करे ला हवऽ, से हमरा साथ करऽ ! हम्मर बाबू जी के छोड़ द !'

'अरे तेरी ... ...।' महादेव जी जगेसर के बोली सुन के उबल पड़लन आउ गरिअइते दउड़ के बड़ाहिल से पैना छीन के जगेसरा पर ताबड़तोड़ बजारे लगलन । गोस्सायल जगेसरा अपना ऊपर चलइत लाठी पकड़ के जोर से खींचलक, त महादेव जी ढनमना के गिर पड़लन । ओजा पर 'मारऽ-पकड़ऽ' के कोहराम मच गेल ।

दरोगा जी मामला बूझ गेलन, हुनखा लगल कि अब जादे देरी एजा टिकम, त सब खेल गड़बड़ा जायत । ऊ अप्पन सिपाही-चउकीदार लोग के कड़कल अवाज में औडर देलन - 'जगेसरा के पकड़ के ले चलऽ थाना, सब हिसाब हुएँ चुकता हो जतइ ।'

उधर जगेसरा के ले के सिपाही-दरोगा जी गेलन, इधर सउँसे गाम में तरह-तरह के चरचा शुरू हो गेल । कोय कह रहल हल – “जउने रात महादेव जी हीं ‘डकइत ... ... डकइत' के गुदाल होलइ हल, ओही रतिया के महादेव जी के बड़की पुतोहिआ के कोठरिया से एगो मरद निकस के भाग रहलइ हल । कातो महादेव जी के बेकत 'चोर-चोर' के हल्ला करे लगलई, त हुनखर बड़की पुतोहिया अप्पन लीला छिपइते कहे लगलई कि डकइत घर में घुस के सब जेवर-पाती लूट के ले गेलो । फिर तड़ातड़ गोली-बन्दूक चला के महादेव जी सउँसे गाम के जगा के जना देलन कि हुनखा हीं डकइत आयल हल ।“

कोय कह रहल हल - 'महादेव जी के अनिआय-अतिआचार सब मजूर लोग तो सह के रह जा हे, बाकि जगेसरा ओकर खिलाफत करऽ हे । ओकरे फल मिललइ हे ओकरा ।'

फुलेसर आउ परमेसरी के मन-मिजाज सूख गेल । हुनखनी के लग रहल हल जइसे हुनखर बुढ़उती के असरा छीन के कोय भाग गेल आउ ऊ मन मार के बस जगेसरा के घरे लउटे के असरा देख रहलन हे ।

['अलका मागधी', बरिस-१३, अंक-५, मई २००७, पृ॰ १५-१६, से साभार]

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