विजेट आपके ब्लॉग पर

Saturday, June 13, 2009

9. मगही ललित निबन्ध संग्रह "अमृत आउ विष" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द

अआवि॰ = "अमृत आउ विष" (मगही ललित निबन्ध संग्रह); निबन्धकारः पं॰ हरिदास ज्वाल (25 मार्च 1918 - 12 जनवरी 2003); प्रथम संस्करणः 1 जुलाई 1992; प्रकाशकः संदीप प्रकाशन, साहित्य सदन, रौशनघाट, टेकारी रोड, पटना - 800 006; प्रमुख वितरकः मागधी किरण कुंज, राजेन्द्र नगर, पथ-संख्या-3, पटना - 800 016; मूल्य - 25 रुपये (विद्यार्थी संस्करण), 40 रुपये (राज संस्करण); कुल 4 + 111 पृष्ठ । (लेखक के जीवनी लगि देखल जाय - "मगही के थाती : हरिदास ज्वाल", अलका मागधी, अप्रैल 2006, पृ॰ 5-6).

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ, आउ दोसर संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।
ई ललितनिबन्ध संग्रह में 15 निबन्ध हकइ जेकर विषय-सूची हइ -

पुरोवाक् - प्रो॰ रामबुझावन सिंह - 3
आत्मिकी - श्री हरिदास 'ज्वाल' - 5
निबन्ध के स्वरूप आउ निबन्ध-लेखन - 9

क्र॰ निबन्ध पृष्ठ
1 हम खड़ाउ ही 17
2 दण्डवत् 22
3 तराजू 30
4 गैया आउ मैया 37
5 हार आउ जीत 41
6 दोस्ती 47
7 घर आउ वर 57
8 ससुरार 62
9 हम्मर साल-संवत् आउ संसकीरति 66
10 भारतीयकरण के समस्या 72
11 मगही के मनोरंजन 79
12 महान् मगध 85
13 लघु भारतः मॉरीशस 93
14 अन्तर्राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलनः लन्दन 100
15 अमृत आउ विष 107

ठेठ मगही शब्द:


अँगुरी (अआवि॰ 82:18)
अइसन (अआवि॰ 2:22)
अख्तियार (अआवि॰ 107:14)
अगराना (जीत उछलइत आउ अगराइत चले हे) (अआवि॰ 42:26)
अगहन (अआवि॰ 80:31)
अगुवानी (अआवि॰ 105:16)
अचकन-चपकन (अआवि॰ 69:9)
अजगुत (अआवि॰ 11:8; 49:20)
अटकन-वटकन (एक प्रकार के खेल) (अआवि॰ 80:22; 82:23)
अढ़तिया (अआवि॰ 30:1, 22)
अदना (अआवि॰ 60:22)
अधसेरी (अआवि॰ 33:10)
अधार (अआवि॰ 33:16)
अपन, अप्पन (अआवि॰ 15:9, 20, 22, 23)
अपने-आप (अआवि॰ 15:29)
अलमस्त (अआवि॰ 45:29; 107:8)
असाढ़ (अआवि॰ 81:3)
आउ (अआवि॰ 1:10)
आरे ... बारे (अआवि॰ 59:15; 83:6)
आव-भगत (अआवि॰ 63:9)
आसिन (अआवि॰ 68:20)
इमरित (अआवि॰ 109:20, 23)
ईंटा (अआवि॰ 58:12)
ई (अआवि॰ 1:1, 7, 9, 15, ...)
ईहाँ (अआवि॰ 19:12; 26:9)
उतारू (अआवि॰ 77:22)
उनकर (अआवि॰ 15:23)
उनका (= उनको) (अआवि॰ 17:4)
उनका में (= उनमें) (अआवि॰ 20:23)
ऊ (अआवि॰ 3:4; 26:22)
ऊजर (अआवि॰ 81:12)
ऊजर, उज्जर (अआवि॰ 42:21; 46:13)
ऊहाँ (अआवि॰ 17:13)
ऊहीं (अआवि॰ 30:10)
एकर (अआवि॰ 10:25)
एकरा (अआवि॰ 10:28)
एक्कम (अआवि॰ 67:5)
एक्के (अआवि॰ 109:32)
एगो (अआवि॰ 11:8)
एतना (अआवि॰ 50:25)
एही (अआवि॰ 13:2)
ऐसन (अआवि॰ 11:6)
ओइसन (अआवि॰ 21:3)
ओइसहीं (अआवि॰ 1:4)
ओइसे (जइसे ... ओइसे) (अआवि॰ 71:21)
ओकर (अआवि॰ 9:31)
ओकरा (अआवि॰ 9:30)
ओतना (अआवि॰ 57:7; 73:14)
ओन्ने (अआवि॰ 35:4)
ओर-छोर (अआवि॰ 79:11)
ओही (अआवि॰ 1:23; 14:19)
औगुन (अआवि॰ 109:9, 11)
कइसन (अआवि॰ 20:22)
कउनो (अआवि॰ 16:12; 36:15)
कच्छा (लंगोटी-कच्छा) (अआवि॰ 69:9)
कड़रवा (अआवि॰ 80:20)
कभियो (अआवि॰ 88:29)
कभी-कदाल (अआवि॰ 91:11)
कमासुत (अआवि॰ 57:7)
करिया (अआवि॰ 42:21)
कल-बल (~ से मेल में लाना) (अआवि॰ 31:7)
कहनाम (अआवि॰ 39:10)
काटेवाला (अआवि॰ 111:28)
कातिक (अआवि॰ 80:29)
काबिल (अआवि॰ 111:19)
कारज (अआवि॰ 80:7)
काहे कि (अआवि॰ 50:30; 64:6; 90:18; 102:25)
कुंजड़िन (अआवि॰ 32:16)
कुइयाँ (अआवि॰ 58:17)
कुदक्का (अआवि॰ 41:12)
केकरा (अआवि॰ 37:6)
केकरो (अआवि॰ 57:20)
केतना (अआवि॰ 36:11; 50:5, 10)
केतारी (अआवि॰ 39:1)
कै (~ ठो) (अआवि॰ 50:12)
कैठो (= कै ठो) (अआवि॰ 25:17)
कोय (अआवि॰ 108:31, 32)
कोयरिन (अआवि॰ 32:16)
कोर-कसर (अआवि॰ 4:18)
कोरसिस (अआवि॰ 41:3)
खटिक (अआवि॰ 32:16)
खपड़ा (अआवि॰ 58:13)
खरजीतिया (अआवि॰ 69:5; 80:29)
खर-पुआर, खेर-पुआर (अआवि॰ 33:7)
खरिहान (खेत-खरिहान) (अआवि॰ 80:5)
खल्ली (~ छुआना) (अआवि॰ 70:32)
खातिर-भाव (अआवि॰ 49:27)
खानापुरी (अआवि॰ 52:8)
खेयाल (अआवि॰ 16:4)
खेलौनिया (अआवि॰ 83:14, 17)
खैनी-तमाकू (अआवि॰ 50:33)
खोंथा (अआवि॰ 60:18)
खोरिस-पोरिस (अआवि॰ 48:33)
खोसामद-बरामद (अआवि॰ 30:20)
गंडा (पच्चास ~ बात देना) (अआवि॰ 19:20)
गजमोट (अआवि॰ 84:9)
गमछी (अआवि॰ 69:9)
गाहे-बगाहे (अआवि॰ 57:19)
गुने (अआवि॰ 4:15; 60:21)
गुरुपिन्डा (अआवि॰ 3:9; 83:31)
गुल्ली-डंटा (अआवि॰ 83:32)
गोड़ (अआवि॰ 81:31)
गोला (= आढ़त) (अआवि॰ 30:1)
घरनी (अआवि॰ 32:14; 51:10; 58:25, 26; 108:11, 15)
घराऊ (अआवि॰ 98:6)
घरे (अआवि॰ 105:24)
घुटुक (अआवि॰ 83:8)
घोड़कइयाँ (अआवि॰ 83:24, 29-30)
चइत (अआवि॰ 81:1)
चउथ (अआवि॰ 80:28)
चकचन्दा (अआवि॰ 84:4)
चट्टी (अआवि॰ 18:3)
चस्का (अआवि॰ 3:22)
चाउर (अरबा चाउर) (अआवि॰ 82:11)
चिड़इयाँ, चिरइयाँ (अआवि॰ 59:13)
चिड़ई-चिरगुन (अआवि॰ 60:17)
चिड़िया-चिरगुन (अआवि॰ 18:28)
चित्ते (अआवि॰ 82:9)
चूल्हानी, चुल्हानी (अआवि॰ 47:1)
चोली (साड़ी-चोली) (अआवि॰ 69:11)
चौथ (अआवि॰ 83:31)
चौदस (अआवि॰ 80:28)
छट्ठी-छिल्ला (अआवि॰ 80:7)
छठ (अआवि॰ 69:5)
छरदेवारी (अआवि॰ 59:32)
छरियाना (अआवि॰ 82:28)
छवाना (अआवि॰ 82:18)
छेव (~ मारना) (अआवि॰ 82:1)
छोटका (अआवि॰ 98:12)
जइसन (अआवि॰ 9:14, 18)
जइसे ... वइसे (अआवि॰ 20:15-16)
जखनी (अआवि॰ 38:11)
जतन (अआवि॰ 31:7)
जम (जन मे दीया) (अआवि॰ 80:29)
जरना (जर के छार होना) (अआवि॰ 49:31)
जरिको (अआवि॰ 105:29)
जाइज (अआवि॰ 66:17)
जीट-जाट (अआवि॰ 63:2)
जीतिया (अआवि॰ 80:23)
जुक्ति (अआवि॰ 30:21; 57:17)
जे (अआवि॰ 12:19, 22; 90:9; 93:27)
जेकर (अआवि॰ 10:33)
जेकरा (अआवि॰ 11:1)
जेठ (अआवि॰ 81:2)
जेठरैयत (अआवि॰ 31:5)
जेठान (अआवि॰ 80:30)
जेतना (अआवि॰ 38:30)
जेन्ने ... ओन्ने (अआवि॰ 35:4)
जेन्ने, जन्ने (अआवि॰ 35:4)
जोहना (= खोजना) (अआवि॰ 57:3)
जौन (अआवि॰ 30:9, 13; 36:14; 43:33; 44:31; 46:1; 77:31, 32; 82:20; 86:30)
जौर (अआवि॰ 4:15; 47:9; 82:17)
झउआना (अआवि॰ 83:3)
झमकना (अआवि॰ 80:20)
झर-झर (अआवि॰ 59:6)
झुकता (अआवि॰ 32:11)
झूमर (अआवि॰ 80:20)
झौंहराना, झौराना (झौंहरायल) (अआवि॰ 59:9)
टँगरी (अआवि॰ 81:11)
टकौरी (अआवि॰ 34:2)
टहलनी (अआवि॰ 30:2)
टिकरी (अआवि॰ 82:31)
टिकोरा (अआवि॰ 98:17)
टुकुर-टुकुर (अआवि॰ 63:28)
टुनमुनिया (अआवि॰ 93:4)
टैट (हुलिया ~ होना) (अआवि॰ 32:15)
टोला-पड़ोस (अआवि॰ 63:12)
ठट्ठा (हँसी-ठट्ठा) (अआवि॰ 80:8)
ठनकना (माथा ~) (अआवि॰ 108:5)
ठमकना (अआवि॰ 108:2)
ठेठ (अआवि॰ 41:1)
डंटा (अआवि॰ 35:22)
डंडी (~ मारना) (अआवि॰ 30:25, 26; 32:8, 18)
डंडीदार (अआवि॰ 30:2)
ढनमनाना (अआवि॰ 44:18)
ढराना (माल ~) (अआवि॰ 31:4)
ढलता (खाद आउ ~ लेवे-देवे के निर्णय भी ओकरे हाथ में रहे हे) (अआवि॰ 30:18)
ढाहना (अआवि॰ 77:32)
ढिबरा (अआवि॰ 80:18)
तइयो (अआवि॰ 41:3)
तरे (गोड़ के तरे) (अआवि॰ 81:31)
तार काटे तरकुन काटे (एक प्रकार के खेल) (अआवि॰ 80:23; 82:3)
तीज (अआवि॰ 69:5; 80:28)
तीन तेरह होना (अआवि॰ 51:11)
तुरते (अआवि॰ 109:5)
तूहूँ (अआवि॰ 25:1)
तेल-फुलेल (अआवि॰ 62:23)
तेसर (अआवि॰ 12:9)
तोर (अआवि॰ 51:12)
तोरा (अआवि॰ 25:1)
तौल-जोख (अआवि॰ 31:7-8, 13)
थक्कल (अआवि॰ 17:15)
थूरना (अआवि॰ 41:1)
थोड़िके (~ दूर, ~देर में) (अआवि॰ 88:26; 89:6)
दरकाना (अआवि॰ 64:28)
दरी (अआवि॰ 69:19)
दलान (अआवि॰ 80:18)
दुधगरी (अआवि॰ 36:11)
दू (अआवि॰ 16:3; 54:27)
दून्नो (अआवि॰ 17:18)
दूसना (अआवि॰ 75:25)
दूसर (अआवि॰ 26:19)
देआनतदारी (अआवि॰ 44:8)
देवाली (अआवि॰ 67:11)
दोदिनवाँ (चलइत-फिरइत, मनचला दोस्त ~ होवऽ हथ) (अआवि॰ 52:7)
धमकुचड़ी (अआवि॰ 80:23)
धमाचौकड़ी (अआवि॰ 71:10)
धाध (बाढ़-धाध) (अआवि॰ 91:12)
धार-मार (अआवि॰ 17:12)
धोवाई (पैर-धोवाई) (अआवि॰ 63:7)
नच्छत्तर (अआवि॰ 68:31)
नटगिरी (अआवि॰ 32:8)
नामवरी (अआवि॰ 30:19)
नामी-गरामी (अआवि॰ 34:22)
नाली-पनाली (अआवि॰ 64:18)
निबाहना (अआवि॰ 47:24)
नियन (अआवि॰ 16:9)
नीमन (अआवि॰ 60:7)
नेम (नेम-धरम) (अआवि॰ 71:20)
नेवता (झुकता आउ ~) (अआवि॰ 32:11, 14)
नेहाना (अआवि॰ 106:4)
नेहाल (अआवि॰ 37:19)
नैहर (अआवि॰ 58:9)
नौमी (अआवि॰ 80:30)
नौरात (अआवि॰ 80:29)
पख (अआवि॰ 71:5)
पखारना (अआवि॰ 98:27)
पट (हाथ पट करके रखना) (अआवि॰ 82:17)
पत्थल (अआवि॰ 58:12)
परब (परब-तेहबार) (अआवि॰ 80:6)
परिमानी (अआवि॰ 34:2)
पवित्तर (अआवि॰ 40:3; 109:21)
पहिलका (अआवि॰ 108:15)
पहुनई (अआवि॰ 106:10)
पारना (कांधा पर पार के इया गोदी में लेके) (अआवि॰ 82:28)
पिचकारी (अआवि॰ 51:1)
पिच्च-पिच्च करके (~ मुँह से पिचकारी छोड़ना) (अआवि॰ 51:1)
पीअर (हरिअर-पीअर) (अआवि॰ 69:31)
पुच्छी (अआवि॰ 49:27)
पुजापा (अआवि॰ 63:5)
पुजाही (अआवि॰ 98:27)
पुरईन (~ के पत्ता) (अआवि॰ 98:18)
पुरुखा (अआवि॰ 88:8)
पुसहा ( ~  पिट्ठा) (अआवि॰ 80:31)
पूस (अआवि॰ 80:31)
पेटकुनिए (अआवि॰ 81:13)
पेन्हाना (अआवि॰ 33:9)
पेहनना (अआवि॰ 17:8)
पोलदार (अआवि॰ 30:2)
पौआ (अआवि॰ 33:10)
फलकना (अआवि॰ 64:3)
फलना (फलनवा) (अआवि॰ 108:30)
फागुन (अआवि॰ 80:32)
फिन (अआवि॰ 3:11, 26)
फिनु (अआवि॰ 3:9; 4:15; 105:14)
फीचना (कपड़ा ~) (अआवि॰ 106:4)
फुलझरी (अआवि॰ 72:12)
बँटखारा, बटखारा (अआवि॰ 32:11, 18)
बउआ (अआवि॰ 59:13; 82:12; 83:8)
बखत (अआवि॰ 38:15)
बखान (अआवि॰ 16:21)
बखान (अआवि॰ 88:13)
बगाध, बगाद, बगात, बगान (= बाग) (अआवि॰ 60:17)
बच्छर (अआवि॰ 68:2, 10)
बड़का (अआवि॰ 30:11, 22; 49:32)
बढ़न्ती (अआवि॰ 100:29)
बधावा (अआवि॰ 42:27, 28)
बन्दरबाँट (अआवि॰ 33:2)
बरखाजा (अआवि॰ 82:3)
बरत (छठ ~) (अआवि॰ 90:23, 24, 25)
बलबूता (अआवि॰ 100:9)
बलुक (अआवि॰ 58:10; 61:1)
बसिआना (बसिआएल) (अआवि॰ 49:25)
बहुधंधी (अआवि॰ 31:4)
बाँस (लम्बाई नापे के एगो इकाई) (अआवि॰ 33:1)
बाज (~ न आना) (अआवि॰ 50:25)
बाजिब (अआवि॰ 37:15)
बाढ़ (= शारीरिक विकास) (अआवि॰ 57:1)
बान्हना (अआवि॰ 81:30)
बाप-माय (अआवि॰ 72:19)
बाल-बुतरू, बाल-बुतरु (अआवि॰ 3:10; 31:1; 36:10)
बिआह (बिआह-सादी) (अआवि॰ 80:6)
बित्ता (अआवि॰ 33:10)
बिलगाना (अआवि॰ 15:25)
बुझउअल (अआवि॰ 80:12)
बुढ़ारी (अआवि॰ 44:2)
बुतना (अआवि॰ 53:18)
बुताना (अआवि॰ 71:3)
बुद्धिवर्द्धक चूर्ण (खैनी-तमाकू) (अआवि॰ 50:33)
बेआर (अआवि॰ 37:27; 59:9)
बेटवा (बेटवे के) (अआवि॰ 39:2)
बेपारी (अआवि॰ 33:11)
बेर (अआवि॰ 26:19)
बैललद्दा (अआवि॰ 30:20)
बौड़ाहापन (अआवि॰ 73:1)
भरल-पूरल (अआवि॰ 72:4; 106:5)
भादो (अआवि॰ 80:27)
भाव-बट्टा (अआवि॰ 30:16, 23)
भुइयाँ (अआवि॰ 82:17)
भुक्खल (अआवि॰ 109:18)
मट्टी (अआवि॰ 109:5)
मड़वा-भतवान (अआवि॰ 80:7)
मनौती-पुजौती (अआवि॰ 28:27)
ममहर (अआवि॰ 59:20)
मलपेटी (अआवि॰ 30:24; 31:3)
मललदवा (अआवि॰ 30:15)
मसोसना (मन मसोस के रहना) (अआवि॰ 41:13)
महीन्ना (अआवि॰ 82:31)
माघ (अआवि॰ 80:32)
माथा (अआवि॰ 110:8)
माय (अआवि॰ 3:1)
माहिर (अआवि॰ 105:13)
मुँह-फुलौअल (अआवि॰ 108:30-31)
मुँहमुँदा (अआवि॰ 64:3)
मुख (= मुख्य) (अआवि॰ 57:5)
मेहरी (अआवि॰ 17:13)
मैया-दैया (अआवि॰ 4:11)
मोकदमा (अआवि॰ 109:3)
मोदीआईन (अआवि॰ 32:16)
रग (रग-रग में) (अआवि॰ 80:2)
रगेदना (अआवि॰ 82:13)
रवेदार, रवादार (अआवि॰ 28:12; 49:1; 58:20)
रहनिहार (अआवि॰ 59:22)
रहेवाला (अआवि॰ 88:12)
रामजी (= एक) (अआवि॰ 31:19, 20)
रिवाज (अआवि॰ 48:16)
रोकड़िया (अआवि॰ 31:26)
रोकड़िया-मुंशी (अआवि॰ 30:2)
ललक (अआवि॰ 107:14)
ललकना (अआवि॰ 108:2)
ला (= के लिए) (अआवि॰ 20:31)
लागी (अआवि॰ 17:26)
लेन-देन (अआवि॰ 109:4-5)
वइसन (जइसन ... ~) (अआवि॰ 48:32)
वाजिब (अआवि॰ 73:5)
वेक्ति, बेक्ति (अआवि॰ 47:25)
वैसाखी पुनिया (अआवि॰ 81:2)
शक-शुब्हा (अआवि॰ 54:13)
सकरात-मकरात (अआवि॰ 80:32)
सगरो (अआवि॰ 11:12; 28:32; 92:16; 105:28)
सतुआनी-विसुआ (अआवि॰ 81:1)
समुन्दर (अआवि॰ 58:14; 107:11)
सर-सामान (अआवि॰ 51:11)
सरहज (अआवि॰ 62:4)
सलाई (अआवि॰ 63:24)
सलोनी, सलौनी (अआवि॰ 69:5)
सलौनो (अआवि॰ 80:27)
ससुर (अआवि॰ 62:2)
ससुरार (अआवि॰ 58:9; 62:1)
सहल (उहाँ दोस्ती के बदलाव सहज आउ ~ हे) (अआवि॰ 48:23)
साका (?) (अआवि॰ 95:13)
साथे-साथ (अआवि॰ 51:1; 100:13; 101:28)
साथे-साथे (अआवि॰ 93:5)
सामन (अआवि॰ 82:24)
साला (अआवि॰ 62:4)
साली (अआवि॰ 62:4)
सावन (अआवि॰ 80:27)
सास-ससुर (अआवि॰ 63:9; 108:32)
साहित्त (अआवि॰ 80:10)
सिलपट (~ बनाना) (अआवि॰ 18:9)
सींकी (अआवि॰ 63:24)
सुघड़ (अआवि॰ 58:2)
सुघराई (अआवि॰ 60:20)
सुताना (अआवि॰ 82:29)
सुत्थर (अआवि॰ 58:2)
सुन्नर (अआवि॰ 81:20)
सुपली (अआवि॰ 82:8)
सूखल (अआवि॰ 62:11)
सूतना (अआवि॰ 20:26)
सेन्नुर (अआवि॰ 69:11)
सोमार (अआवि॰ 68:9)
सोलहो आना सत्त होना (अआवि॰ 38:6)
सोहर (अआवि॰ 80:20)
सौंसे (अआवि॰ 38:9; 45:1; 53:21; 85:4; 91:1; 92:19; 107:8)
हँसुली (अआवि॰ 80:31)
हटवे (अआवि॰ 31:5, 15; 32:20)
हमनीं (अआवि॰ 39:6)
हमनी (अआवि॰ 101:17)
हमरा (अआवि॰ 37:28)
हम्मर (अआवि॰ 17:5; 29:31)
हर (= हल) (अआवि॰ 38:32)
हरगोजे गुंजा कोई बुझले (एक प्रकार के खेल) (अआवि॰ 80:22; 83:27, 28)
हरल-भरल (अआवि॰ 60:28; 63:21; 64:1)
हरिअर (अआवि॰ 62:22; 91:11)
हरिअरी (अआवि॰ 11:5)
हाकिम-हुकमरान (अआवि॰ 66:15)
हाली-हाली (अआवि॰ 81:9)
हिकारत (अआवि॰ 10:5)
हिरदा (अआवि॰ 95:7; 97:5; 99:8)
हिरिस (अआवि॰ 79:7)
हींच-खींच (अआवि॰ 82:6)
हीआँ (अआवि॰ 50:31)
हुलिया (अआवि॰ 110:16)
हूरना (अआवि॰ 41:1)
हूर्रा (अआवि॰ 41:2)

1. त आखिर हमरा देखलथिन काहाँ ?

मूल कन्नड - हरिदास आचार्य       मगही अनुवाद - नारायण प्रसाद
[गोविन्द स्वामी के बुरा लत से पीछा छोड़ावे ल उनकर मित्र सब कइलका भी त कीऽ ?]

अइसे देखल जाय त गोविन्द स्वामी के बारे दफ्तर में काम करे वला कर्मचारी सब के चर्चा करे लायक कोय गम्भीर बात नयँ हलइ । तइयो उनका छुट्टी पर रहे से आउ दफ्तर में अनुपस्थित रहे वला के राई नियर बुरा लत के पहाड़ी नियर बनाके बतिआय ल हम सब के हमेशा जादे लगाव रहे से गोविन्द स्वामी के बारे बतिया रहऽलिये हल ।

बुरा लत मतलब फिल्मी अन्दाज़ में 'हम्मर पत्नी ही तीनो लोक के सुन्दरी हइ' - ई तरह के बात करे वला कोय बुरा लत गोविन्द स्वामी के नयँ हलइ । कोय भी अपरिचित से परिचित होतहीं टुभक दे हला - "लगऽ हइ कि अपने के कहीं देखऽलिये ह ।" कोय भी केकरो से कभी भी जरूरत पड़ला पर परिचित करइलक नयँ कि झट से उनकर मुँह से निकल पड़ऽ हलइ - "अपने के तो कहीं देखऽलिये ह ।" ई सुनला पर नया लोग के बेकार के सिर खुजला के सोचे ल लचार कर देना हम सब के दृष्टि में गोविन्द स्वामी के कइ-एक अवगुण में से एक । ई बारे कइ-एक तुरी बुरा-भला सुनइलो पर ई सब पत्थल पर बारिश के समान ही बह के रह जा हलइ । बस ।

हम सब के सहकर्मी मंगला के बुतरू होले ह, एक तुरी अइसन समाचार ओक्कर पति से अस्पताल से फोन पर मालूम होलइ । साँझ के हम सब एक साथ जच्चा-बच्चा के देखे ल गेलिअइ । जलम लेल कुच्छे घंटा होल ऊ बुतरू के देखतहीं हम्मर गोविन्द स्वामी उद्गार प्रकट कइलका - "ई बुतरू के तो कहीं देखऽलिये ह ।"

शायद ई घटना याद अइतहीं श्रीधर बोललका - "हम सब के भी अपरिचित के देखला पर कभी-कभार बहुत विचित्र जइसन लगऽ हइ कि इनका कहीं देखलिये ह । लेकिन गोविन्द स्वामी के बात तो अति होल हइ । कोय भी तरह से ई लत के छोड़वाहीं के चाही ।"

"ई काम ओतना असान नयँ हइ, भाय । ई उनकर जलम से आवल लत हइ" - रामकृष्ण बोलला ।
"हमरो अइसहीं लगऽ हइ" - बात के आगे बढ़इते इस्माइल बोलला - "गोविन्द स्वामी जलमतहीं अप्पन मइया के मुँह देखके अइसहीं सोचलका होत कि 'एकरा तो कहीं देखलिये ह' ! जलम से अइसने लत उनका अब तक लग्गल हइ ।"
"हम ई कार्यालय में योगदान करे ल अइलिये हल त गोविन्द स्वामी के बारे एगो जोक (चुटकुला) प्रचार में हलइ .... ", कार्यालय में गोविन्द स्वामी से जुनियर रमानन्द अप्पन याद ताजा करते बोलला, "गोविन्द स्वामी के सीनियर सब के कहना हलइ कि गोविन्द स्वामी के ब्याह के पहिले अप्पन होवेवली पत्नी के साथ बात करे के मौके नयँ मिलले हल । ब्याह के मंडप में संकोच के चलते बात नयँ हो पइलइ त दूनहूँ के बीच बातचीत चालू होलइ ब्याह के दिन कोहबर में । मन्द रोशनी में पत्नी के गाल सहलइते गोविन्द स्वामी कोमल स्वर में फुसफुसइते कहलका – "अजी, लगऽ हको तोरा कहीं देखऽलियो ह ।" एकरा पर उनकर पत्नी उनको से अधिक कोमल स्वर में थोड़े लजइते बोलला - "आज ब्याह के मंडप में .... अपने न हम्मर माँग में सेनूर डललथिन हल जी ?"

"गोविन्द स्वामी के ई लत छोड़वाना बहुत कठिन हइ अइसन तो हमरा बिलकुल नयँ लगऽ हइ" - अभी-अभी कर्मचारी के रूप में योगदान कइल नित्यानन्द बोलला ।
"हमहूँ पहिले पहल अइसहीं समझऽ हलिअइ, लेकिन कइ-एक बरस तक के कोशिश बेकार होला के बाद एहे लगऽ हइ कि उनकर ई लत दूर करना असम्भव हइ" - हम बोलऽलिअइ ।
"अगला दू महिन्ना में गोविन्द स्वामी के लत बिलकुल दूर कर देबइ, देखते रहथिन" - परन करते जइसन नित्यानन्द बोलला ।
नित्यानन्द के बात के बारे, ऊ निश्चय विफल होता ई बारे सोचते हम सब बाहर निकल गेलिअइ ।

X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X

एक दिन साँझ के सबके घर जाय के समय । कोय अपरिचित व्यक्ति नित्यानन्द के बारे पूछते अइलइ । ऊ अपरिचित से नित्यानन्द हम सबके परिचय करइलका ।
"ई विवेक, हम्मर मित्र ।"
"अपने के परिचय पा के बड़ी खुशी होलइ" - हम सब सामान्य लहजा में बोलऽलिअइ । लेकिन खाली गोविन्द स्वामी अप्पन तकियाकलाम में बोलला - "अपने के तो कहीं देखऽलिये ह ।"
एकरा पर विवेक खाली मामूली अपरिचित जइसन सिर खुजलइले बिना बोलला - "हमरा देखलथिन हँ ? काहाँ हो सकऽ हइ ? दू बरस पहिले हम हिंडलिगा जेल में हलिअइ । अपने हूआँ कोय अपराधी के रूप में अइलथिन हल ?"
विवेक के प्रश्न से अपमानित होल जइसे गोविन्द स्वामी बोलला - "नयँ जी, हम जेल काहे लगि जाम ?"

एकरा पर विवेक बोलला - "रोज दिन हम साँझ के शराबखाना जा हिअइ । हो सकऽ हइ कि हूआँ अपने अइलथिन होत त हमरा देखलथिन होत ।"

गोविन्द स्वामी लगि ई अप्रत्याशित आघात हलइ । शराबखाना से हमेशा दूर रहे वला, शराबखाना तरफ सिर रखला पर जिनका नीन नयँ आवऽ हलइ ऊ गोविन्द स्वामी विवेक के बात सुन के धक्का अनुभव कइले जइसे बोलला - "शराब नयँ, खाना नयँ । शराबखाना जाय के हम्मर आदत नयँ ।"

गोविन्द स्वामी के चीढ़ देख के हम सबके अब समझ में आ गेलइ कि गोविन्द स्वामी के लत छोड़वाहीं लगि नित्यानन्द विवेक के पहिलहीं से तैयार कराके बोलइलका ह ।

"त अपने ई शहर में आवे के पहिले काहाँ हलथिन ?" - विवेक पूछलका ।
"हुबली में हलिअइ" - गोविन्द स्वामी सिर बिना ऊपर कइले उत्तर देलका ।
"अच्छऽ ! हमहूँ तो हुबली में हीं हलिअइ । रोज साँझ के गंगू बाई के कोठा पर नाच देखे लगि हमरा जाय के आदत हलइ । अपने के भी हूआँ आवे के आदत होतइ त हमरा हूआँ देखलथिन होत ।"
"हमरा अइसन कोय आदत नयँ हके" - गोस्सा करते गोविन्द स्वामी उठके संडास तरफ निकलला ।
"त आखिर हमरा देखलथिन काहाँ ?" - विवेक के प्रश्न सुन के भी अनसुनी करते गोविन्द स्वामी चल गेला ।

X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X

केकरो से परिचित करइला पर भी अब गोविन्द स्वामी "अपने के कहीं देखऽलिये ह" - अइसन भूल के भी बोले वला नयँ !


["अलका मागधी", जून 2009, बरिस-15, अंक-6, पृ॰17-18 में प्रकाशित]

Thursday, June 11, 2009

4. मगही भाषा के मानक रूप



4. मगही भाषा के मानक रूप

लेखक - डॉ॰ सम्पत्ति अर्याणी (जन्मः 31-3-1923)

["मगही व्याकरण-प्रबोध", में तृतीय खण्ड, "मगही भाषा के कुछ समस्या" के अध्याय-1 के अन्तर्गत "मगही भाषा के मानक रूप", पृ॰ 3-16 पर छपल मूल लेख के चुनिन्दा एवं थोड़े-सन सम्पादित अंश]

कोई भाषा के 'मानक रूप' के अर्थ हे - "भाषा के ऊ रूप, जे व्याकरणिक संरचना के दृष्टि से ऊ भाषा के अधिकांश शिक्षित लोग द्वारा शुद्ध मानल जाए आउर ओकरा व्यवहार में लावल जाए ।"

मगही भाषा अपन सम्पूर्ण परम्परागत गरिमा के साथ, विशाल मगध क्षेत्र के लोकाभिव्यक्ति के माध्यम ईसा के ८वीं शती से लेकर आज तक बनल हे । कालक्रम में, अनेक कारण से एकरा में अनेक क्षेत्रीय विशेषता समाविष्ट हो गेल हे । ई उच्चारण, शब्द-समूह अथवा अन्य व्याकरणिक स्तर पर लक्षित हो हे ।

उदाहरण ला एगो पटना जिला के ही लेवल जाए, तो ओकर देहात आउर नगर के भाषा में स्पष्ट अन्तर देखाई पड़त । पटना नगर के आस-पास के मगही में उत्तर-पश्चिम प्रान्त के मुहावरा के मिश्रण मिलत, जबकि पटना जिला के ग्रामीण मगही ई बाह्य प्रभाव से बहुत अंश तक बचल देखाई पड़त । गया जिला के मगही के शुद्धता बहुत दूर तक सुरक्षित हे, कारण कि गया जिला हिन्दू धर्म के सांस्कृतिक केन्द्र रहल हे । एकरा पर बाह्य प्रभाव न के बराबर पड़ल हे । फिर एकर स्थिति मगही क्षेत्र में केन्द्रवर्ती हे ।

मगही क्षेत्र में वर्त्तमान स्थानीय विशेषता के देखइत, ई सवाल पैदा हो हे कि कौन क्षेत्र के मगही के रूप के मानक मानल जाए ? विचारक गंभीर रूप से चिन्तना करइत हथ कि आज मगही न केवल पारिवारिक आउर सामाजिक स्तर पर व्यवहृत होइत हे, बल्कि शिक्षा के माध्यम के रूप में भी उच्च कक्षा में व्यवहृत होइत हे । एकरा में व्यापक रूप से साहित्य-सृजन हो रहल हे । अतः एकर एक सर्वस्वीकृत, न तो कम-से-कम बहुस्वीकृत मानक रूप आवश्यक हे । भाषा में एकरूपता आउर मानकता आवे से एक तरफ तो साहित्य-सृजन में आसानी होएत, दूसर तरफ अन्य भाषा-भाषी लोग के मगही-साहित्य के पढ़े आउर समझे में दिक्कत भी न होएत ।

कुछ अन्य विचारक कहऽ हथ कि भाषा के मानकता मात्र एगो कल्पना हे । भाषा बहुत लचीला हो हे । लाख यत्न करके भी ओकर कोई मानक रूप स्थिर कैल जाए, लेकिन ओकर प्रयोक्ता जाने-अनजाने नित नया प्रयोग करइत रहे हे । एके क्षेत्र के दूगो वक्ता के भाषा में भी एकरूपता न हो सके हे । शिक्षण, वातावरण, अवस्था, व्यवसाय, सामाजिक, आर्थिक परिस्थिति आदि के हिसाब से आदमी-आदमी के भाषा में अन्तर आ जा हे । पुरुष आउर नारी के भाषा में भी अन्तर हो हे । भाषा के व्यवहार में लोग नित नया गलती भी करऽ हथ । संभवतः एही कारण हे कि भाषा, समय के साथ-साथ बदलइत रहे हे, ओकर विकास के धारा प्रवाहित होवइत रहे हे आउर एही क्रम में आगे बढ़इत रहे हे ।

व्याकरणिक दृष्टि से ई प्रसंग पर विचार

शुद्ध मगही में ऋ, ङ, ण, श, ष, क्ष, ज्ञ, विसर्ग और उर्दू या विदेशी भाषा के नुक्तायुक्त अक्षर क़, ख़, ग़, ज़, फ़ के एवं अंग्रेजी भाषा के ऑ के प्रयोग न हो हे । 'ज्ञ' के उच्चारण 'ग्य' और 'क्ष' के उच्चारण 'छ' हो हे । शब्द के आरंभ में आएल 'य' के उच्चारण मगही में 'ज' हो जा हे । 'व' के स्थान पर विकल्प से 'ब' लिखल आउर उच्चारित कैल जा हे ।

मगही के साहित्यकार देशी आउर विदेशी शब्द के तत्सम रूप के भी व्यवहार अपन साहित्य में या बोलचाल में करऽ हथ । ऐसन स्थिति में ङ, ण, श, ष, ऋ, ज्ञ जैसन वर्ण के मुक्त भाव से प्रयोग होवे हे ।

एकरा चलते मगही के विद्वान लोग के बीच विवाद भी चल पड़े हे । एक वर्ग के विचार हे कि मगही देशी आउर विदेशी शब्द के आत्मसात् करके अपन शब्द-समृद्धि बढ़ावे, दूसर वर्ग खाँटी आउर प्रकृत मगही के ही व्यवहार करे पर अडिग देखाई पड़े हे ।

जे होए, ई विवाद तो बातचीत करके निपटावल जा सके हे । लेकिन एतना स्पष्ट हे कि मानक रूप के निर्धारण में ध्वनि के स्तर पर मगही में कोई खास समस्या न हे । ध्वनि के उच्चारण में जे क्षेत्रीयता देखाई पड़े हे, ओकरा तो स्वीकार करे पड़त । ओकर मानकीकरण का होएत ?

संयुक्त व्यंजन

मगही में संयुक्त व्यंजन के व्यवहार भी हो हे । जैसे - बिच्छा, चूल्हा, लम्मा, खिस्सा आदि ।

संयुक्ताक्षर के बारे में मगही के विद्वान लोग के बीच कुछ मतभेद हे -

(१) एक मत हे कि संयुक्ताक्षर के पूर्णाक्षर बना के लिखे के चाहीं । जैसे - प्रकृति > परकिरती, प्रतिज्ञा > परतिग्या, मर्यादा > मरजादा, व्यवहार > बेहवार, मुख्य > मुख, विश्लेषण > विसलेसन आदि ।

ई लोग अपन पक्ष में तर्क दे हथ कि संयुक्ताक्षर या तत्सम शब्द के अपनावे पर मगही ध्वनि लुप्त हो जाएत आउर मगही के ठेठपन तथा स्वाभाविक सौन्दर्य नष्ट हो जाएत ।

२. दूसर मत हे कि कोई शब्द के मगहीकरण के फेरा में कहीं विकृतीकरण न हो जाए । कारण भिन्न-भिन्न आदमी भिन्न-भिन्न तरह से मगहीकरण करतन, एकरा से एकरूपता नष्ट हो जाएत । कभी-कभी अर्थ भी बाधित होएत । जैसे -

(क) 'मुख्य' के अर्थ हे - 'प्रधान' या 'विशेष' । बाकि 'मुख' लिखे से अर्थ होएत - मुखड़ा, चेहरा आदि । एही तरह 'अन्य' के अर्थ हे - पराया, दूसर । बाकि 'अन्न' या 'अन' लिखे से अर्थ होएत - खाद्यान्न विशेष। ऐसन अनेक शब्द हे, जेकरा विकृत करे से अर्थ ही बदल जाएत ।

(ख) मगहीकरण के फेरा में शब्द के एकरूपता भी नष्ट होएत । जैसे - प्रकृति > पर्किरति, परकिरति, परकिरती आदि; व्यवहार > बेहवार, बेवहार, व्योहार आदि ।

एकरा में कौन रूप मानक मानल जाएत ? हमर विचार में एकरा से अच्छा ई होएत कि जौन शब्द के मगही रूप उपलब्ध होए, तो ओकरे व्यवहार में लावल जाए आउर यदि उपलब्ध न होए, तो तत्सम रूप ही अपनावल जाए । मनमाना ढंग से शब्द के तोड़-मरोड़ के ऐसन दुरूह न करे के चाहीं कि ओकर बोधगम्यता समाप्त हो जाए । भाषा के विकास स्वतः हो हे । ठीके डॉ॰ रामप्रसाद सिंह कहलन हे - "भाषा के विकास कैल न जाए, होवइत रहे हे ।" यदि तत्सम शब्द के मगहीकरण ला निश्चित नियम बनावल जाए आउर सभे ओकरे आधार पर मगहीकरण करथ, तो अलग बात हे । बाकि अभी ई संभव न दीखे हे ।

लिंग आउर वचन
मगही में संज्ञा शब्द के लिंग आउर वचन सम्बन्धी व्यवहार में मानक रूप के कोई विवाद न हे ।

ई भाषा में संज्ञा के लिंग-ज्ञान क्रिया द्वारा न हो हे, काहे कि क्रिया में लिंग-भेद न हे । जैसे - मोहन जा हई । राधा जा हई ।

लिंग के कारण मगही के संबंध कारक के चिह्न में भी कोई परिवर्तन न हो हे । जैसे - राम के घर; राम के बहिन ।

सर्वनाम के रूप में भी लिंग-भेद से रूपान्तर न हो हे । जैसे - हमर बेटा; हमर बेटी ।

विशेषण में भी लिंग के कारण कोई रूपगत परिवर्तन न हो हे । जैसे - भुक्खल गइया; भुक्खल बैला ।
[नोटः परन्तु रिश्तेदारी से सम्बन्धित विशेषण में रूपान्तर होवऽ हइ । जैसे - छोटकी मइया; बड़का बाउ । - संकलनकर्ता]

कारक के परसर्ग
कर्त्ता - ०
कर्म - के
करण - से, सेँ, सेती, सतीँ, सती
सम्प्रदान - ला, ले, लेल, लगी, लागी, वदे, खातिर, चलते, वास्ते, ए
अपादान - से, सेँ, सेती, सतीँ, सती
सम्बन्ध - क, के, केर, केरा, केरी
अधिकरण - में, मेँ, मोँ, ने
सम्बोधन - अहो, एहो, अगे, गे, अजी, जी, अबे, अरे, रे

सम्बन्ध कारक के कुछ रूप छोड़ के अन्य सर्वनाम में भी प्रायः ई परसर्ग लगावल जा हे ।

सम्बन्ध कारक के चिह्न 'केरा', 'केरी' के व्यवहार लोकगीत में अधिक हो हे । अधिकरण कारक के चिह्न 'ने' के व्यवहार नालन्दा, राजगीर आदि पूर्वी मगध क्षेत्र में अधिक हो हे । जैसे -
हमनी पानी ने भींज गेली ।
हिआँ 'ने" के व्यवहार 'में' के अर्थ में भेल हे ।

सम्प्रदान कारक में 'ला', 'लेल', 'लागी' आदि के अधिक व्यवहार होवे हे ।

मगही कारक के एतना चिह्न देख के सवाल उठे हे कि एकर मानक रूप केकरा मानल जाए ? सम्पूर्ण मगध-क्षेत्र में, प्रायः सभे कारक चिह्न व्यवहृत हो हे । ऐसन स्थिति में कोई एक के मानक निर्धारित करना भी कठिन हे ।

हिन्दी में भी सम्प्रदान कारक में 'के लिए', 'वास्ते', 'खातिर', 'चलते' आदि कै गो रूप व्यवहार में आवे हे । अधिकरण कारक में भी 'में', 'पै', 'पर' आदि रूप के खुला प्रयोग हो हे । ई रूप सब एतना प्रचलित हे कि इनका में से कोई एक के मानक निर्धारित करना कठिन हे । ऐसन प्रयोग के क्षेत्रीय मानकता प्रदान करे के अलावा आउर कोई उपाय न हे, काहे कि एतना बड़ा क्षेत्र में ई बहुप्रचलित प्रयोग के अमानक मान के निकालना कठिन ही न, असंभव भी हे । मगही के प्रकाशित साहित्य में भी इनकर खूब प्रयोग हो हे आउर साहित्य में इनकर जड़ पूरा पैठ गेल हे ।

[नोटः
१. बिहारशरीफ के आसपास के मगही में सम्प्रदान कारक में 'ला' के स्थान पर 'ल' के प्रयोग होवऽ हइ आउ सम्बोधन में 'अहे' 'हो' के भी प्रयोग होवऽ हइ ।
२. जाहाँ तक सम्बोधन के परसर्ग के बात हइ, एकरा में से कुछ ('अहो', 'एहो','अगे', 'अजी', 'अबे', 'अरे' ) के प्रयोग पूर्वसर्ग के रूप में होवऽ हइ या बेहतर होतइ कि ई सब के स्वतन्त्र शब्द मानल जाय ।
३. सम्बोधन के दर्शावल परसर्ग या पूर्वसर्ग में से कोय एक के दूसरा के स्थान पर नयँ रक्खल जा सकऽ हइ । प्रसंग के अनुसार एकरा में से प्रत्येक के अलग-अलग प्रयोग होवऽ हइ । ओहे से एकरा में मानकता के सवाल नयँ उठऽ हइ । --- संकलनकर्ता ]

सर्वनाम

सर्वनाम के छः भेद हो हे, जे थोड़ा-बहुत अन्तर के साथ सम्पूर्ण मगध क्षेत्र में चले हे । कुछ रूप क्षेत्र-विशेष में भी प्रचलित हे । जैसे -

१. 'हम' के जगह पर 'हम्में' (बिहारशरीफ, नालन्दा आदि पूर्वी मगध क्षेत्र में)

[नोटः हम्मर मत में ई बात सही नयँ हइ । 'हम' के जगह पर 'हम्में' के कभी प्रयोग नयँ कैल जा हइ । जब कभी 'हम' पर जोर देल जा हइ, तभीये 'हम' के जगह पर 'हम्में' के प्रयोग' होवऽ हइ । जैसे - हम्में हुआँ जा के की करवइ ? अर्थात् What shall *I* do by going there ? i.e. So far as I am concerned, there is no use going there. लेकिन ई वाक्य के भी बोले बखत 'हम' पर जोर देके कहल जा सकऽ हइ । *हम* हुआँ जा के की करवइ ? ]

२. 'तू' के जगह पर 'तौं' (मुंगेर, भागलपुर आउर संथालपरगना के दक्षिणी इलाका में)

३. हिन्दी 'क्या' ला मगध क्षेत्र में 'का' प्रचलित हे, बाकि पटना के दक्षिण-पूर्वी भाग में 'की' हो जा हे ।

४. पटना-गया में 'कोई' के पूर्वी मगध क्षेत्र में 'कोय' हो जा हे ।

ऐसन कुछ क्षेत्रीय अन्तर के छोड़ के सर्वनाम के व्यवहार में कोई समस्या न हे ।

विशेषण
विशेषण अपन विविध भेद-प्रभेद के साथ थोड़ा-बहुत क्षेत्रीय अन्तर सहित सम्पूर्ण मगध-क्षेत्र में प्रचलित हे । एकरा में मानकता के कोई विवाद न हे ।

निषेधात्मक विधि

निषेधात्मक विधि के रूप में निम्नांकित प्रयोग सारा मगध-क्षेत्र में प्रचलित हे - न, नहीं, ने, नञ, मत, मति, मतू, जनि आदि ।

न, नहीं आदि - पटना गया आदि में प्रचलित

नञ - बिहारशरीफ, नालन्दा आदि क्षेत्र में

ने - मनेर के तरफ

नइखे, नखथी, नखब आदि - औरंगाबाद आउर पलामू जिला के उत्तरी-पश्चिमी भाग में

ई सारा रूप मगध क्षेत्र में परिचित हे । एकरा ले के कोई समस्या न हे ।


समुच्चयबोधक (conjunction)

समुच्चयबोधक अव्यय के रूप में आ, औ, अउ, अउर, आउर आदि रूप के व्यवहार होवे हे ।

एही तरह तुलना ला मगही में हे - नाई, नियर, सन, जैसन, ऐसन, जकत आदि ।

'अथवा' आउर 'या' ला मगही में 'इया' के प्रयोग चले हे ।

उपर्युक्त सभे रूप व्यापक रूप में मगही क्षेत्र में व्यवहृत हो हे । इनका बहुप्रचलित मान के मानकता प्रदान करे पड़त ।

क्रिया-रूप

मगही भाषा में असल जटिलता एकर क्रिया-रूप के ले के हे, जहाँ एके धातु से, एके अर्थ में अनेक रूप बने हे । यद्यपि मूल (root) एके हो हे, तथापि ओकरा में कै गो प्रत्यय जोड़ के, केतना ही रूप बनावल जा हे । जैसे -
'देख्' के रूप लेवल जाए । निश्चयार्थ, सामान्य भूतकाल में, तीनों पुरुष में एकरा से अनेक रूप बने हे -

                  
---------------------------------------------------
  पुरुष           अनादरवाचक                आदरवाचक
---------------------------------------------------
उत्तम पुरुष         देखली, देखलूँ, देखलों,     देखलिन, देखलिअइन
देखलौं, देखलिक, देखलियो ।
देखलिअई आदि ।
---------------------------------------------------

मध्यम पुरुष देखले, देखलै, देखलहीं देखलऽ, देखलहू,
देखलही । देखलहो, देखलहुन ।
---------------------------------------------------

अन्य पुरुष देखला, देखलका, देखलिन, देखलथी,
देखलकइ, देखकइ, देखलकन,देखलकिन,
देखलक । देखलथिन,देखलकथिन,
देखलखन,देखलखिन ।
---------------------------------------------------


मगही के प्रत्येक धातु से, एके अर्थ में ऐसऽहीं अनेक रूप बने हे जेकरा में कोई तो सभे क्षेत्र में चले हे, कोई क्षेत्र-विशेष में । जैसे -
१. ऊ देखलथी, देखलथिन, देखलथुन आदि - पटना, गया जिला आदि में
ऊ देखलखन, देखलखिन, देखलखुन आदि - मगध के पूर्वी क्षेत्र, बेगुसराय, वैशाली के दक्षिणी इलाका में

२. 'वह था' के लिए -
ऊ हलई - पटना, गया आदि में
ऊ हला - पूर्वी क्षेत्र में

'हम थे' के लिए -
हम हली - पटना, गया आदि में
हम्में हलौं - पूर्वी क्षेत्र में

[नोटः बिहारशरीफ के आसपास के मगही में 'वह था' लगी अन्य कई एक रूप (जैसे - 'ऊ हलउ', 'ऊ हलो') के साथ-साथ उपर्युक्त रूप में से खाली 'ऊ हलइ' के प्रयोग होवऽ हइ । 'ऊ हला' के प्रयोग एकवचन में केवल आदरार्थ कैल जा हइ । 'हम थे' लगी उपर्युक्त दूनहूँ रूप में से कोय के प्रयोग हमरा कभीयो सुनाय नयँ पड़ल ह । एकरा लगी निम्नलिखित रूप के प्रयोग होवऽ हइ -
'हम हलूँ' अथवा 'हम हलिअइ' । कभी-कभी 'हलूँ' के जगह पर 'हनूँ' भी सुनाय दे जा हइ ।

साधारणतः एक्के क्षेत्र में जे कुछ क्रियारूप में अनेकता देखल जा हइ, ऊ सब के एक्के अर्थ में प्रयोग नयँ होवऽ हइ । एकर खुलासा विवेचन निम्नलिखित जालस्थल पर कैल जइतइ -
http://magahi-vyakaran.blogspot.com ]

३. कुछ क्षेत्र में क्रिया के अंतिम वर्ण अगर व्यंजन हे, तो एकर उच्चारण 'अकार' जैसन हो हे, अन्य क्षेत्र में वर्तुलाकार जैसन । जैसे -
अपने पढ़लऽ - गया, पटना आदि में
अपने पढ़लहो - पूर्वी क्षेत्र आदि में

[नोटः बिहारशरीफ के आसपास के मगही में 'अपने पढ़लथिन' जैसन प्रयोग होवऽ हइ अर्थात् 'अपने' शब्द के प्रयोग हमेशा अन्य पुरुष में कैल जा हइ ]

एही तरह एक क्षेत्र में 'अपने कर रहलहु हे' बोलल जाएत, तो दूसर क्षेत्र में 'कर रहलहो हे', कहीं 'झलके लगल' बोलल जाएत तो कहीं 'झलको लगलै' । कहीं 'तोरा धन हवऽ' बोलल जाएत तो कहीं 'तोरा धन हको' आदि-आदि ।

क्रिया-रूप के एतना विविधता में भी कोई मौलिक अन्तर न देखाई पड़त । बखूबी सारा रूप चल सकऽ हे । गया के 'न जाएब', पटना के 'न जाम', नालन्दा-राजगीर के 'नञ जायम' आदि में एगो आन्तरिक एकता हे । बल्कि, कहीं तो सम्पूर्ण मगध-क्षेत्र में भाषागत मौलिक एकता आउर परस्पर बोधगम्यता देखाई पड़त ।

मगही के ढेर सारा प्रचलित क्रिया-रूप में, कोई एक रूप के स्थिर करना कठिन हे । अतः लोक प्रचलित रूप के स्वीकार करे ही पड़े हे । मानकता के फेरा में उनका अस्वीकार न कैल जा सके हे ।

मगध क्षेत्र अति व्यापक हे । एकरा चलते व्याकरणिक स्तर पर कुछ-न-कुछ क्षेत्रीय विशेषता मगही में रहवे करत । उनका क्षेत्रीय मानकता देवे ही पड़त ।

'शब्द' और 'अर्थ' के संगति

मगही के मानक स्वरूप के निर्धारण में एगो समस्या आउर हे - 'शब्द' और 'अर्थ' के संगति के । जैसे - मगही के बहुप्रचलित शब्द 'हँसुआ' ला गया जिला में 'चिलोई' आउर गंगा के तटवर्ती इलाका में 'फाँसुल' हे । एही तरह - 'अरबी' ला 'अरुई' आउर 'पेपची'; 'तोरई' ला 'नेनुआ'; प्रचलित 'कद्दू' ला 'घिउरा' या 'लौकी'; 'लड़का' ला 'बाबू'; 'लड़की' ला 'मइया'; 'दादी' ला 'मामा', 'कुआँ' ला 'इनरा'; 'बच्चा' ला 'बुतरू', 'लइका', 'गीदड़', 'बउआ' आदि प्रचलित हे । थोड़ा-थोड़ा दूर पर शब्द आउर अर्थ के ई अन्तर व्यापक रूप में देखाई पड़े हे ।

मगध क्षेत्र के विशालता देखइत ई स्वाभाविक भी हे । विश्व के हर विशाल-क्षेत्रीय भाषा में ऐसने हे । हिन्दी तो ऐसन उदाहरण से भरल पड़ल हे । प्रत्येक प्रदेश के निवासी हिन्दी के, अपन भाषा के रंग में रंग के, अपनावे हे । एक बिहारी (भोजपुरी, मगही आउर मैथिली भाषी), एक दिल्लीवासी, एक गुजराती, एक उत्तरप्रदेश निवासी, एक पंजाबी आदि सभे हिन्दी बोलऽ हथ, ओकरा में साहित्य रचऽ हथ, बाकि उनकर व्यवहृत हिन्दी क्षेत्रीय रंग में अवश्य रंग जा हे, उनकर विविध प्रयोग आउर शब्द भाण्डार से अवश्य सुसज्जित आउर समृद्ध हो जा हे । फिर विशाल मगही क्षेत्र में एके शब्द के भिन्न-भिन्न पर्याय होए, तो एकरा में अस्वाभाविक का हे ? एकरा से मानकता बाधित भी न होएत । मानक भाषा एक प्रकार से सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक हो हे । ओकर संबंध केवल भाषा के संरचना से न हो के, सामाजिक स्वीकृति से हो हे । कोई प्रकार के संरचना के भाषा यदि सामाजिक स्वीकृति पा चुकल हे, तो ऊ मानक हे ।

कौन क्षेत्र के मगही के मानक मानल जाए ?

आज ई बात के ले के विवाद चलइत हे कि कौन क्षेत्र के मगही के आदर्श आउर मानक मानल जाए ? कुछ लोग गया के मगही के आधार पर आदर्श आउर मानक मानऽ हथ कि गया के स्थिति मगध में केन्द्रवर्ती हे, हुआँ मगही अपन शुद्ध रूप में अवस्थित हे । पटना आउर बिहारशरीफ आदि पूर्ववर्ती क्षेत्र के मगही पर मध्यकालीन फारसी, उर्दू आदि के प्रभाव हे । पटना वाला लोग के मन्तव्य हे कि प्राचीन पाटलिपुत्र, मगध के राजधानी रहल हे, भले विदेशी आक्रमण आदि के फलस्वरूप यहाँ के मगही में उर्दू-फारसी के कतिपय शब्द आ गेल होत, एकरा से ओकर शुद्धता में कोई शक न हे । बिहारशरीफ, नालन्दा, राजगीर आदि मगध-क्षेत्र के सिरमौर रहल हे, जहाँ के कण-कण में मगध-गौरव बसल हे । हिआँ के मगही ही 'खाँटी' मगही हे । ओकरे मानक माने के चाही ।

हमर विचार में ई विचारे व्यर्थ हे । गया होए कि पटना, बिहारशरीफ होए कि नालन्दा, औरंगाबाद होए कि पलामू अथवा हजारीबाग या अन्य मगध-स्थल - सम्पूर्ण क्षेत्र के निवासी परस्पर एक-दूसरा के क्षेत्र के मगही के भली-भाँति समझऽ हथ, पढऽ हथ । सच पूछल जाए तो ई सब के बीच भाषागत मौलिक एकता हे, परस्पर बोधगम्यता हे , सौन्दर्यबोधक तत्त्व के एकता हे । अतः कोई एक क्षेत्र के मानक मान के, ओकरे भाषा-रूप के अपना के आउर अन्य के अमानक घोषित करके अस्वीकार करे से मगही भाषा के विकास के गति अवरुद्ध हो जाएत । मगही अपन-अपन क्षेत्र के लोग द्वारा हुआँ के भाषिक विशेषता के साथ बोलल आउर लिखल जाए, तो ऊ सभे क्षेत्रीय विशेषता के साथ लिखित रूप में उपलब्ध होएत । जनभाषा के एही सौन्दर्य हे कि ऊ नियम के कटघरा में बंध के विकास के गति अवरुद्ध न करे हे ।

सच पूछल जाए तो व्याकरणिक स्तर पर मगही के एगो मानक रूप एक सीमा तक विकसित हो चुकल हे, बाकि ओकरा बूझे-परखे ला एगो व्यापक दृष्टि के अपेक्षा हे ।

Wednesday, June 03, 2009

19. ब्लॉग वार्ता : इंटरनेटवा पर मगही के जमाना

http://www.hindustandainik.com/news/2031_2259300,00830001.htm
(हिन्दुस्तान, पटना संस्करण, पृष्ठ 8; दिनांकः 27 मई 2009)

ढाई हजार साल पुरानी भाषा। बिहार के ढाई करोड़ लोगों की भाषा। पटना, औरंगाबाद, नालंदा सहित कई जिलों की भाषा है मगही। बौद्घ काल की मागधी कई सदी से अब मगही के रूप में जानी जाती है। इस भाषा को इंटरनेट जगत में लाने का काम कर रहे हैं, आईआईटी खड़गपुर से बीटेक कर पूना में काम कर रहे नारायण प्रसाद। ब्लॉग का नाम है मगही भाषा और साहित्य।

क्लिक कीजिए http://magahi-sahitya.blogspot.com ब्लॉगिंग की दुनिया में कई ब्लॉग मैथिली भाषा के भी हैं। अब मगही के आ चुके हैं। एक और ब्लॉग है मगह देस। लेकिन मगही भाषा और साहित्य पर मगही के विकास से लेकर इस भाषा में रची गई तमाम रचनाओं का जिक्र है। बेहतरीन संकलन किया है नारायण प्रसाद ने।

एकंगसराय में मगही को लेकर एक बड़ा सम्मेलन भी हुआ था। उसके बाद के हुए सम्मेलनों में मगही को संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने को लेकर पास किए गए प्रस्तावों की भी चर्चा की गई है। ब्लॉगर मगही में लिखते हैं कि बिहार के मगहिया मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से निहोरा है कि ई दिशा में उचित कार्रवाई करथ ताकि मगही भासा-भासी के भावना के संतुष्टि हो सके आउ धरना-प्रदर्शन में बेकार में शक्ति बरबाद न होवे। मगही के व्याकरण और उस पर दूसरी भाषाओं के प्रभाव का भी जिक्र किया गया है। कहते हैं मगही में तीनों स का झमेला नहीं है।

इसीलिए मगही पृष्ठभूमि से आने वाले लोग मुझे रवीश की जगह रभीस या रवीस बोलते हैं। मगही में संयुक्ताक्षर पूर्णाक्षर हो जाता है। संस्कृति को सनसकिरती लिखते हैं। विवाह को विआह, आंधी को आन्ही और वसूलना को असुलना बोलते हैं। गांव घर में खेला जाने वाला खेल आ ओका, बोका, तीन तलोका के शब्द भी मगही के हैं। बचपन में ये खेल हमने भी खूब खेला है। लउवा लाठी चनवां के नांव का..। और हां डॉक्टर बाबू मगही में ही डागडर बाबू कहलाते हैं।

बिहार की बोलियों में भोजपुरी और मैथिली का ज्यादा बोलबाला रहा है। लालू प्रसाद से पहले तक के बड़े नेता राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी बोलते थे। लालू ने भोजपुरी को हिंदी में घुला-मिलाकर दिल्ली तक पहुंचा दिया। अब मगध क्षेत्र से नीतीश उभरे हैं, लेकिन नीतीश मीडिया से बातचीत में नाटकबाजी नहीं करते। उनकी भाषा सयंम वाली है और मगही को लेकर खिलंदड़पन कम है।

पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह की हिंदी में मगही का पुट खूब आता है। वो हिंदी न्यूज चैनलों पर आउ, ओकरा, जेकरा-सेकरा बोलते हुए सुने जा सकते हैं। मगही के गाने या वीडियो भोजपुरी की तरह कम मिलते हैं। मगही का एक और ब्लॉग है मगह देस। क्लिक कीजिए http://magahdes.blogspot.com । पटना जिले के खरभैया गाँव (फतुहा-ईसलामपुर रेलवे लाइन के दनियावाँ स्टेशन से 5 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम स्थित) के कौशल किशोर का ब्लॉग है। भारत सरकार के अफसर कौशल किशोर मगह देस की संस्कृति पर खूब लिखते हैं। इसी ब्लॉग पर सुजीत चौधरी का एक लेख काफी दिलचस्प है। मगध की लोक संस्कृति में ताड़ी का माहात्म्य पर फस्सिल में ताड़ी की बहार।

इस लेख में मगह के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन में ताड़ी, पासी, पासीखाना और ताड़ी की सामाजिक मान्यता पर बहस हो रही है। कौशल किशोर 1885 में लिखी ग्रियर्सन की पुस्तक बिहार का किसानी जीवन से ताड़ी से जुड़े शब्दों को ब्लॉग पर ले आते हैं। पासी शब्द मजबूत रस्सी से आया है, जिसे मगही में पसगी कहते थे। देंता, लबनी, हंसुली ये सब ताड़ी कल्चर के सामान और शब्द हैं।

सुजीत चौधरी अपने लेख में लिखते हैं कि पूरे औरंगाबाद में हसपुरा के बाद दाऊदनगर का क्षेत्र ताड़ बहुल हैं, इसलिए यहां की जनसंख्या में पासी जाति के लोग काफी है। ताड़ी पीने के लिए लोग दस बजे तक पासीखाना पहुंच जाते हैं। सुबह की ताड़ी को बेहतर माना जाता है। दोपहर की ताड़ी में तेज नशा होता है। बिना चखने के ताड़ी का कोई मजा नहीं। सत्तू, चना, घूघनी का इस्तमाल होता है।

ताड़ी की चर्चा पूरे देश में तब हुई थी, जब लालू प्रसाद सत्ता में आए थे। पासीखाना खुलवाने की बात होती थी। सुजीत लिखते हैं कि हम दोमन चौधरी के ताड़ीखाना में जाते थे। जिसे हम लबदना यूनिवर्सिटी कहते थे। जिसके वाइस चांसलर खुद दोमन चौधरी हुआ करते थे। ताड़ मगध का बियर है और ताड़ी सामाजिक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा। बिहार की राजनीतिक संस्कृति बदल रही है। संभ्रांत नीतीश कुमार इन मुहावरों से दूर हैं। मगही का यह ब्लॉग उन लोगों के लिए काफी अच्छा होगा, जो बहुत दिनों से बिहार से बाहर रह रहे हैं और धीरे-धीरे मगही के इस्तेमाल को भूलने लगे हैं या अटकने लगे हैं।

रवीश कुमार
ravish@ ndtv.com
लेखक का ब्लॉग है naisadak.blogspot.com