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Saturday, June 13, 2009

1. त आखिर हमरा देखलथिन काहाँ ?

मूल कन्नड - हरिदास आचार्य       मगही अनुवाद - नारायण प्रसाद
[गोविन्द स्वामी के बुरा लत से पीछा छोड़ावे ल उनकर मित्र सब कइलका भी त कीऽ ?]

अइसे देखल जाय त गोविन्द स्वामी के बारे दफ्तर में काम करे वला कर्मचारी सब के चर्चा करे लायक कोय गम्भीर बात नयँ हलइ । तइयो उनका छुट्टी पर रहे से आउ दफ्तर में अनुपस्थित रहे वला के राई नियर बुरा लत के पहाड़ी नियर बनाके बतिआय ल हम सब के हमेशा जादे लगाव रहे से गोविन्द स्वामी के बारे बतिया रहऽलिये हल ।

बुरा लत मतलब फिल्मी अन्दाज़ में 'हम्मर पत्नी ही तीनो लोक के सुन्दरी हइ' - ई तरह के बात करे वला कोय बुरा लत गोविन्द स्वामी के नयँ हलइ । कोय भी अपरिचित से परिचित होतहीं टुभक दे हला - "लगऽ हइ कि अपने के कहीं देखऽलिये ह ।" कोय भी केकरो से कभी भी जरूरत पड़ला पर परिचित करइलक नयँ कि झट से उनकर मुँह से निकल पड़ऽ हलइ - "अपने के तो कहीं देखऽलिये ह ।" ई सुनला पर नया लोग के बेकार के सिर खुजला के सोचे ल लचार कर देना हम सब के दृष्टि में गोविन्द स्वामी के कइ-एक अवगुण में से एक । ई बारे कइ-एक तुरी बुरा-भला सुनइलो पर ई सब पत्थल पर बारिश के समान ही बह के रह जा हलइ । बस ।

हम सब के सहकर्मी मंगला के बुतरू होले ह, एक तुरी अइसन समाचार ओक्कर पति से अस्पताल से फोन पर मालूम होलइ । साँझ के हम सब एक साथ जच्चा-बच्चा के देखे ल गेलिअइ । जलम लेल कुच्छे घंटा होल ऊ बुतरू के देखतहीं हम्मर गोविन्द स्वामी उद्गार प्रकट कइलका - "ई बुतरू के तो कहीं देखऽलिये ह ।"

शायद ई घटना याद अइतहीं श्रीधर बोललका - "हम सब के भी अपरिचित के देखला पर कभी-कभार बहुत विचित्र जइसन लगऽ हइ कि इनका कहीं देखलिये ह । लेकिन गोविन्द स्वामी के बात तो अति होल हइ । कोय भी तरह से ई लत के छोड़वाहीं के चाही ।"

"ई काम ओतना असान नयँ हइ, भाय । ई उनकर जलम से आवल लत हइ" - रामकृष्ण बोलला ।
"हमरो अइसहीं लगऽ हइ" - बात के आगे बढ़इते इस्माइल बोलला - "गोविन्द स्वामी जलमतहीं अप्पन मइया के मुँह देखके अइसहीं सोचलका होत कि 'एकरा तो कहीं देखलिये ह' ! जलम से अइसने लत उनका अब तक लग्गल हइ ।"
"हम ई कार्यालय में योगदान करे ल अइलिये हल त गोविन्द स्वामी के बारे एगो जोक (चुटकुला) प्रचार में हलइ .... ", कार्यालय में गोविन्द स्वामी से जुनियर रमानन्द अप्पन याद ताजा करते बोलला, "गोविन्द स्वामी के सीनियर सब के कहना हलइ कि गोविन्द स्वामी के ब्याह के पहिले अप्पन होवेवली पत्नी के साथ बात करे के मौके नयँ मिलले हल । ब्याह के मंडप में संकोच के चलते बात नयँ हो पइलइ त दूनहूँ के बीच बातचीत चालू होलइ ब्याह के दिन कोहबर में । मन्द रोशनी में पत्नी के गाल सहलइते गोविन्द स्वामी कोमल स्वर में फुसफुसइते कहलका – "अजी, लगऽ हको तोरा कहीं देखऽलियो ह ।" एकरा पर उनकर पत्नी उनको से अधिक कोमल स्वर में थोड़े लजइते बोलला - "आज ब्याह के मंडप में .... अपने न हम्मर माँग में सेनूर डललथिन हल जी ?"

"गोविन्द स्वामी के ई लत छोड़वाना बहुत कठिन हइ अइसन तो हमरा बिलकुल नयँ लगऽ हइ" - अभी-अभी कर्मचारी के रूप में योगदान कइल नित्यानन्द बोलला ।
"हमहूँ पहिले पहल अइसहीं समझऽ हलिअइ, लेकिन कइ-एक बरस तक के कोशिश बेकार होला के बाद एहे लगऽ हइ कि उनकर ई लत दूर करना असम्भव हइ" - हम बोलऽलिअइ ।
"अगला दू महिन्ना में गोविन्द स्वामी के लत बिलकुल दूर कर देबइ, देखते रहथिन" - परन करते जइसन नित्यानन्द बोलला ।
नित्यानन्द के बात के बारे, ऊ निश्चय विफल होता ई बारे सोचते हम सब बाहर निकल गेलिअइ ।

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एक दिन साँझ के सबके घर जाय के समय । कोय अपरिचित व्यक्ति नित्यानन्द के बारे पूछते अइलइ । ऊ अपरिचित से नित्यानन्द हम सबके परिचय करइलका ।
"ई विवेक, हम्मर मित्र ।"
"अपने के परिचय पा के बड़ी खुशी होलइ" - हम सब सामान्य लहजा में बोलऽलिअइ । लेकिन खाली गोविन्द स्वामी अप्पन तकियाकलाम में बोलला - "अपने के तो कहीं देखऽलिये ह ।"
एकरा पर विवेक खाली मामूली अपरिचित जइसन सिर खुजलइले बिना बोलला - "हमरा देखलथिन हँ ? काहाँ हो सकऽ हइ ? दू बरस पहिले हम हिंडलिगा जेल में हलिअइ । अपने हूआँ कोय अपराधी के रूप में अइलथिन हल ?"
विवेक के प्रश्न से अपमानित होल जइसे गोविन्द स्वामी बोलला - "नयँ जी, हम जेल काहे लगि जाम ?"

एकरा पर विवेक बोलला - "रोज दिन हम साँझ के शराबखाना जा हिअइ । हो सकऽ हइ कि हूआँ अपने अइलथिन होत त हमरा देखलथिन होत ।"

गोविन्द स्वामी लगि ई अप्रत्याशित आघात हलइ । शराबखाना से हमेशा दूर रहे वला, शराबखाना तरफ सिर रखला पर जिनका नीन नयँ आवऽ हलइ ऊ गोविन्द स्वामी विवेक के बात सुन के धक्का अनुभव कइले जइसे बोलला - "शराब नयँ, खाना नयँ । शराबखाना जाय के हम्मर आदत नयँ ।"

गोविन्द स्वामी के चीढ़ देख के हम सबके अब समझ में आ गेलइ कि गोविन्द स्वामी के लत छोड़वाहीं लगि नित्यानन्द विवेक के पहिलहीं से तैयार कराके बोलइलका ह ।

"त अपने ई शहर में आवे के पहिले काहाँ हलथिन ?" - विवेक पूछलका ।
"हुबली में हलिअइ" - गोविन्द स्वामी सिर बिना ऊपर कइले उत्तर देलका ।
"अच्छऽ ! हमहूँ तो हुबली में हीं हलिअइ । रोज साँझ के गंगू बाई के कोठा पर नाच देखे लगि हमरा जाय के आदत हलइ । अपने के भी हूआँ आवे के आदत होतइ त हमरा हूआँ देखलथिन होत ।"
"हमरा अइसन कोय आदत नयँ हके" - गोस्सा करते गोविन्द स्वामी उठके संडास तरफ निकलला ।
"त आखिर हमरा देखलथिन काहाँ ?" - विवेक के प्रश्न सुन के भी अनसुनी करते गोविन्द स्वामी चल गेला ।

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केकरो से परिचित करइला पर भी अब गोविन्द स्वामी "अपने के कहीं देखऽलिये ह" - अइसन भूल के भी बोले वला नयँ !


["अलका मागधी", जून 2009, बरिस-15, अंक-6, पृ॰17-18 में प्रकाशित]

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