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Sunday, November 08, 2009

12. कलेसरा

कहानीकार - वीर प्रकाश 'आनन्द', ग्राम-साहबेगपुर, पो॰-चिन्तामनचक, मोकामा, जिला- पटना-८०३ ३०२

कलेसरा अब श्री कौलेश्वर बाबू बन गेल हे । पहिले ऊ फटीचर नियन एन्ने-ओन्ने मारल-फिरल चलो हल । कुत्तो ओकरा नय पूछो हलय । कभी-कभी खूब अनगरे ताड़ के पेड़ से ताड़ी चोरा के पी ले हल आउ नगरपालिका के नाली में चुभुर-चुभुर करते रहऽ हल ।

एक दिन सोमरू के नयकी तेसरकी मौगी जब परदा करे ले मकय के खेत में गेलय हल, तब ओकर पिछवत्ती में नुकल कलेसरा ओकरा साथ छेड़खानी कैलक आउ हल्ला होवे पर ओकर कान के बाली लुझुक के जे गाँव छोड़ के भागल से भागले रह गेल । तहिया से ओकर चाल-चहट केकरो देखय ले नय मिलल ।

जिले जेवार के हलथिन राधेश्याम बाबू । ऊ अपना के बिहार सरकारे कहावो हलथिन । न जाने देश-विदेश से ऊ की-की समान एन्ने-ओन्ने करो हलथिन कि उनका लोग बड़का स्मगलर कहो हलन । केत्ते बार पुलिस उनका पकड़े ले परोगराम बनैलक, मुदा ऊ हरदम आँख में धूरी झोंक के भागिए जा हला । कुच्छो रहय, हलखिन बेचारा गरीब ले भगमाने । शादी-विवाह, मरला-हरला में सबके सहायता कर दे हलथिन ।

कलेसरा उनकरे हीं आके रहो लगल । उनकर विस्वास पाके ऊ उनकर काम-धाम देखे लगल । ऊ तो मर गेला, मुदा उनकरे परताप से कलेसरा अभियो बम-बम हे ।

पन्द्रहो-बीस बरस के बाद ऊ गाँव आल हे । साधु सिंह, जे पी-पा के अप्पन सभे जमीन-जायदाद बेच-बाच के उड़ा देलकन हे उनकरे रोड पर के चरकठवा चकोलवा खेत पूरा दाम दे के कलेसरा खरीद लेलक हे । ओकरा में चारो बगल से छरदेवाली दे करके दूमहला मकान बना लेलक हे, जे दूरे से झकाझक झलके हे ।

कलेसरा के अभी गाँव में बड़ी पूछ हे, काहे कि ऊ ठकुरबाड़ी आउ कालीथान के संगमरमर से पाट देलक हे । सबके मुफत के गाँजा पिलावो हे । चाह के केतली तो हरदम गरमे रहऽ हे । बड़का-बड़का जे कहा हला, ऊहो सुत-उठते ओकरे भिर जाके चाहे पियऽ हका । दिन भर ओजै बैठ के ताश खेलइत रहो हका । अब कलेसरा के पिछला पाप गंगाजी के पानी के तरह पवित्तर हो गेल ।

जब नगरपालिका के चुनाव होवे लगल, गाँव के लोग के कहे पर ऊहो अप्पन नाम से नोमनेसन कर देलक आउ बाट कमिसनर बन गेल । ओकर मन तो अब आउ भी बढ़ गेल हे । चेयरमैन के चुनाव घड़ी सभे बाट कमिसनर के पैसा से खरीद के चेयरमैन भी बन गेल । अब बतावो भला जब ऊ चेयरमैन बनिए गेल तो बड़का-बड़का सभे पाटी के नेता-लीडर ओकरा भिर काहे नय पहुँचथिन ? दरोगा-निसपिट्टर, सीओ-बीडियो तो ओकरा सलामे ठोकऽ हथिन । रोज झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगा अदमी ओजो जुटल रहऽ हथिन ।

सोमरू अब दम्मा के रोगी बन के दिन भर कलेसरे के बंगला पर खों-खों खाँसइत रहऽ हे । ओकरा घरे जाय के जरूरतो नय हे, काहे कि ओकर तेसरकी मौगी सुरसतिया से जनमल चउदह बरिस के छौंड़ी बसन्ती सुबह-शाम ओकरा कलौआ पहुँचा दे हय । सुरसतिया ओकरा खूब माँग-टीका सजा के भेज दे हय । साँझ के बसन्ती देरी से घरे लौटो हय, काहे कि कलेसरा बड़ी-बड़ी देर तक एगो रूम में बैठके की गिटपिट करो हय, ई तो ऊहे दुन्नो जानय । ई जरूर हय कि घरे लौट के ऊ सुरसतिया के अँचरा में दस-बीस देइए दे हय । बूढ़वा सोमरू भी टुकुर-टुकुर निहारते रह जा हय । ई बात सभे जानो हय, मुदा बोलतय के ? कलेसरा अब ऊ कलेसरा थोड़े हय ? अब तो ऊ श्री कौलेश्वर बाबू हो गेलय ।

जेतना भी ठीका-वीका होवऽ हय, कलेसरे ले हय । रुपइया के तो ऊ ठेक बाँध देलक हे । अबकी ऊ एमेले के बोटा-बोटी में खड़ा होवे ले चाहऽ हे । जइसन जमाना हय, एक दिन ऊ मिनिस्टरो बनिए जात ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१, अंक-६, दिसम्बर १९९५, पृ॰१५-१६ से साभार]

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