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Saturday, July 31, 2010

1. अटपट रोग झटपट इलाज

लेखक - डॉ॰ कृष्णकान्त पंडित, अध्यक्ष, मुंगेर होमियोपैथिक संघ

एकबैक कोय रोग होय त समझऽ हे ई रोग आकस्मिक ।
होमियोपैथी के लऽ एक बूँद, कर देतो ओकरा तुरते ठीक ॥

रक्खऽ सही दवइया भइया, जन-जन लागी जे उपकारी ।
कब-कब कहाँ लेल जात की, रक्खऽ एकर तों जनकारी ॥

लू लगे पर द ग्लोनोइन, गड़े खोरैठा ऐंटिमक्रूड
देह बरफ हो, कार्बोवेज, बिजली-घात पर कॉफियाक्रूड

एँड़ी हड्डी बढ़े ऐंटिमक्रूड, हाथ-हड्डी कैलकेरियाफॉस
ठेहुना दरद करे बायोनिया, खून-कमी होय फेरमफॉस

गठिया, पेट दरद कोलोसिथ, दाँत-दरद पर कैमोमिला
अंडकोस या कान दरद होय, दे द तब तो पलसेटिला

पेट जोंक होय दे दऽ, सिना, दस्त में चाइना, कैलकेरियाफॉस
कान के हड्डी बढ़े कोनियम, टायफायड में कालीफॉस

अतिरज ओंकी सरदी-खाँसी में द झट तों इपिकाक
वात-दरद आउ जुरपित्ती में आरटिका यूरेंस के हे धाक ॥

जूड़ी में नेट्रम मूर, चाइना, आउ प्लेग में कालीमियोर
नाक के हड्डी बढ़े त दे द एफ॰ एसिड, कैलकेरियाफुलोर

पित-पथरी में बरबरिस, चाइना, खूब मूते तब नेट्रमसल्फ
पस होवे त द साइलीसिया, पस रोकइ कैलकेरियासल्फ

बिकोलाय में द बरबरिस, हँगुरी-वात में कोलोफाइलम
काँच जब इँकसे दे द एलो, नैं तो दे द पोडोफाइलम

मूत पथरी में सरसापैरेला, प्रोस्टेट रोग सबलसेरूलेटा
खून खराब फोड़ा पाइरोजन, दम्मा में कारगर हे ब्लेटा

हाय अँगुरी बेढ़ा साइलीसिया, बाल झड़े तब सेलेनियम
रूसी-मस्सा में द थूजा, जिगर दरद होय लाइकोपोडियम

गरमी-सुजाक में मर्कसोल, थूजा आउ मुँहासा में सोरीनम
बहिरापन में मूलेन ऑयल, कान नगाड़ा थायोसियामिनम

कंठ नली जरो बेलाडोना, सुतले मूते त कॉस्टीकम
पढ़े, आँख दरद होय रूटा, कमर दरद होय मेक्रोटीनम

मूत रुके त एकोनाइट, पिलही होय त दे द चाइना
कारबंकल होय एंथासोनम, पागलपन पर सर्पेण्टाइना

मुँह आवे पर बोरैक्स दे द, बवासीर में नक्सभौमिका
टौंसिल में बैराइटा कारब, चोट-मोच में द आरनिका

चोट-मोच ला भी हे रूटा, हड्डी जोड़े हे सिमफाइटम
आँख लाल त द बेलाडोना, माथ-बुखार अरजंट नाइट्रीकम

पेसीफ्लोरा निंदिया लावइ, खून-पेशाब कैंथेरिस भगावइ ।
पायरिया भगावइ हेक्टालावा, सबके दँतियन के चमकावइ ॥

मोटापा में फाइटोलिका, नामरदी में द एसिड फॉस
काटे सरप त द तों लेकसिन, दस्त-कीड़ा होय द नेटरम फॉस

नैन जोत ला कैलकेरियाफॉस, मोतियाबिन्द ला कैलकेरियाफ्लोर
आँख में डालऽ सिनरेरिया बूँद, साफ-साफ देखबऽ तब सब ओर ॥

कुकुरखाँसी में परटूसिन, जब टाँग अकड़इ लेथारिस
फटे बिवाय द एगारिकम, जरो चाम त दऽ कैंथेरिस

तुतलावे पर स्ट्रामिनियम, खाज-खुजली में एचिनेमिया
मुँह में गड़ल इँकासइ, काँटा मछली के ऊ हे साइलीसिया

गिल्टी सूजे द आयोडम, हैजा में दे दऽ तों बेरेट्रम
ग्रंथि सूजे द बेडियागा, चाम सुन्न होय द जेलसीमियम

ठंढ रोग पर रसटक्स दे द, कंठमाल कैलकेरिया कारब
दिल के रोगी के क्रेटेगस, होय अजीर्ण त काली कारब

सभ दवाय के सार हम, रचली 'कांत' विचारि ।
आकस्मिक इलाज अब, कर लऽ सब नर-नारि ॥

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१०, अंक-२, फरवरी २००४, पृ॰११ से साभार]

Wednesday, July 28, 2010

7. मगही भासा आउ लिपि

लेखक - शिव प्रसाद लोहानी, नूरसराय, जिला-नालन्दा

अंगरेज आइ॰सी॰एस॰ अफसर में ई खूबी हल कि सरकारी काम करते ऊ अप्पन रुचि के मोताबिक समाजिक, संस्कृतिक आउ साहित्यिक काम भी करऽ हल । जार्ज ग्रियर्सन अइसने आइ॰सी॰एस॰ अफसर हलन जे भारत के भाषायी सर्वेक्षण करके अमर हो गेलन । चूँकि ऊ जादे समय बिहार में बितयलन, बिहार के भासा, बोली के बारे में कुछ जादे काम कयलन । ऊ कहलन कि बंगला, असमी, उड़िया जइसन बिहारी भासा के प्रचलन होवे के चाही । उनइसवीं सदी के आखरी दशक में ऊ ई काम कयलन । उनखर विचार हल कि बिहारी भासा के एगो अप्पन लिपि होवे के चाही । ई क्रम में ऊ कैथी लिपि के अपनावे के वकालत कयलन । कैथी के समर्थन में ऊ एगो किताब भी अंगरेजी में लिखलन, जेकर नाम हल 'ए हैंडबुक आफ कैथी कैरक्टर' (A Handbook of Kaithi Character)

ऊ बखत बिहार में मुख्य रूप से तीन लिपि प्रचलित हल - कैथी, हिन्दी आउ महाजनी । कैथी के प्रयोग जादेतर जमीन्दार के पटवारी करऽ हलन । हिन्दी आमलोग के खास लिपि हल । महाजनी व्यापारी वर्ग में चलऽ हल । ई जाने के बात हे कि हिन्दी लिपि भी हल आउ भासा भी, जइसे फारसी लिपि भी हे आउ भासा भी ।

कैथी आउ हिन्दी लिपि में बड़ी समानता हे । ई दुन्नो लिपि में ह्रस्व इकार (ि), दीर्घ उकार (ू), , श्र, क्ष, त्र, ज्ञ, , , विसर्ग (:), , , , , वर्ण आउ संयुक्ताक्षर के प्रयोग न होवऽ हे । महाजनी लिपि में तो खाली व्यञ्जने होवऽ हे, स्वर न । कहल जाहे कि एगो अदमी चिट्ठी लिखलक कि 'लल ज अजमर गय' । एकरा कुछ लोग पढ़लन 'लाला जी आज मर गये', कुछ पढ़लन 'लाला जी अजमेर गये' । जे भी होवे, बही-खाता एही लिपि में लिखल जा हल । हुण्डी (आझ के ड्राफ्ट) महाजनी में ही लोग लिखऽ हलन । ई रूप में महाजनी लिपि के अन्तर्जातीय महत्त्व हल । आझ भी कुछ लोग ई लिपि के प्रयोग करऽ हथ ।

हिन्दी-कैथी लिपि में ण आउ न वर्ण के जगह न, तीनो श, , स के बदले खाली स, श्र के जगह सरऽ, क्ष के बदले छ, त्र के बदले तर, ज्ञ के बदले गय, य के बदले ज, संयुक्ताक्षर के तोड़के 'संस्कृत' के बदले 'संसकिरित' वगैरह लिखल जा हल ।

ऊ घड़ी मगही इलाका मगही चीनी, मगही लड़का-लड़की तो कहल जा हल, मगर मगही भासा तो एकर बदले गाँव के भासा कहल जा हल । समृद्ध लोग मगही के बदले मागधी भासा कहऽ हलन । रामचन्द्र शुक्ल के लिखित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में मगही भासा के रूप में कोई जिकिर न हे । १९२३ ई॰ में छपल गोपीचन्द गुप्त लिखल 'माहुरी मण्डल नाटक' में आधा-सुधा मगही भासा हे, मगर गुप्त जी भूमिका में लिखलन हे 'इसकी भाषा सीधी-सादी सबके समझने के लायक हे । खास करके इस नाटक में मगध प्रान्तीय ग्रामीण भाषा देने का कारण यह है कि हमारी जाति विशेषकर इसि भाषा को व्यवहार में लाती है ।'

ई नाटक के बाद के किताबन में भी कोई में बीस, कोई में पच्चीस, कोई में चालीस पचास प्रतिशत मगही भासा के प्रयोग मिलऽ हे । हमरा लगऽ हे कि ई रूप में शुरू से ही मगही कमोबेस देवनागरी लिपि के गोदी में रहल, जे निश्चित रूप से डा॰ ग्रियर्सन के किताब के विपरीत हल । शायद एही वजह से मगही के विकास के शुरुआत होतहीं देवनागरी लिपि के वर्ण श, , विसर्ग (:), श्र, क्ष, त्र, ज्ञ, , , रेफ आउ संयुक्ताक्षर विवादित बन गेल । कहीं वर्तनी के नाम पर त कहीं कुछ आउ नाम पर विवाद उठल । कुछ लोग ई भी कहे लगलन कि जब महाकवि तुलसीदास रामचरित मानस के अवधी भासा में, सूरदास, नन्ददास, रत्नाकर वगैरह ब्रजभाषा में विवादित वर्ण के प्रयोग न कयलन तो मगही के भी ओइसहीं करे के चाही ।

ई सन्दर्भ में ई विचारणीय हे कि जउन काल में ऊ सब हलन ऊ काल में हिन्दी गद्य पद्य के वर्तमान रूप प्रचलित न हल । जब देवनागरी लिपि में हिन्दी के विकास होयल आउ बोलचाल में भी अभारतीय शब्दन के जगह पर तत्सम शब्द आ गेल आउ लोग-बाग के बीच ई भासा पूरा प्रचलित हो गेल, त मगही भासा के भी चाही कि ऊ थोड़ा उदारवादी दृष्टि अपनावे ।

मगही के ख्यातिप्राप्त विदुषी डा॰ सम्पत्ति अर्याणी के ई कहना सही हे कि मगही में जउन शब्द न हे ओकरा ला तत्सम शब्द के प्रयोग करे के चाही । ऊ तत्सम शब्द प्रयोग में अइते-अइते मगही में मिल जायत ।

हम प्रमाण के आधार पर कहे के स्थिति में ही कि अवधी आउ ब्रजभाषा के बड़ा-बड़ा रचनाकार भी अप्पन रचना में तत्सम शब्द के प्रयोग कयलन हे । महाकवि तुलसी के अवधि भासा में रचित रामचरित मानस के बालकाण्ड के कुछ पाठ देखल जाय

१.जाहि दीन पर नेह, करेउ कृपा मर्दन नयन
२. सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती
३. ज्ञान भगति जसु धरे सरीरा
४. गये विभीषण पास पुनि, कहत पुत्र वर माँग

ई सब उदाहरण में कृ, र्द, दृ, ज्ञ, , ण आउ त्र के प्रयोग होयल हे ।

ब्रजभाषा में कविवर सूरदास के ई कथन देखल जाय

१. हम गयंद उतरि कहाँ गर्दभ चांद पाई
२. हम भक्तन के भक्त हमारे
३. मना रे माधो से कर प्रीति

एकरा में अनुदारवादी गर्दभ के गरदभ, भक्त के भगत, प्रीति के परीति लिखलन हल ।

कुछ बानगी नन्ददास के देखल जाय

१. कहि संदेश नन्दलाल का बहुरि मधुपुरी जाय
२. तृप्ति जे तातें होत
३. उनके छत्र चँवर सिंहासन

ई उदाहरण में अनुदारवादी लोग संदेश के संदेस, तृप्ति के तिरिपति, छत्र के छतर लिखलन हल ।

रत्नाकर के उद्धवशतक के ई कवित्त देखल जाय

प्रेम नेम छोड़ि ज्ञान छेम जो वतावत सों
कहै रत्नाकर त्रिलोक ओक मंडल में
ज्ञान गुदड़ी में अनुराग सों रतन ले
बात वृषभानु मानहुँ की जानि कीजिये ।

ई कविता में ज्ञान, त्रिलोक, वृषभानु में ज्ञ, त्र, ष के प्रयोग होयल हे ।

ब्रजभाषा के नामी-गिरामी कवियन के आखरी हस्ताक्षर में वियोगी हरि हथिन । इनखर 'वीर सतसई' अनुपम रचना हे । सतसई परम्परा के विपरीत एकरा में शृंगार के जगह पर तत्कालीन स्थिति के कथ्य हे । ई रचना पर ऊ बखत के हिन्दी के नामी पुरस्कार मंगला प्रसाद पारितोषिक मिलल हल । ई किताब में ब्रजभाषा के विकसित रूप मिलऽ हे जे बहुत महत्त्व के हे । आगे के उदाहरण से ई खुलासा हो जायत ।

रामचन्द्र शुक्ल भी ब्रजभाषा में कविता करऽ हलन । इनखर लिखल 'बुद्ध चरित' प्रबन्ध काव्य ब्रजभाषा में हे । एकर भूमिका में ऊ ब्रजभाषा के सुधार करे के बात लिखलन हल, जइसन कि 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' से जानल जाहे । मगर ई किताब के न मिले के वजह से हम इनखर विचार से पाठक के अवगत न करा सकऽ ही । मगर ऊ इतिहास में लिखलन हे - 'यदि उसे (ब्रजभाषा) इस काल में भी चलना है तो वर्तमान भावों को ग्रहण करने के साथ ही भाषा का भी कुछ परिष्कार करना होगा ।' लगऽ हे कि रामचन्द्र शुक्ल से प्रभावित होके आउ समय के अनुरूप वियोगी हरि 'वीर सतसई' में ब्रजभाषा के नया रूप देलन हे । एकरा में ऊपर लिखल करीब-करीब सब्भे विवादित वर्ण के विवाद के अन्त करके ऊ दोसर लोकभाषा के भी मार्गदर्शन कयलन हे । 'वीर सतसई' से लेल नीचे के अंश एकरा प्रमाणित करत

१. क्षत्रिय क्षत्रिय कहँतो क्षत्रिय कोय न होय
२. कहाँ प्रतिज्ञा पालिहें कपटी कायर क्रूर
३. दयानन्द आरज पथिक यतिश्रद्धानन्द
४. शत्रुता ही रणशूर मति मङ्गल मूर्ति पुनीत
५. गुण गंभीर रण शूरमा मिलतु लाख मई एक
६. दल्यो अहिंसा अरघ से दनुज दुःख करि युद्ध

ई सब उदाहरण में क्ष, त्र, ज्ञ, श्र, द्ध, , , , रेफ (र्ति), , विसर्ग (:) और संयुक्ताक्षर के प्रयोग होयल हे ।

निर्गुण धारा के संत कवि भी विवादित वर्ण के मिलल-जुलल प्रयोग कयलन हे । कबीर के ई पद देखल जाय

१. तत्वमसी इनके उपदेशा, उपनीषद कहे संदेशा
२. जानवलिक औ जनक संवादा, दत्तात्रेय बहे रस बहै रस स्वादा
३. है कोई गुरुज्ञानी जगत मह उलटि वेद बूझै

ई तीनो पद में श, , स के अलावे त्त, त्र आउ ज्ञ के प्रयोग होयल हे ।

दादूदयाल के ई पद देखल जाय

दादू पाणी लूण ज्यों एक रहे समाई ।

एकरा में ण विचारणीय हे ।

अवधी-ब्रजभाषा के कवियन आखिर में विवादित वर्ण के विरोध कम कर देलन ई गुनी नईं, बलुक ई गुनी मगही में भी विवादित वर्ण के प्रयोग करे के जरूरत हे कि ढेर मनी अइसन शब्द हे जे विवादित वर्ण के छाँटे से भाव विचार के अभिव्यक्ति में विसंगति पैदा करत, जेकरा से भासा के महत्व कम हो जायत । देखल जाय

१. कोस, कोष, कोश - कोस में अगर हरेक जगह दन्त्य स ही रहत तो बड़ी गड़बड़ हो जायत, काहे कि कोस से दू मील के दूरी, कोश से डिक्शनरी आउ कोष से खजाना के बोध होवऽ हे ।

२. बानी, वाणी - मगही में बानी गोइठा आउ लकड़ी के राख के कहल जाहे । वाणी उपदेश के अर्थ में प्रयोग होवऽ हे । अगर ण के न कैल जायत तो अर्थ में व्यवधान हो जायत ।

३. सान, शान - औजार पिजावे के पत्थर के नाम सान हे । शान से अदमी के प्रतिष्ठा ज्ञात होवऽ हे । अगर दुन्नो में स लिखल जायत तो अर्थ विकृत हो जायत ।

४. पास, पाश - पास माने नजदीक आउ उत्तीर्ण, पाश माने फंदा होवऽ हे ।

५. विकास, विकाश - विकास माने उत्थान, विकाश माने प्रकाश ।

६. किरिया, क्रिया - क्रिया (verb) के अनुदारवादी किरिया लिखलन जेकर अर्थ कसम होवऽ हे ।

७. श्रद्धा, सरधा - श्रद्धा के अनुदारवादी सरधा लिखलन । द्ध के बदले ध । डा॰ अभिमन्यु प्रसाद मौर्य के एगो कहानी के शीर्षक हे 'उद्धार' । ई हिसाब से ई 'उधार' हो जायत । स्पष्ट ही उद्धार के अर्थ त्राण आउ उधार के अर्थ बाकी होवऽ हे । 'उधार' से तो कहानी के अर्थ ही बदल जायत ।

८. बौद्ध, बौध - बौद्ध माने बुद्ध के अनुयायी आउ बौध माने मन्दबुद्धि वाला ।

एही तरह से ढेर मनी शब्द हे जेकरा अभिव्यक्ति ठीक से न होयत अगर अनुदारवादी सब के अनुशासन चलत । ई गुनी अगर विवादित वर्ण के विवाद खतम करके उदारवादी दृष्टिकोण अपनावल जाय तो जादे ठीक रहत ।

अइसन लगऽ हे कि जे डा॰ ग्रियर्सन कैथी-हिन्दी लिपि के वकालत कयलन हल, ई विवाद ओइसने विचार के परिणाम हे । कैथी-हिन्दी लिपि के आत्मा देवनागरी लिपि के देह में फिट कैल गेल हे । ज्ञात होवे के चाही कि कैथी-हिन्दी लिपि में तीनो स ष श के जगह स लिखल जाहे । श्र, क्ष, त्र, ज्ञ के प्रयोग एकदम न हे आउ संयुक्ताक्षर के तोड़ के लिखल जाहे । पिछला सदी के तीसरा-चउथा दशक के निबन्धित दस्तावेज, जमीन्दार सब के मालगुजारी के रसीद एकर प्रमाण हे । आझ भी गाहे-बगाहे पुरनका लोग सब ई लिपि के प्रयोग करऽ हथ । ई सबके देखे से सब बात साफ हो जायत । ई तरह से एक प्रकार से डा॰ ग्रियर्सन के कथन के मूर्त्त रूप देवे के प्रयास अनुदारवादी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कर रहलन हे ।

हमरा लगऽ हे कि अभी चाहे जउन रूप में मगही भासा के लिखल जाय, लिखे देवे के चाही । कालान्तर में खुद्दे ऊ अप्पन रूप अख्तियार कर लेत । इतिहास गवाह हे कि जब कभी भासा के मोड़े के प्रयास होयत हे, नया भासा के जलम हो गेल हे जेकरा से कोई लाभ न होयल ।

एक बात जरूर हे कि अनुदारवादी आउ उदारवादी दुन्नो एकमत हथ कि मगही के अप्पन शब्दन के ज्यों के त्यों प्रयोग में लावल जाय । ई सन्दर्भ में ई बात पर विचार करे के जरूरत हे कि मगही शब्दन के विशेषता के दरसावल जाय आउ ओइसन सब्द के प्रचारित कैल जाय जेकर प्रतिरूप दोसर भाषा में न हे । उदाहरण के रूप में कुछ शब्दन के बानगी देल जा रहल हे - अपसुइया, गिरपरता, गाँती, गरवइत, गोहनाना, लूर, गोझनउठा, गुमसाइंध, अनकर, मट्ठर, आगरो, नून्नी, झोंटी, सरेक, भेसलावन, भंडूल, ढोनी, मुठान, हहरना, बौंखना, भकोसना, छिपली ।

मगही में अइसन अनगिनत शब्द हे, जे मगही क्षेत्र के शुद्ध हिन्दी भाषा-भाषी भी प्रयोग में लावऽ हथ । जइसे वह बौंख गया है । वह एक तरफ पढ़ता है, दूसरी तरफ भकोस जाता है । वह मकान भंडूल लगता है । गिरपरता बनके हम वहाँ नहीं रहेंगे । उसको खाना बनाने का लूर नहीं है । वह अभी अपसुइया है ।

एकर अलावे बहुत शब्द अइसन हे जे एक चीज के भिन्न स्टेज के द्योतन करऽ हे । जइसे लाठी के भिन्न स्टेज के रूप देखल जाय - छेकुनी, छड़ी, पैना, डंटा, अरउआ, लकुटी, सोंटा, लाठी, चाभा

'छेकुनी' पतला छड़ी ला, 'छड़ी' छेकुनी से बड़ा आउ सुसज्जित भेस ला, 'पैना' आकार से थोड़ा मजबूत, 'डंटा' आउ बड़ा,'सोंटा' थोड़ा ताकतवाला मजबू, 'अरउआ' बैल-गाय हाँके ला, 'लाठी' लम्बा मोटा मजबूत ला, 'चाभा' तेल पिलावल लाठी ला प्रयोग में लावल जाहे ।

एही तरह फल, खिरा, ककड़ी के भिन्न स्टेज के नाम देखल जाय - तूज्जा, बतिया, खिच्चा, डम्हक, पक्कल, पोखटाल, जोआयल

'तूज्जा' फूल में रूप आकार ग्रहण करे बखत के नाम हे, ओकरा से जब थोड़ा बड़ा होत तो 'बतिया', ओकर बाद 'खिच्चा', तब 'डम्हक', फेन 'पक्कल', फिन खूब पक्कल के 'पोखटाल', आउ 'जोआयल' कहल जाहे ।

अइसन बात लड़का के भिन्न-भिन्न रूप के हे - फोहवा, जिरिकना, बचवा, लड़का । 'फोहवा' एकदम से जलम लेला के बाद महीना दू महीना के परिचायक हे । 'जिरिकना' ओकर बाद के स्टेज के बच्चा, 'बचवा' ओकर बाद, ओकर बाद 'लड़का'

मकर चान्दनी, भिनसार, भोर - ई तीन शब्द भोर से सम्बन्धित हे । 'मकर चान्दनी' ओकरा कहल जाहे जब भोर के भरम होवॆ हे । 'भिनसार' शब्द भोर के पहिले के स्थिति के कहल जाहे । 'भिनसार' के बाद 'भोर' होवऽ हे ।

खेती के मोतल्लिक बहुत सा तकनीकी शब्द हे जेकर प्रयोग खेतिहर सब आम तौर पर करऽ हथ । 'तरखा' ऊँचा जमीन के कहल जाहे - 'तरखा के खेती हे, से पटावे में दिक्कत हे ।' जानवर के चोरा के जब रकम लेके छोड़ऽ हे ओके 'पनहा' पर छोड़े के बात कहल जाहे । 'फाड़ल' खेती ओकरा कहल जाहे जे धान के खेत जोत के चउकी देके रोपे ला तइयार रहऽ हे ।

ई तरह से गाँव कस्बा में प्रचलित मगही शब्द के संरक्षित करे के जरूरत हे । एकरा में अनुदारवादी आउ उदारवादी दुन्नो सहमत होयतन, अइसन अनुमान हे ।

ई सन्दर्भ में लोकभासा के चर्चित विद्वान गोविन्द झा के 'मगही शब्द समस्या' शीर्षक निबन्ध पढ़े जुकुर हे । ओकर ई अंश पर ध्यान देलजाय - 'मगह में प्रचलित ऐसे ही शब्द वस्तुतः मगही के लिए सम्पदा हैं और चूँकि ये बाहरी प्रबल भाषाओं के अतिक्रमण के कारण बहुत तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं, अतः वर्तमान युग का कर्तव्य है कि विरासत में मिली उस सम्पदा का सुरक्षित-सुजीवित रखें और यदि ऐसे शब्दों का मरण अनिवार्य हो तो कम से कम म्युजियम के रूप में उन्हें शब्दकोश में जल्द संगृहीत कर लें ताकि भविष्य में उनका नामोनिशान मिट न जाय ।'
ई गुने हम मगही के विचारक से अनुरोध करम कि ऊ तेजी से लुप्त हो रहल अइसन शब्दन के खोज करथ आउ पत्रिका-पुस्तक में रेखांकित करथ । शहरीकरण के ई युग में शहर से निकल के गाँव में खोजे से अइसन शब्द मिलत । एकरा ला पाँच सितारा संस्कृति से निकल के ग्रामीण अंचल में जाय के जरूरत हे ।

आधुनिक मगही के विकास के करीब पचास बरिस हो गेल । ई काल-खण्ड में सभ विधा पर बहुत किताब छपल हे । ऊ किताबन के आधार मान के कथित विवादित वर्ण आउ दोसर ढंग पर लेखकगण अप्पन रचना में कइसन आउ कउन रूप में लिखलन हे, ओकर लेखा-जोखा करे के जरूरत हे, जेकरा से ई जानल जाय कि मगही के रचनाकार कउन-कउन रूप में लिखलन हे । ऊ विवेचन से बहुत पुरान आउ नया रचनाकारन के विवादित वर्ण आउ ढंग के बारे में जानकारी हो जायत ।      

[मगही मासिक पत्रिका अलका मागधी, बरिस-११, अंक-२, फरवरी २००५, पृ॰५-८ से साभार ।]

Tuesday, July 27, 2010

17. जिनगी के पन्ना

कहानीकार - अरुण कुमार सिन्हा, बजरंगपुरी, पटना-800007

[ ई कहानी के विशेषता ई हइ कि एकरा में हिन्दी के निपात (अव्यय) 'भीआउ 'ही' के जगह पर खाँटी मगही प्रत्यय '-'/ '-' आउ '-' के प्रयोग कइल गेले ह । जैसे - बिरजुओ (बिरजू भी), बरहमदरउए (ब्रह्मदेव ही) । ई कहानी में हिन्दी के 'भी' के प्रयोग खाली तीन तुरी आउ 'ही' के प्रयोग खाली एक्के तुरी कइल गेले ह । इ सब के तुलना में एक्कर बदले '-'/ '-' आउ '-' के प्रयोग बहुत जादे कइल गेले ह जेकरा पाठक के सुविधा लगी नीला रंग में मार्क कर देवल गेले ह । --- संकलनकर्त्ता ]

बरहमदेव रैदास के गाड़ी जगरनाथन इसकूल भिजुन आके रुक गेल हे । ई ओही इसकूल हे जेकरा में मैट्रिक तक पढ़लक हल ऊ । जगरनाथन साहेब बाढ़ के एस॰डी॰ओ॰ हलन । फिन तरक्की करइत-करइत गवरनर हो गेलन हल रिजर्व बैंक के । उनकरे इयाद में ठड़ी हे ई इसकूल । ई तो बरहमदेउए नियन लोग जानऽ हे कि ई इसकूल के ईंटा-ईंटामें नन्दू बाबू के नाम लिखल हे । उनकर तेआग आउ तपसेआ के कमाई हे ई इसकूल ।

बरहमदेव के दिल कचोटे लगल गाड़ी से उतरे ला । ड्राइवर के गाड़ी रोके ला इसारा कयलक । गाड़ी रुक गेल । अप्पन मेहरारू के आँख में आँख डाल के मुसका के बोललक - 'देखऽ भवानी ! ई ओही इसकूल हे जेमें हम पढ़ली हल । एकरे सिकरेटरी हलन नन्दू बाबू ।'

नन्दू बाबू के नाम सुनइते बरहमदेव के मेहरारू के आँख तर एगो फोटू छा गेल - सीधा-सादा, धोती-कुरता ओला एगो अदमी, जेकर दिल-दिमाग में पंडीजी आउ चमार के लरिकन में कोई भेद-भाव नैं हल । उनका आगे सब्भे बरोबर हल । एही नैं, गरीब के बुतरू के तो ऊ सुबह-शाम मुफ्ते में पढ़ा दे हलन । बोललक - 'अइसन अदमी तो चिरागो लेके ढुँढ़ला पर नैं मिलऽ हे । दोसर-दोसर बड़जतियन के देखऽ, हमन्हीं तो फुटलो आँख नैं सोहा ही । बाकि नन्दू बाबू के तो बाते जुदा हे । उनके चलते पढ़लऽ-लिखलऽ तों ।'

बरहमदेव बोल पड़ल -'सोआरथे के संसार हे ई । सुदरसन आउ पैंचकौड़ियो तो बरहामने-रजपूत हे । दुन्हूँ चपरासी अभियो हमन्हीं के सलामी दागऽ हे । हमरा रिटायरो कइला पर ओकन्हीं के बेवहार में कोई फरक नैं आयल हे । ओही हाव-भाव, ओही बरताव । नन्दू बाबू तो भगमाने हलन ।'

उनकर मेहरारू बोललक -'दुहूँ चपरासी तो दिन-दुनिया पहचाने लगल हे, पर गाँव-टोला के आउ लोग के अक्खड़पन अब ले नैं गेल हे ।'

मेहरारू के बात सुनके बरहमदेव मुसका देलक । ओकर आँख के आगू एक-एक करके ओकर जिनगी के पन्ना उलटे लगल - ऊ दिन ऊ मुँहझप्पे इँकस गेल हल घर से नन्दू बाबू के साथे । साथ में ओकर टोला के सिवसंकर आउ रामजतनो हलन । नन्दू बाबू बोला के लइलन हल ओकन्हीं के ओकर टोला से । लेमोचूसो देलन हल चूसे ला ।

बचपन के जिनगी भी की जिनगी होवऽ हे । जाड़ो के कँपकँपी में लरिकन मुँहझप्पे सुत-उठके घर से इँकस जाहे खेले ला । हाथ-पाँव ठिठुरइत रहे हे, पर ओकन्हीं सब लट्टू नचावे आउ गोली खेले ला बेचैन रहऽ हे । गोली नैं हे, खेल-खेल में एगो पढ़ाई आउ कसरत हे । निसाना साधे के एगो रिवाज हे । एकरा से आँख आउ हाथ में तालमेल होवऽ हे । हार-जीत के पीछू हिसाब सिखावल जाहे । केकरो लट्टू फट जाहे तब तुरते खरिदा जाहे । गरीबो माय-बाप अप्पन पेट काट के लरिकन के शौक पूरा कर देहे ।

ऊ दिन नन्दू बाबू के साथे ऊ दुरगा स्थान पहुँचल हल, त हुआँ बहुत्ते सन् बुतरू जुटल हल लट्टू खेले ला । ओमें फुलेसर हल, दुन्हू भाई सुरेसो-नरेसो हल, दुन्हू भाई बिरजुओ-राजो हल, सिधुओ हल, दुहूँ मामू-भगिना रमासामी आउ अरुणो हल । बिरजू के मुँह से 'रेडी' इँकसल हल कि सब्भे लरिकन लट्टू नचावे ला तइयार हो गेलन हल । 'वन टू थिरी' सुनइते सब्भे लट्टू नचावे लगलन हल । तखनी तो सब्भे बुतरू पहिले-दुसरा किलास में पढ़ऽ हल, फिर भी अंग्रेजी के दु-तीन गो सबद सिरिफ बोलवे नैं करऽ हल, ओकर अरथो समझऽ हल । एकरे तो लोग संस्कार कहऽ हे ।

जहाँ पहिले एक्के-दुक्के अदमी के रेडियो सुने ला नसीब होवऽ हल, हुएँ आझ टी॰वी॰, रेडियो, वीडियो, सब्भे देखऽ-सुनऽ हे, सहरे नैं, देहातो में । आज लोग के तरह-तरह के भजन सुने के मिलऽ हे - लता मंगेसकर के, मुहम्मद रफी के, आशा भोंसले के, पंकज उधास के, अनूप जलोटा के, अनुराधा पोडवाल के । तखनी तो एगो मुकुंदिये पाँड़े के पराती सुने ला मिलऽ हल । तीन बजे भोर से गावे लगऽ हलन पाँड़ेजी - 'मालिक हे सीताराम सोच मन काहे करऽ जी !' आगे हिरना-हिरनी की-की गावऽ हल, हमरा कहियो समझे में नैं आयल । लेकिन ई तो बड़ काम के हे । अपना सोचे से कुच्छो होवे के नैं हे, लोग-बाग के अप्पन करम करे के चाही । फल तो ईश्वर के हाथ में हे ।

फुलेसर के लट्टू नाचइत-नाचइत सबसे पहिले गिर गेल हल । सब्भे लड़कन चिल्लाय लगलन हल - 'फुलेसर चोर ! फुलेसर चोर !' फिन एगो गोल घेरा बनाके सब लड़कन ठड़ी हो गेल । फुलेसर के लट्टू के बीच घेरा में रख देल गेल आउ एकाएकी सब्भे लड़कन तइयार हो गेल ओकरा में गूँज ठोके ला ।

चोर सबद के अरथ केते बेआपक हे । कुत्ता के छोट-छोट पिल्ला के कान पकड़ के लोग उठावऽ हथ । अगर ऊ कोंकिआयल त साधु, नैं कोंकिआयल त चोर । एगो चोर साधु के जमात में घुस गेल हल, एकर एगो अलगे कहानी हे । ऊ चोरी तो नैं कैलक पर तुम्माफेरी करे लगल । एही गुने कहल जाहे - 'चोर चोरी से गेल कि तुम्माफेरियो से ।'

सोचइत-सोचइत बरहमदेव मुसुक देलक । 'कोई काम नैं करऽ हे, त ऊ कामचोर । कोई केकरो दिले चोरा ले हे ।' लेकिन ओकर मुसकी एगो अदमी पर नजर पड़इते काफूर हो गेल । ऊ सोचे लगल - ', ई तो ओही हे । हँ, ओही हे मुचकुन पाँड़े । एही तो हल जे ऊ रोज हमन्हीं के फुलेसर, सुरेश, नरेश आउ रमासामी के संगे लट्टू नैं खेले देलक हल । साफे कह देलक हल - 'चमरन के बुतरू हियाँ कहाँ से टपक गेल !' फिन फुलेसर से कहलक हल -'की रे फुलेसर ! तोहनी साथे खेले ला कोई नैं मिललउ हल जे चमरने के बोला लयलें ?'

हमरा तो तखनी बिछुए काट गेल हल । सिवसंकरा के अंगुरी टान के हमे हुआँ से सँसरे ला चाहली हल कि नन्दू बाबू घर से बहरसी अयलन । बरस पड़लन मुचकुन पाँड़े पर -'की हो मुचकुन ! की बात हे कि आज तों ई बुतरुअन पर खफा हो रहलऽ हे ? तोरा तो हमरा पर खफा होवे के चाही । एकन्हीं के हमहीं घर-घर जाके बोलइली हे, तोरा एतराज काहे हो एकरा पर ?'

मुचकुन पाँड़े तखनी नन्दुओ बाबू पर बोल उठलन हल -'सतेआनास ! सतेआनास ! तो एफ॰ए॰, बी॰ए॰ की कइलें नन्दू, कुल-खनदान नसा देलें ।'

नन्दू बाबू बोललन हल -'पहिले अपन कुल-खनदान देखऽ पाँड़े ! फिन दोसर के देखिहऽ । ह तो 'लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर' आउ चाहऽ ह कि सब्भे हम्मर गोड़े छुए । कुल-खनदान तारे ला कुछ पढ़बो-लिखबो तो करऽ । भगमान नियन बुतरुअन के तो कहऽ ह चमार । ई तो हमनी के भाई न हे । एकरे मइया न तोरा जलम देलको हे । बिना ओकरा अइले तोरा जलमो नैं होतो हल । शास्तर-उस्तर पढ़बऽ, तब जानबऽ कि जात की होवऽ हे, धरम की होवऽ हे । पढ़तऽ हल, तब तोहर दिल से सब नफरत इँकस जइतो हल ।'

मुचकुन पाँड़े टल गेलन हल भुनभुनइते हुआँ से -'हँ-हँ नन्दू ! तों कायथ हें न, एही गुने बोलऽ हें । कायथ तो आधा मुसलमान होबे करऽ हे । अब सादी-बिआह, मरनी-हरनी में एही चमरन के पूज, हमनी के पूज के की होतउ तोरा ! एकरे ला ने लेमोचूस खिला-खिला के परका रहले हें एकन्हीं के ?' आउ थोड़े दूर पर जाके ठड़ी हो गेल हल ई देखे ला कि ओकर कहे के की असर होवऽ हे नन्दू बाबू पर ।

नन्दू बाबू बोललन हल -'तोहर ई सब कहे के हमरा पर कउनो असर होवेओला नैं हे पाँड़े । हम एगो इसकूल खोले जा रहली हे एस॰डी॰ओ॰ साहेब के नाँव पर । अभी तो इसकूल हमरे दलान पर चलत, जइसे चल रहल हे । तोहरे जात हथुन ने दमोदर चौबे, ओहू ई इसकूल में पढ़ावे ला तइयार हथ । संसकिरितो पढ़लऽ हे ? ओमे एगो एसलोक हे -'अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ... ।'

बीचे में मुचकुन पाँड़े उखड़ गेलन हल -'रहे दे अप्पन फकड़ा । हम नैं सुने ला चाहऽ ही । माँस-मछरी खाय ओला आउ दारू पीये ओला भी अपना ला अइसन फकड़ा बनइते रहऽ हे । सतेआनास ! सतेआनास !' कहइत मुचकुन पाँड़े चल गेलन हल हुआँ से ।

बरहमदेव मने-मन सोचइत गेल - ओही मुचकुन पाँड़े न हे ई ! हँ-हँ, ओही नाक-नक्श, ओही सूरत-शकल । फरक हे त ई कि गाल कुछ पिचिक गेल हे, आँख दुन्हूँ धँस गेल हे आउ कार केश खिचड़ी हो गेल हे । हमरो त कुले केश उज्जर हो गेल हे, दाँतो दू-चार गो झड़ गेल हे ।

बरहमदेव एही सोचिए रहल हल कि मुचकुन पाँड़े ड्राइवर भिजुन पहुँच गेल । पुछलक - 'की हो डिलेवर साहेब ! कउन साहेब अइलन हे ई गाड़ी में ?'

मुचकुन के देख के बरहमदेव मुँह घुमा के ठड़ी हो गेल, लेकिन कान इधरे पारले रहल, ई जाने ला कि ड्राइवर से मुचकुन की बतिआ हे ।

ड्राइवर कहलक - 'रिटायर ए॰डी॰एम॰ बरहमदेव बाबू के गाड़ी हे ई ।'

मुचकुन बोल पड़ल -'ए॰डी॰एम॰ बाबू के गाड़ी हे ? कहाँ हथ अपने? बच्चे में देखली हल । अब तो ऊ पहचानो में नैं आयत । नाँव बतावे से हमरा ऊ जरूरे पहचान लेत । हम्मर नाँव मुचकुन हे, मुचकुन पाँड़े ।'

मुचकुन के बात सुनइते बरहमदेव के दिल पसीज गेल । ऊ ई भूल गेल कि ई ओही मुचकुन पाँड़े हे जेकर दिल-दिमाग में जात-पात, ऊँच-नीच के नफरत भरल हल । ऊ सोचे लगल - मुचकुन पाँड़े आखिर हे तो हम्मर पड़ोसिये । गाववो के रिश्ता में चचा लगऽ हे । अब तो ओकर सुभाउओ में काफी बदलाव आ गेल हे । पहिले नियन अखनी ओकर तेवरो नैं हे ।

ड्राइवर के बतयला पर मुचकुन पाँड़े बरहमदेव भिजुन आ गेल । बरहमदेव के आँख मिलल आउ दुन्हूँ के मुँह पर एगो मुस्की आ गेल । बरहमदेव बोल उठल -'गोड़ लागी बाबा !' आउ हप्पन दुन्हूँ हाथ जोड़ देलक ।

बरहमदेव के मेहरारुओ तड़ाक से घूँघट काढ़ के मुचकुन पाँड़े के पाँव छुए लगल । तखनिये पुरुब से एगो सुर उभरल -'मालिक हे सीताराम, सोच मन काहे करऽ जी !'

बरहमदेव पूछ बइठल - 'ई के गावइत हथ ? मुकुन्दी जी जीते हथ ?'

मुचकुन से जवाब मिलल - 'नैं, ई हथ उनकर पोता रामभजन । बड़ सुन्नर गावऽ हथ, मुकुंदिये जी नियन । मुकुन्दी जी के इंतकाल के पाँच बरिस हो गेल । अढ़ाई बरिस तो नन्दुओ बाबू के मरला हो गेल ।'

बरहमदेव चउँक गेल -'अयँ, नन्दू बाबू मर गेलन !' फिन पुछलक -'उनकर बेटा नवल की करऽ हे ? उनकर भगिना अरुण की करऽ हे ? बड़ी तेज हल पढ़े में । एगो भाइयो तो हल उनकर रमासामी । ऊ की करऽ हे ?'

मुचकुन एक-एक सवाल के बारी-बारी से जवाब देते गेल -'बेटा नवल बी॰ए॰ पास करके बइठारी के जिनगी जी रहल हे । अब तो ऊ काफी बाल-बच्चेदार हो गेल हे । तंगी के हाल में जी रहल हे । जे नन्दू बाबू हमनी के पढ़ा-लिखा के मास्टरी देला देलन, उनकर बेटा-पोता दाना-दाना ला मुँहताज हो गेल हे । हम्मर परिवार जब दाना-दाना ला मुँहताज हो गेल हल, त हमरा पढ़ा के नन्दू बाबू मैट्रिक पास करइलन हल । मास्टरी के ट्रेनिंग दिला देलन हल । हम उनका कइसे भूल सकऽ ही ! उनकर भगिना अरुण तो मामुए नियन मास्टरी लैन में हे । ऊ मास्टरो के पढ़ावऽ हे । आउ हँ, उनकर भाय रमासामी, ऊ तो बाढ़े में नामी ओकील हो गेल हे । ओकरा बारे में हम एही कह सकऽ ही कि अप्पन भाई के सोभाव के उल्टा हे ऊ । नन्दू बाबू के सीधा होवे के ही ई नतीजा हे कि उनकर बेटा नवल, जे लखपति बनल रहत हल, से आज बिलट गेल हे । एकरा में किस्मते के कोसल जा सकऽ हे ।' कहइत-कहइत मुचकुन सिसके लगल ।

मुचकुन के सिसकइत देख बरहमदेव के लगे लगल कि ऊ धड़ाम से भुइयाँ पर गिर जायत । ई तो मुचकुने हल कि बरहमदेव के भर पाँजा पकड़ के गिरे से बचा लेलक ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१६, अंक-२, फरवरी २०१०, पृ॰१३-१५ से साभार]