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Tuesday, July 27, 2010

17. जिनगी के पन्ना

कहानीकार - अरुण कुमार सिन्हा, बजरंगपुरी, पटना-800007

[ ई कहानी के विशेषता ई हइ कि एकरा में हिन्दी के निपात (अव्यय) 'भीआउ 'ही' के जगह पर खाँटी मगही प्रत्यय '-'/ '-' आउ '-' के प्रयोग कइल गेले ह । जैसे - बिरजुओ (बिरजू भी), बरहमदरउए (ब्रह्मदेव ही) । ई कहानी में हिन्दी के 'भी' के प्रयोग खाली तीन तुरी आउ 'ही' के प्रयोग खाली एक्के तुरी कइल गेले ह । इ सब के तुलना में एक्कर बदले '-'/ '-' आउ '-' के प्रयोग बहुत जादे कइल गेले ह जेकरा पाठक के सुविधा लगी नीला रंग में मार्क कर देवल गेले ह । --- संकलनकर्त्ता ]

बरहमदेव रैदास के गाड़ी जगरनाथन इसकूल भिजुन आके रुक गेल हे । ई ओही इसकूल हे जेकरा में मैट्रिक तक पढ़लक हल ऊ । जगरनाथन साहेब बाढ़ के एस॰डी॰ओ॰ हलन । फिन तरक्की करइत-करइत गवरनर हो गेलन हल रिजर्व बैंक के । उनकरे इयाद में ठड़ी हे ई इसकूल । ई तो बरहमदेउए नियन लोग जानऽ हे कि ई इसकूल के ईंटा-ईंटामें नन्दू बाबू के नाम लिखल हे । उनकर तेआग आउ तपसेआ के कमाई हे ई इसकूल ।

बरहमदेव के दिल कचोटे लगल गाड़ी से उतरे ला । ड्राइवर के गाड़ी रोके ला इसारा कयलक । गाड़ी रुक गेल । अप्पन मेहरारू के आँख में आँख डाल के मुसका के बोललक - 'देखऽ भवानी ! ई ओही इसकूल हे जेमें हम पढ़ली हल । एकरे सिकरेटरी हलन नन्दू बाबू ।'

नन्दू बाबू के नाम सुनइते बरहमदेव के मेहरारू के आँख तर एगो फोटू छा गेल - सीधा-सादा, धोती-कुरता ओला एगो अदमी, जेकर दिल-दिमाग में पंडीजी आउ चमार के लरिकन में कोई भेद-भाव नैं हल । उनका आगे सब्भे बरोबर हल । एही नैं, गरीब के बुतरू के तो ऊ सुबह-शाम मुफ्ते में पढ़ा दे हलन । बोललक - 'अइसन अदमी तो चिरागो लेके ढुँढ़ला पर नैं मिलऽ हे । दोसर-दोसर बड़जतियन के देखऽ, हमन्हीं तो फुटलो आँख नैं सोहा ही । बाकि नन्दू बाबू के तो बाते जुदा हे । उनके चलते पढ़लऽ-लिखलऽ तों ।'

बरहमदेव बोल पड़ल -'सोआरथे के संसार हे ई । सुदरसन आउ पैंचकौड़ियो तो बरहामने-रजपूत हे । दुन्हूँ चपरासी अभियो हमन्हीं के सलामी दागऽ हे । हमरा रिटायरो कइला पर ओकन्हीं के बेवहार में कोई फरक नैं आयल हे । ओही हाव-भाव, ओही बरताव । नन्दू बाबू तो भगमाने हलन ।'

उनकर मेहरारू बोललक -'दुहूँ चपरासी तो दिन-दुनिया पहचाने लगल हे, पर गाँव-टोला के आउ लोग के अक्खड़पन अब ले नैं गेल हे ।'

मेहरारू के बात सुनके बरहमदेव मुसका देलक । ओकर आँख के आगू एक-एक करके ओकर जिनगी के पन्ना उलटे लगल - ऊ दिन ऊ मुँहझप्पे इँकस गेल हल घर से नन्दू बाबू के साथे । साथ में ओकर टोला के सिवसंकर आउ रामजतनो हलन । नन्दू बाबू बोला के लइलन हल ओकन्हीं के ओकर टोला से । लेमोचूसो देलन हल चूसे ला ।

बचपन के जिनगी भी की जिनगी होवऽ हे । जाड़ो के कँपकँपी में लरिकन मुँहझप्पे सुत-उठके घर से इँकस जाहे खेले ला । हाथ-पाँव ठिठुरइत रहे हे, पर ओकन्हीं सब लट्टू नचावे आउ गोली खेले ला बेचैन रहऽ हे । गोली नैं हे, खेल-खेल में एगो पढ़ाई आउ कसरत हे । निसाना साधे के एगो रिवाज हे । एकरा से आँख आउ हाथ में तालमेल होवऽ हे । हार-जीत के पीछू हिसाब सिखावल जाहे । केकरो लट्टू फट जाहे तब तुरते खरिदा जाहे । गरीबो माय-बाप अप्पन पेट काट के लरिकन के शौक पूरा कर देहे ।

ऊ दिन नन्दू बाबू के साथे ऊ दुरगा स्थान पहुँचल हल, त हुआँ बहुत्ते सन् बुतरू जुटल हल लट्टू खेले ला । ओमें फुलेसर हल, दुन्हू भाई सुरेसो-नरेसो हल, दुन्हू भाई बिरजुओ-राजो हल, सिधुओ हल, दुहूँ मामू-भगिना रमासामी आउ अरुणो हल । बिरजू के मुँह से 'रेडी' इँकसल हल कि सब्भे लरिकन लट्टू नचावे ला तइयार हो गेलन हल । 'वन टू थिरी' सुनइते सब्भे लट्टू नचावे लगलन हल । तखनी तो सब्भे बुतरू पहिले-दुसरा किलास में पढ़ऽ हल, फिर भी अंग्रेजी के दु-तीन गो सबद सिरिफ बोलवे नैं करऽ हल, ओकर अरथो समझऽ हल । एकरे तो लोग संस्कार कहऽ हे ।

जहाँ पहिले एक्के-दुक्के अदमी के रेडियो सुने ला नसीब होवऽ हल, हुएँ आझ टी॰वी॰, रेडियो, वीडियो, सब्भे देखऽ-सुनऽ हे, सहरे नैं, देहातो में । आज लोग के तरह-तरह के भजन सुने के मिलऽ हे - लता मंगेसकर के, मुहम्मद रफी के, आशा भोंसले के, पंकज उधास के, अनूप जलोटा के, अनुराधा पोडवाल के । तखनी तो एगो मुकुंदिये पाँड़े के पराती सुने ला मिलऽ हल । तीन बजे भोर से गावे लगऽ हलन पाँड़ेजी - 'मालिक हे सीताराम सोच मन काहे करऽ जी !' आगे हिरना-हिरनी की-की गावऽ हल, हमरा कहियो समझे में नैं आयल । लेकिन ई तो बड़ काम के हे । अपना सोचे से कुच्छो होवे के नैं हे, लोग-बाग के अप्पन करम करे के चाही । फल तो ईश्वर के हाथ में हे ।

फुलेसर के लट्टू नाचइत-नाचइत सबसे पहिले गिर गेल हल । सब्भे लड़कन चिल्लाय लगलन हल - 'फुलेसर चोर ! फुलेसर चोर !' फिन एगो गोल घेरा बनाके सब लड़कन ठड़ी हो गेल । फुलेसर के लट्टू के बीच घेरा में रख देल गेल आउ एकाएकी सब्भे लड़कन तइयार हो गेल ओकरा में गूँज ठोके ला ।

चोर सबद के अरथ केते बेआपक हे । कुत्ता के छोट-छोट पिल्ला के कान पकड़ के लोग उठावऽ हथ । अगर ऊ कोंकिआयल त साधु, नैं कोंकिआयल त चोर । एगो चोर साधु के जमात में घुस गेल हल, एकर एगो अलगे कहानी हे । ऊ चोरी तो नैं कैलक पर तुम्माफेरी करे लगल । एही गुने कहल जाहे - 'चोर चोरी से गेल कि तुम्माफेरियो से ।'

सोचइत-सोचइत बरहमदेव मुसुक देलक । 'कोई काम नैं करऽ हे, त ऊ कामचोर । कोई केकरो दिले चोरा ले हे ।' लेकिन ओकर मुसकी एगो अदमी पर नजर पड़इते काफूर हो गेल । ऊ सोचे लगल - ', ई तो ओही हे । हँ, ओही हे मुचकुन पाँड़े । एही तो हल जे ऊ रोज हमन्हीं के फुलेसर, सुरेश, नरेश आउ रमासामी के संगे लट्टू नैं खेले देलक हल । साफे कह देलक हल - 'चमरन के बुतरू हियाँ कहाँ से टपक गेल !' फिन फुलेसर से कहलक हल -'की रे फुलेसर ! तोहनी साथे खेले ला कोई नैं मिललउ हल जे चमरने के बोला लयलें ?'

हमरा तो तखनी बिछुए काट गेल हल । सिवसंकरा के अंगुरी टान के हमे हुआँ से सँसरे ला चाहली हल कि नन्दू बाबू घर से बहरसी अयलन । बरस पड़लन मुचकुन पाँड़े पर -'की हो मुचकुन ! की बात हे कि आज तों ई बुतरुअन पर खफा हो रहलऽ हे ? तोरा तो हमरा पर खफा होवे के चाही । एकन्हीं के हमहीं घर-घर जाके बोलइली हे, तोरा एतराज काहे हो एकरा पर ?'

मुचकुन पाँड़े तखनी नन्दुओ बाबू पर बोल उठलन हल -'सतेआनास ! सतेआनास ! तो एफ॰ए॰, बी॰ए॰ की कइलें नन्दू, कुल-खनदान नसा देलें ।'

नन्दू बाबू बोललन हल -'पहिले अपन कुल-खनदान देखऽ पाँड़े ! फिन दोसर के देखिहऽ । ह तो 'लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर' आउ चाहऽ ह कि सब्भे हम्मर गोड़े छुए । कुल-खनदान तारे ला कुछ पढ़बो-लिखबो तो करऽ । भगमान नियन बुतरुअन के तो कहऽ ह चमार । ई तो हमनी के भाई न हे । एकरे मइया न तोरा जलम देलको हे । बिना ओकरा अइले तोरा जलमो नैं होतो हल । शास्तर-उस्तर पढ़बऽ, तब जानबऽ कि जात की होवऽ हे, धरम की होवऽ हे । पढ़तऽ हल, तब तोहर दिल से सब नफरत इँकस जइतो हल ।'

मुचकुन पाँड़े टल गेलन हल भुनभुनइते हुआँ से -'हँ-हँ नन्दू ! तों कायथ हें न, एही गुने बोलऽ हें । कायथ तो आधा मुसलमान होबे करऽ हे । अब सादी-बिआह, मरनी-हरनी में एही चमरन के पूज, हमनी के पूज के की होतउ तोरा ! एकरे ला ने लेमोचूस खिला-खिला के परका रहले हें एकन्हीं के ?' आउ थोड़े दूर पर जाके ठड़ी हो गेल हल ई देखे ला कि ओकर कहे के की असर होवऽ हे नन्दू बाबू पर ।

नन्दू बाबू बोललन हल -'तोहर ई सब कहे के हमरा पर कउनो असर होवेओला नैं हे पाँड़े । हम एगो इसकूल खोले जा रहली हे एस॰डी॰ओ॰ साहेब के नाँव पर । अभी तो इसकूल हमरे दलान पर चलत, जइसे चल रहल हे । तोहरे जात हथुन ने दमोदर चौबे, ओहू ई इसकूल में पढ़ावे ला तइयार हथ । संसकिरितो पढ़लऽ हे ? ओमे एगो एसलोक हे -'अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ... ।'

बीचे में मुचकुन पाँड़े उखड़ गेलन हल -'रहे दे अप्पन फकड़ा । हम नैं सुने ला चाहऽ ही । माँस-मछरी खाय ओला आउ दारू पीये ओला भी अपना ला अइसन फकड़ा बनइते रहऽ हे । सतेआनास ! सतेआनास !' कहइत मुचकुन पाँड़े चल गेलन हल हुआँ से ।

बरहमदेव मने-मन सोचइत गेल - ओही मुचकुन पाँड़े न हे ई ! हँ-हँ, ओही नाक-नक्श, ओही सूरत-शकल । फरक हे त ई कि गाल कुछ पिचिक गेल हे, आँख दुन्हूँ धँस गेल हे आउ कार केश खिचड़ी हो गेल हे । हमरो त कुले केश उज्जर हो गेल हे, दाँतो दू-चार गो झड़ गेल हे ।

बरहमदेव एही सोचिए रहल हल कि मुचकुन पाँड़े ड्राइवर भिजुन पहुँच गेल । पुछलक - 'की हो डिलेवर साहेब ! कउन साहेब अइलन हे ई गाड़ी में ?'

मुचकुन के देख के बरहमदेव मुँह घुमा के ठड़ी हो गेल, लेकिन कान इधरे पारले रहल, ई जाने ला कि ड्राइवर से मुचकुन की बतिआ हे ।

ड्राइवर कहलक - 'रिटायर ए॰डी॰एम॰ बरहमदेव बाबू के गाड़ी हे ई ।'

मुचकुन बोल पड़ल -'ए॰डी॰एम॰ बाबू के गाड़ी हे ? कहाँ हथ अपने? बच्चे में देखली हल । अब तो ऊ पहचानो में नैं आयत । नाँव बतावे से हमरा ऊ जरूरे पहचान लेत । हम्मर नाँव मुचकुन हे, मुचकुन पाँड़े ।'

मुचकुन के बात सुनइते बरहमदेव के दिल पसीज गेल । ऊ ई भूल गेल कि ई ओही मुचकुन पाँड़े हे जेकर दिल-दिमाग में जात-पात, ऊँच-नीच के नफरत भरल हल । ऊ सोचे लगल - मुचकुन पाँड़े आखिर हे तो हम्मर पड़ोसिये । गाववो के रिश्ता में चचा लगऽ हे । अब तो ओकर सुभाउओ में काफी बदलाव आ गेल हे । पहिले नियन अखनी ओकर तेवरो नैं हे ।

ड्राइवर के बतयला पर मुचकुन पाँड़े बरहमदेव भिजुन आ गेल । बरहमदेव के आँख मिलल आउ दुन्हूँ के मुँह पर एगो मुस्की आ गेल । बरहमदेव बोल उठल -'गोड़ लागी बाबा !' आउ हप्पन दुन्हूँ हाथ जोड़ देलक ।

बरहमदेव के मेहरारुओ तड़ाक से घूँघट काढ़ के मुचकुन पाँड़े के पाँव छुए लगल । तखनिये पुरुब से एगो सुर उभरल -'मालिक हे सीताराम, सोच मन काहे करऽ जी !'

बरहमदेव पूछ बइठल - 'ई के गावइत हथ ? मुकुन्दी जी जीते हथ ?'

मुचकुन से जवाब मिलल - 'नैं, ई हथ उनकर पोता रामभजन । बड़ सुन्नर गावऽ हथ, मुकुंदिये जी नियन । मुकुन्दी जी के इंतकाल के पाँच बरिस हो गेल । अढ़ाई बरिस तो नन्दुओ बाबू के मरला हो गेल ।'

बरहमदेव चउँक गेल -'अयँ, नन्दू बाबू मर गेलन !' फिन पुछलक -'उनकर बेटा नवल की करऽ हे ? उनकर भगिना अरुण की करऽ हे ? बड़ी तेज हल पढ़े में । एगो भाइयो तो हल उनकर रमासामी । ऊ की करऽ हे ?'

मुचकुन एक-एक सवाल के बारी-बारी से जवाब देते गेल -'बेटा नवल बी॰ए॰ पास करके बइठारी के जिनगी जी रहल हे । अब तो ऊ काफी बाल-बच्चेदार हो गेल हे । तंगी के हाल में जी रहल हे । जे नन्दू बाबू हमनी के पढ़ा-लिखा के मास्टरी देला देलन, उनकर बेटा-पोता दाना-दाना ला मुँहताज हो गेल हे । हम्मर परिवार जब दाना-दाना ला मुँहताज हो गेल हल, त हमरा पढ़ा के नन्दू बाबू मैट्रिक पास करइलन हल । मास्टरी के ट्रेनिंग दिला देलन हल । हम उनका कइसे भूल सकऽ ही ! उनकर भगिना अरुण तो मामुए नियन मास्टरी लैन में हे । ऊ मास्टरो के पढ़ावऽ हे । आउ हँ, उनकर भाय रमासामी, ऊ तो बाढ़े में नामी ओकील हो गेल हे । ओकरा बारे में हम एही कह सकऽ ही कि अप्पन भाई के सोभाव के उल्टा हे ऊ । नन्दू बाबू के सीधा होवे के ही ई नतीजा हे कि उनकर बेटा नवल, जे लखपति बनल रहत हल, से आज बिलट गेल हे । एकरा में किस्मते के कोसल जा सकऽ हे ।' कहइत-कहइत मुचकुन सिसके लगल ।

मुचकुन के सिसकइत देख बरहमदेव के लगे लगल कि ऊ धड़ाम से भुइयाँ पर गिर जायत । ई तो मुचकुने हल कि बरहमदेव के भर पाँजा पकड़ के गिरे से बचा लेलक ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१६, अंक-२, फरवरी २०१०, पृ॰१३-१५ से साभार]

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