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Saturday, July 24, 2010

16. पराया खून

कहानीकार - बैजू सिंह; बहवलपुर, अइरा, कुर्था, अरवल

गली में दुआरी पर बइठल सँचइयावली के मइया झींकइत रहऽ हे - हमरो एगो बेटा रहत हल, त काहे ला ई बेटी-दमाद के दुआरी अगोरती हल ? सब चीज ला परसमींदा होइती हल, कृपनी बनल रहती हल ?

दुआरी के बहरी गनउरा लेले जाइत सँचइयावली सुनके झनके लगे । गली में से गुजरइत मेहरारू सब से अप्पन सफाई देवे लगे -'अईं बहिन ! एकरा कउन दुख हई । हम कहऽ हिअई एकरा काम करे ला ? चुपचाप बइठल रहे, त एकरा मने न लगई । बरिअरी जा हे काम करे । पुतोहिया मना करऽ हई -'काहे ला बर्तन मलऽ ह नानी ? झाड़ू-बहारू काहे ला करऽ ह नानी ? काहे ला गोबर-गोइँठा करऽ ह ? बनवऽ त तनि-मनी लइका-फइका धर ल आग जोरे तक ।'

'ई मानबे न करे । अब एकरा से झाड़ू-बहारू होतई, बर्तन मला जतई, गोबर-गोइँठा होतई ? बर्तन मलतो त सखरी लगले रह जा हई, झाड़ू-बहारू करतो त एक कोना बहरा हई, एक कोना गंदे रह जा हई । गोबर-गोइँठा करे के एकरा हूब हई ? एकरे ला कनेमा मना करऽ हई -'नानी काहे ला करऽ हथ ई सब, हमरा दोबारा करे पड़ऽ हे ।'

सँचइयावली हँसइत बोलल -'एक दिन ले अयलो कनेमा भरल तसला पानी । अदहन चढ़ावे जा रहलो हल । 'देखहूँ मइया ! बीचे तसला महादेजी के पीड़ी ! नानी मललथी हे । देखली त देखइत ही कि बीचे तसला में भात के लोंदा झलकइत हे । बड़ी हल्ला करलको ऊ दिन मइया । रोवे-कलपे लगलो । हमनी के ठकमुरकी लग गेलो ।'

नरेसवा के पापा हल्ला करे लगलथिन -'काहे ला तोहनी इनखा टोका-टोकी करे जाहीं ? छोड़ देहीं, जे मन में आवइ से करथिन । हमनी के प्राण संकट में फँस गेल हे । न छोड़ते बने, न पकड़ते बने । बड़ी उबिअहट हे । व्यर्थ में हमनी धन-सम्पत्ति लेके जंजाल में अझुरा गेली । जेकरा मन होतइ हल, ओकरा देतन हल । सोना के सिंहासन पर बइठयतइ हल । कउन बूढ़ा-बूढ़ी के एती घड़ी अराम हई ? सब तो करमे कुँटइत हथ । ई बेटी के घर हथ, एही से हमनी बदनाम ही ।'

रगन-रगन के बात गली-महल्ला में पसर जाय - पक्ष में, विपक्ष में । कोई कहे -'सब दुख भगवान देवे, बाकि बेटी-दमाद घरे रहे वला दुख न देवे । बड़ी तौहीनी होवऽ हे ।'

कउनो कहे -'कउची तौहीनी होवऽ हई गे ! बेटा-पुतोह भिर गिंजन न होवई ? कउन बेटा अब दूध के धोवल हई आउ बाप-माय के सरताज बनौले हइ ? ई दमदा घरे हई, सेई से ? बेटवा घरे रहतई हल, त पुतोहिया गोदी में खेलौतई हल ? बइठा के दूध-भात खिलौतई हल ? मलामत करतई हल, मलामत ।'

'तइयो बाबू ! कातो एतना बढ़िया-बढ़िया खेत सड़क किनारे मकान बनावे वला, सब्जी उपजावे वला नरेसवा के बाबू जी नीलाम कर देलथिन । औने-पौने बेच देलथिन । बेटिया रहतई हल त बेच देतई हल बाप-दादा के अरजल खेत ? मंगनी में मिलल धन के केकरा मोह-माया रहऽ हे ?'

'ई जाके लिखलई, तबे न ऊ बेचलई ? न लिखतई हल, त कइसे बिकतई हल ?'

'ई का करे बेचारी ! बेटी-दमाद एतना रगन के बात बनौलकई कि बेचारी के राजी होवे पड़लई । बेटी बिआहे ला हे, त घर बनावे ला हे, त बड़ी बढ़िया धनहर खेत बिकइत हइ एके ठामा । उहाँ त कट्ठा-कट्ठी हवऽ, खेती-बारी ठीक ढंग से न होवो, कउन जयतो उहाँ रहे-सहे ?'

'ई कहतइ हल कि तूँ अप्पन माय-बाप के खेत बेच । हम अप्पन जिनगी भर अप्पन खेत न बेचम ।'

'अइसन अनाथ के जान बड़ी सकदम में फँसल रहऽ हे । ऊ लचार होवऽ हे । कउनो उपाय काम न आवे । फिर सोचे लगऽ हे कि हमरा का ? हम का लाद के लेले जायम । तोहर धन हउ, तूँ जे चाहे कर ।'

'एही से पहिले लोग बेटी के धन न देवल चाहऽ हल । भाई-भतीजा के दे देवऽ हलन । बेटी-दमाद बेच देतउ बाप-दादा के नाम-निसान ।'

'सुनली हे कि अब कातो एगो कानून बन गेलई हे, जेकरा में बेटा-बेटी दुन्नो के बाप-दादा के सम्पत्ति में बराबर हिस्सा होतई, भाई जकत'

'ई तो बड़ी अच्छा कानून बनलई हे । तब तो भउजाई एगो लुगवो ला तरसीना न बनौतई । अब तक तो भउजाई डोरवो न देवल चाहऽ हलई ननद के । पड़लो-हरलो पर मदद न करऽ हलई । तनिक्कोगदानऽ हलई । दुआरी पर चढ़े न दे हलई । अब बिलाई बनल सटकल रहतई डरे । कखनी हिस्सा बँटा लेत भाई जकत ।'

'एकरा से हमरा समझ से, बाप-दादा के धन-सम्पत्ति तितिर-बितिर हो जयतई, एकदम से बंदरबाँट । पहिलहीं से सम्पत्ति एतना टुकड़ा-टुकड़ा हो गेलई हे कि सबके ऊँट के मुँह में जीरा लगऽ हई । अब तो आउ छितरा जयतई । देखइत हहीं, केकरा हीं दस-पंदरह बिगहा खेत बचइत हई ? खेत गेलो आरी में, घर गेलो दुआरी में । केतनन तो अबहिओं सुअर के बथान जकत एक्के जगह रहे पर मजबूर हथ । हम्मर नइहर में गनउरिया हीं दुइयो गो कोठरी हई आउ तनि सा बरामदा । ओकरे में खाय-पानी, बैल-बकरी, कोठी-भाँडी, सब अटल-पटल हई । एगो लमहर चउकी बिछल हई । कउनो चउकी पर, त कउनो चउकी के नीचे सुतऽ हथ । गर्मी में छत पर ।'

'बाकि सरकार कुछ सोचिये के कानून बनौलकई हे । एकरा से अनाथ, बेवा मेहरारू के राहत मिलतइ, जउन ससुरार में तबाह होवऽ हई ।'

'कहीं भी राहत न मिलतई जब ले दया-माया, प्रेम, सहानुभूति, सहयोग न उपजतई । एकरा से मार-काट, वैमनस्य, केस-मोकदमा फैल जयतई । पहिले तो भाई-भाई में ही होवऽ हलई, अब बहिन-भाई में भी हो जयतई । बाप-माय, दादा-दादी, नाना-नानी एकरा में मारल जयतन, जइसे सँचइयावाली के मइया मरइत हई ।'

'एक दिन मइया हमरा से कहित हलथिन - 'का करिअई बेटी ! हम्मर बेटिया कम नखड़बाज न हई । एगो बेटी रहे से जनमे से अइसने हई । पहिले भी एगो काम न करल चाहऽ हलई, अब भी न करल चाहऽ हई । दिन-रात कातो देह में दरद रहऽ हई । खन पेट दरद, खन माथा दरद, खन कमर में दरद उपटल रहऽ हई । कँहरइत रहतो, ठुनकइत चलतो । अब पुतोहिया ढुकलई हे, त ओकरो लड़का से फुरसते न हई । घर आँगन में कूड़ा-कर्कट, जूठा-सखरी बिखरल रहऽ हई । चापाकल पर सब खा-खा के लोटा-छीपा, गिलास, कढ़ाई, तसला के ढेरी लगा देतो । मक्खी सगरो भनर-भनर करइत रहऽ हई । हमरा से देखले न जाई । का करीं, आशा देख के मले-धोवे, बहारे लगऽ ही । देखला पर झूठ-मुठ पुतोहिया मना करतो । मनवाँ तो रहबे करऽ हई कि नानी सब काम कर देवे ।'

'घरवा कातो नानी बहिनपुतवा के देवल चाहित हई । बाप-दादा के एतना निसानी तो रह जायत ।'

'कातो फिर बेटिया-दमदा एगो टोपरवा बेचे ला कहित हई । नानी न कहित हई । मत बेच ऊ खेत, मेन सड़क पर हउ । उहाँ तक कुछ दिन में बजार आ जयतउ । लड़कन के रोजी-रोटी होतउ । बेटिया-दमदा मुँह फुलयले हई । भर-मुँह बोलई न, अइँठइत रहऽ हई ।'

'बड़ी सकड़पंच में पड़ल हे एती घड़ी अदमी । का करो, का न करो, समझे में न आवइत हे । कउन डाल पकड़े, कउन छोड़े ।'

'चलऽ अब हमनी अप्पन-अप्पन घरे । केतनो बहस करला से कोई फयदा न हवऽ । बुढ़िया के जे होवे ला हइ, से तो होयवे करतई ।'

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१६, अंक-६, जून २०१०, पृ॰१३-१४ से साभार]

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