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Sunday, January 09, 2011

19. फुलवा के बाबा

कहानीकार - चन्द्रावती चंदन

टप-टप ! छन-छन ! बड़ेरी के फाँफर से बुनी के पानी चुअइत हल । गोड़थारी तर के आधा बिछौना भींग गेल हल । बोखरायल लइका के सुता के धनेसरी चुपचाप टकटक्की लगयले हल । मद्धिम इंजोरा आवइत हल ढिबरी से ।

एकाएक गड़-गड़ कर के बादल गरजल आउ झमर-झमर बुनी पड़े लगल । साथ में छोटा-छोटा पथलो पड़इत हल । तसला, कड़ाही, कठउती, कटोरा अगल-बगल बिछौना पर रक्खल हल, जेकरा में टप-टप पानी चुअइत हल । खटिया के ओड़चन एकदम भींग गेल हल ।

मने-मने सोचइत धनेसरी बुदबुदाएल -'आज सब खपड़वा फूट जतई । कल्हे छपड़वा के फेरवलथिन हे । ई अगिया लगउनी बुनी तो छूटे के नामे न लेइत हई । बिहने कइसे हम खाए बनयबई ? चुल्हवा तर तो डोभ पानी लग जतई ।'

धनेसरी के साथे फुलवा भी बगले में खटिया पर सुतल हल । छप्पर से चू के पानी टप सिन ओकर आँख पर पड़ल । ऊ चेहा के उठल आउ बोललक -'मइया ! मइया गे ! हमरो खटिवा पर पानी चुअइत हई । कटोरवा दे न, मथवा तर रख देइत ही ।'

धनेसरी उठ के एगो कटोरा उठा के जइसहीं देलक कि केंवाड़ी के फाँफड़ से झटास आवे लगल । केंवाड़ी फट-फट बजे लगल । खड़ड़-खड़ड़ खपड़ा बजे लगल । फुलवा के तनी-मानी सिहरावन लगे लगल, त ऊ आके मइया के बगल में घुस के बइठ गेल आउ मइया के अँचरा तान-तान के खींचे लगल । धनेसरी जानइत हल कि फुलवा के ठंढा लगइत हे, बाकि का देवो ओढ़े ला ? घर में एक्को चद्दरो तो न हे । अप्पन देह पर से अँचरा हटा के फुलवा के ओढ़ा देलक आउ कहलक -'सुत जो मइयाँ ! आधा रात से जादे होयल हई ।'

फुलवा मइया के अँचरा में मुँह छिपावइत बोललक -'ए मइया ! कउआ-हँकनी ओला कथवा कह न ।'
धनेसरी ओकर पीठ पर चुपचाप ठोके लगल आउ फुलवा के नीन पड़ गेल । धनेसरी बइठल-बइठल अउँघे लगल ।

सुबह तक पानी न छूटल । झिसी-झिसी पानी पड़तहीं रहल । गोइँठा भी खतम हो गेल हल । चुल्हा में के आधा राख भींग गेल हल । चुल्हा में के सुक्खल राख निकाल के धनेसरी चुल्हा तर जमीन पर छींट देलक पानी सुक्खे ला आउ पीढ़ा पर बइठ के चुल्हा लीपे लगल ।
फुलवा अप्पन बाबा के साथे ओड़िया लेके पच्छिम पट्टी गोइँठा लावे चल गेल । गली में भर ठेहुना पानी भेल हल । ओरी के किनारे पिच्छुल भेल हल, से माथा पर गोइँठा के मउनी लेलहीं फुलवा गिर गेल । हाथ-गोड़-फराक, सब लेटा गेल हल । ओकरा मन करे कि सभे गोइँठा छोड़ के भाग जाए । बाकि फिर सोचे लगल -'मइया खाएला कइसे बनयतई ?'

सब गोइँठा ओड़िया में उठा के माथा पर रख लेलक आउ गते-गते चल देलक ।

ओन्ने धनेसरी मसुरी के दाल आउ उसना चाउर के फेंट के धोलक आउ तसला में मट्टी के लेवन देके चुल्हा में आग जोड़ देलक

तनी-मानी गोइँठा के चिपरी पर मट्टी के तेल डाल के सलाई से धरा देलक, बाकि बार-बार आग बुता जाए ।

चुल्हा से धुआँ उठइत हल । धनेसरी के लगे कि ओकर अरमान के धुआँ उठइत हे । गोइँठा बार-बार बुता जाए । एगो छोटहन लकड़ी के टुटान चुल्हा में लगाके बाँस के पंखा से हउँके लगल आउ आँख मले लगल । धुआँ नरेटी में गरगटाइन आउ आँख में ललका मिरचाई जइसन लगइत हल । लगे जइसे दीदा फूट गेल । लोरे-झोरे हो गेल हल धनेसरी ।

एन्ने झपसी लगयले हे आउ ओन्ने धनेसरी के सास अलगे हल्ला कयले हलन -'अगे फुलवा ! खाना बन गेलउ ? केतना दिन उठ गेल आउ अभी हमरा हीं एगो खिचड़ियो न गलल हे, आउ केतना देरी लगतउ ? लइका लेले हम्मर कमर टिढ़ुआ गेल । जो दूर होख ।' लइका के बइठा देलक आउ अपने भी घसक के बइठ गेल धनेसरी के सास ।

धुकुर-धुकुर करइत कइसहुँ खिचड़ी आउ चोखा बना के धनेसरी तसला के राख मड़पसौना से झाड़ के रख देलक । फुलवा खिचड़ी खयलक आउ एगो चमकी ओढ़ के धान के आरी पकड़ के चल देलक इस्कूल में पढ़े । आरी-पगारी पर पिच्छुल भेल हल । करिया केवाल मट्टी गोड़ धर लेवे, त सट जाए मट्टिए में गोड़ ।

अभियो फिसिर-फिसिर पानी पड़इते हल । आरी-पगारी, डग्घर होवित फुलवा देरी से इस्कूल पहुँचल हल । ऊ दिन ओकरा क्लास से बाहर खड़ा रहे पड़ल । बाकि बाद में हेडमास्टर साहेब देखलन त ऊ तिवारी जी से कहलन -'बेचारी बड़ी दूर से इस्कूल आवऽ हे । एकरा क्लास में बइठे देहूँ ।'

फुलवा मुड़ी गड़ले क्लास में बइठ गेल, बाकि आज ओकरा पढ़े में मन न लगइत हल । बार-बार ऊ घरहीं के बारे में सोचे । टिफिन होयल, क्लास में सब लड़की खाएला कुछ-कुछ ले अयलन हल, बाकि फुलवा का खाइत हल ? छुट्टी भेला पर घरे आयल, त इहाँ फिर उहे खिचड़ी तिसिअउरी आउ एगो अमड़ा के झूँजल फाँक ।

जइसहीं खाए बइठल कि ओकर कान में बाबा के अवाज आयल -'फुलवा ! ए फुलवा ! तनी-मानी गइया ला हरियरी काट के लेले आव तो ।'

मुँह में पानी के कुल्ला लेलहीं ऊ बोललक -'अच्छा बाबा, आवइत ही ।' पानी सरक गेल आउ ऊ खाँसे लगल हल । खाँसते-खाँसते ऊ दउड़ के भागल आउ हाथ में हँसुआ आउ मउनी लेके घास काटे चल गेल ।
बरसात के पानी में घास पोरसा भर के भेल हल । भर ठेहुना पानी में फराक समेट के ऊ थोड़े देरी में घास काट के गइया भिर रख देलक ।

साँझ भेलइ, त तनी-मानी पानी छुटला के बाद फिर फिसफिसाए लगलई । ऊ दिन साँझ में आटा में जवाइन आउ नीमक डाल के लिट्टी बनयलन हल फुलवा के बाबा । मिरचाई आउ नीमक के साथे दू-दू गो लिट्टी खा के सुत गेलथिन हल सब ।

बड़ी तंगी के जिनगी हलई, बाकि फुलवा के पढ़ाई पूरा करके कुछ बने ला हलइ, ई से खूब मन लगा के पढ़े । कभी-कभी फुलवा के अप्पन गरीबी पर तरस आवे आउ सोचे लगे -'अमीरी काहे न घसिया अइसन उपजऽ हई, जेकरा काट-काट के हम बाबा के ला के दे देती हल । बाकि इहाँ तो अमीर के भी चेहरा पर आउ जादे अमीर बने के गरीबी देखाई पड़ऽ हई । एन्ने गरीब के चेहरा पर भूख के गरीबी हई । दुन्नो तो परेसाने हथ ।' एही सोच के अप्पन मन में संतोष कर लेवऽ हल फुलवा ।
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समय कटइत देर न लगे । फुलवा के मन के मुराद पूरा हो गेल । ओकर बाबूजी के नोकरी लग गेलइ आउ ऊ शहर में आके पढ़े लगल । दुःख के दिन पीछे छूट गेल आउ भाग्य के सितारा चमक गेल । ऊ कॉलेज के प्रोफेसर बन गेल । कार में बइठ के पढ़ावे जाए कॉलेज में । उहाँ चारो तरफ से लइकन ओकरा घेरले रहथ ।

फुलवा खिल गेल । समय बदल गेल, अदमी बदल गेल हल । वातावरण बदल गेल हल, बाकि दुःख के दिन फुलवा भुला न पयलक । ओकर रोआँ-रोआँ गरीबी के पसेना से जे भींगल हल, से सूख न पयलक ।

जब कभी ऊ रस्ता से गुजरे, त झुग्गी-झोपड़ी के पास ओकर गाड़ी धीरे-धीरे रुके लगे । मट्टी के टूटल-फूटल घर, काम करइत मजूर, फट्टल पेवन साटल साड़ी झोपड़ी के अगल-बगल करखाही खरकट्टल बरतन-बासन, चुल्हा के ढहल पुत्ती, लंगटे-उघारे लइकन के झुंड जब देखे, तब ओकर मन भारी हो जाय । आँख भर आवे, जिनगी के तार झनझना जाय । सोचे लगे कि ओकर समय तो बदल गेल, बाकि गरीबी के तस्वीर न बदलल ।

जब कभी कोई बूढ़ा के बाल उड़ल देखे, मइल-कुचइल आधा फट्टल धोती पेन्हले, गोड़ में फट्टल बेवाय, अंगुरी में पानी लग के बजबजाइत गोड़, पचकल गाल, नस-नस हिगरायल हाथ से सतुआ सानइत देखे, त ओकर आँख मुंदा जाय । मन कचोटे लगे । बाबा के चेहरा ओकरा बार-बार आँख तर घुरे लगे, तब ऊ अप्पन पिछला दिन में खो जाय ।

दस साल पहिले गाँव में बाढ़ अलइ हल, तब सब घर-दुआर ढह के बाढ़ में बह गेलई हल । एन्ने-ओन्ने भाग-भाग के टिल्हा-टुकुर, चबूतरा पर बसेरा बनयलथिन हल सब । आवे-जाए के रस्ता बंद हो गेलई हल । ओही समय में ओकर बाबा के दमा अइसन फूलल कि उनकर दम निकल गेलइन । ओकर सुख के जिनगी बाबा न देखलथिन ।

ओकरा एक-एक बात इयाद पड़इत जाय । जब कहियो बाबा साथे कहीं जाए, त चिन्हल-परिचित लोग पूछ दे हलथिन कि ई के हवऽ ? बाबा बड़ी चहक के बोलऽ हलथिन -'पोतिया हवऽ । बड़का बेटा के नन्हकी । पढ़े में बड़ी तेज हइ । देखिहऽ न ! ई कौलेजिया पोरफेसर बनतइ । फस्ट से पास करऽ हे हर साल ।'

आज ऊ सचमुच कौलेजिया पोरफेसर बन गेल हल । आज न भूख के गरीबी हलई, न अमीरी के अभाव । आज ओकरा पास सब कुछ हल, बाकि ओकरा दुलार करे वला बाबा न हलथिन ।

'मलकीनी ! चाय ।' नौकरानी चाय लेके सामने खड़ा हल ।

फुलवा के लगल जइसे ऊ सपना में हल आउ नीन से जगल हे । खिड़की से झाँके लगल । देखलक - बेर फुलाइत हल । असमान में बगुला के झुंड पंख पसार के उड़इत हल । अशोक के पेड़ पर कउआ काँव-काँव बोलइत हल । करिया सियाह बादल असमान में इधर-उधर भागइत हल । गौरइया चिरईं के झुंड चीं-चीं करइत अप्पन घोसला में जाइत हल । पुरवइया हवा के झोंका खिड़की से भीतर जोर से आयल आउ फुलवा के तन-मन के बोझ उड़ा के ले गेल । एगो भारी साँस लेके फुलवा कुरसी पर बइठ गेल आउ चाय पीये लगल ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१६, अंक-८, मार्च २०१०, पृ॰१३-१५ से साभार]

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