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Tuesday, June 21, 2011

17. टिकट के शान


लघुकथाकार - कृष्ण कुमार भट्टा, भट्टा, काशीचक, नवादा


टिकट कटाके शान से पलेटफारम पर घूम रहली हल । गाड़ी खुलल त अप्पन सीट पर जाके बइठ गेली । अगले टीसन से हम्मर बोगी में टिक चेक होवे लगल । टिकट मजिस्ट्रेट के साथे पुलिस भी हल । मजिस्ट्रेट चेकिंग रहला से भीड़ कम हल । जेकरा पास टिकट नयँ हल ओकर हालत बेमरिया नियन होल हल ।

टिकट चेक करइत-करइत मजिस्ट्रेट हमरा भिर आल आउ सबसे टिकट माँग-माँग के चेक करे लगल । हमरो से माँगलक, मुदा हम शान से मुड़ी दोसर देन्ने घुरा के बाहर के नजारा देखे लगली । ऊ दू-तीन दफा हमरा से टिकट माँगलक, मुदा हम ओइसहीं आना-कानी कइले रहली । ऊ ई सोच के आगे बढ़ गेल कि ई लइका के पास टिकट हे, ईहे लेल अइंठ रहल हे । हम्मर चेहरा पर तनिक्को डर नयँ हल, काहे कि टिकट जे कटा लेली हल ।

मुसकइते जब हम मुड़ी एन्ने घुमइली त बगल के अदमी कहे लगलन, 'भाय साब ! तूँ अप्पन टिकट काहे नयँ देखइलऽ ?'
ई सुनके हम शान से कहली,  'आज तक ले कहियो हम टिकट न देखइली हे, त आज का देखाम ?'
'हमरा तो लगऽ हे कि तोरा पास टिकटवे न हवऽ, त देखइबऽ की ?' दोसर अदमी टुभकल ।
'का ? हमरा पास टिकट नऽ हे ?' हम तमतमायल पाकिट में हाथ देली, त होशे उड़ गेल । काहे कि टिकट फटलका जेभी में रखे से गिर गेल हल । हम ऊपर-नीचे देखे लगली । एन्ने-ओन्ने सगरो देखली, बाकि कहुँ टिकट के पता न चलल ।

सब के नजर हमरे पर हल । अभी मजिस्ट्रेट भी उहे बोगी में हल, मुदा दूर चल गेल हल । हम्मर पूरा देह में पसेना चमके लगल हल । हम हड़बड़ा गेली, ई लेल सब जातरी हमरा देख के ठिठियाय लगलनतइयो हम चुप रहली । अब हमरा मजिस्ट्रेट का, ओकर पुलिसवो से डर लगल हल । एही से हम गया न जाके नवादा में ही उतर गेली ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-८, अंक-५, मई २००२, पृ॰१८ से साभार ]

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