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Wednesday, October 12, 2011

फैसला - भाग 3


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साँझ के ठीक साढ़े चार बजे अविनाश चन्द्रु के घर पर आल ।
ताम्बरम् मेन रोड पर एयरपोर्ट लगि पहिला ट्राइडेंट होटल पार करके दहिना तरफ के रोड भारतीनगर आल । दू ठो पनसारी दोकान । एक ठो होटल । एक ठो सैलून । एक ठो बिजली समान के दोकान । लॉटरी सेंटर । राजकीय ध्वज फहरावे लगि एक ठो खम्भा । एक ठो रिक्शा स्टैंड । मतलब भारतीनगर एक ठो छोट्टे गो टाउन के तरह हलइ जे हाले में पैदा होल हल ।

हुआँ से अन्दर तरफ के कच्चा रोड से आगे बढ़के ले-आउट (खाका)के रूप में अनुमोदन प्राप्त रियल इस्टेट (स्थावर भूसम्पत्ति) के मालिक भारतीनगर के रूप में लोग के लिए आशा पैदा कइला के कारण हुआँ कइएक लोग प्लॉट खरदलका हल । चारो तरफ खुला मैदान । सगरो खाली प्लॉट । जाहाँ-ताहाँ कँटेदार तार के अहाता बन्नल । कुछ भी अनहोनी घटला पर तकलीफ । मतलब कि मदद ल चिल्लइला पर भी ऊपर उड़ते जा रहल खाली कौआ मुड़के देखके फिर आगे उड़के जाय वला जइसन जगह ।

“अइसन जगह में घर बनवाके रहे लगि आवे के साहस तोरा कइसे होलो ?” - चन्द्रु के पत्नी के परोसल नारंगी रस पीते-पीते अविनाश चन्द्रु के पूछलक ।
“सब कोय अइसहीं सवाल पूछता त कइसे काम चलत ? कोय तो एगो साहस करके घर बनइता त दोसर सब खुद्दे अइता, ई सोचके हम घर बनवइलूँ । हमरा देखऽ । चार प्लॉट आगे एगो आउ अदमी अब घर बनावे ल निश्चय कइलका ह । देखते रहऽ । दू बरस में भारतीनगर पूरा विकसित हो जात ।” - चन्द्रु बोलला, “घर के किचेन-गार्डेन (पाकशाला-उद्यान)बनवइलिये ह । देखे ल आवऽ ।”

पीछे के आँगन में बैंगन आउ भिंडी के पौधा हलइ ।
“अविनाश, अगर तोरा दिक्कत नयँ होवो त तूँ कभी आवऽ त ई पौधन के एक-एक बाल्टी पानी डाल द । अइसहीं छोड़ देवे से पौधा सब मुरझा जात ।”
“ई भी करे पड़त की ?” - अविनाश बोलल । बाग के देखके पूछलक - “ई की भई ? बोरिंग कइलऽ  ह त ओरा साथे-साथ कुआँ काहे ल खोदवइलऽ ह ?”

“एरा जरी स हुलक के तो देखऽ । एरा कुआँ कहल जा हकइ ? पानी रहला पर तो कुआँ कहल जा सकऽ हइ । ई खाली एक ठो गड्ढा हइ ... पहिले एक कहला पर चालीस फुट खोदवा देलिअइ । नीचे जाते-जाते खाली पत्थरे-पत्थर । पानी आवे के नामे नयँ ले । ओहे से बगले में एक ठो बोरिंग करवइलिअइ । एक सो दस फुट गहरा गेला पर पानी मिललइ । ई कुआँ के भर देवे के चाही । जन-मजदूर के बोलइला पर ‘नयँ अइबो’ बोलऽ हका ।  छोट्टे-मोट्टे काम लगि केऽ आवे ल चाहऽ हइ, बतावऽ ... हमरा से ई काम होतइ ? ... केतना बजलइ, देखहो तो ।”

“पाँच बजके पाँच मिनट ।”
“पाँच चालीस के बॉम्बे फ्लाइट । अभीये निकलला से अच्छा होतइ ।”
“घर के चिन्ता मत करऽ । हम देख लेबो ।”
“लंडन के फ्लाइट कब हइ ?”
“बॉम्बे में हम्मर भौजी रहऽ हथिन । उनखर घर पर दू दिन रहके बाद में लंडन ।”

घर में ताला लगाके लगेज उठा लेलक अविनाश । कार में एयरपोर्ट अइते गेला । चन्द्रु आउ उनकर पत्नी भवानी के बिदा कइलक अविनाश । हाथ में के चाभी के झब्बा के चूमके अप्पन जेभी में रख लेलक ।

कइएक घटना हो गेल दोसरहीं दिन ।

सुबह ऑफिस जाय के रस्ता में अच्छे-खासे रहल अप्पन कार के मामूली वर्कशॉप में छोड़के पिछले रात कइल मरम्मत के फेर से ठीक करे ल कहके आल अविनाश ।
“अइसन कोय हड़बड़ी नयँ हइ । अराम से मरम्मत कइला पर चलतइ । बिहान सुबह के हमरा ऑफिस निकले के बखत घर पर कार भेजइला से काम चल जइतइ ।” - अविनाश कहलक हल ।
बस पकड़के ऑफिस आल ।

विनोद नाम के अप्पन एक धनगर मित्र के फोन पर बोलल - “हाउ आर यू विनोद ? लौंग टाइम नॉट सीन । ... आउ हम्मर शादी सेटल हो गेल ह ... थैंक यू ! पक्का पार्टी होतइ । ... बाद में एक ठो छोट्टे गो हेल्प ... येस, येस । ... बड़गर पार्टी ही ... हम्मर मारुति के थोड़े ट्रबल होवे के चलते वर्कशॉप में छोड़ देलूँ हँ । आझ साँझ के एक ठो मुख्य इन्गेजमेंट हके ...तोरा पास दू-दू कार होवे से पूछके देखूँ, अइसन लगल .... बहुत-बहुत धन्यवाद !”

थोड़हीं समय में फोन आल ।
“हैलो, अविनाश हियर ।”
“हम लता बोल रहलिये ह ।”
“हाय हनि (hi honey) ! कइसन हकऽ ?”
“अच्छे हिअइ । फोन नम्बर देके फोन करे ल कहलऽ हल न । ओहे से फोन कइलिअइ । की बात करे के हलइ, मालूम नयँ पड़लइ ।”
“एक काम करऽ ... जोर से हँस्सऽ ... तोहर हँसी सो पेज के साहित्य कह देत ।”
“हम्मर मज़ाक कर रहलऽ ह ।”
“छी छी ... आउ रात के अच्छा से नींद आवऽ हको तो ?”
“जा भई, तूँ ! हमरा शरम लगऽ हके । कल हमर बाउजी तोहर घर होके वापा अइला न । तब उनखर पास हमरा जे जे जेवर पसन्द होवे, ऊ सब बनवावे ल बतावे वला हलऽ न ...”
“हाँ ।”
“तोहर पसन्द के लायक एक्को नयँ की ?”
“एक्कर ज़रूरत नयँ हइ, लता ।”
“काहे ?”
“तोर पसन्द, हम्मर पसन्द दूनहूँ एक्के हइ, ई मालूम पड़लो हल न ।”
“कइसे ?”
“तोरा देखना ही हमरा पसन्द आउ हमरा देखना ही तोर पसन्द ।”

लता खुल के हँस पड़ल ।
“ए ! आउ एक तुरी हँस्सऽ ।”
“कोय कारण नयँ रहला पर हँसी कइसे अइतइ ? ... आउ कोय बात करऽ ।”
“आउ कीऽ कहियो ? घर पर रिश्तेदार आवे वला हका त घर के साफ-सुथरा करे के चाही न । अइसन आज एक छोट्टे गो विचार पर्सनल रूप से परिहार करे के चाही हमरा ।”
“की बात हइ ?”
“बतइवो । पक्का बतइवो । लेकिन अभी नयँ । पहिलहीं दिन सब बता देवो ।”
“थू ! तूँ की की बक रहलऽ ह । रख दियो ?”
“लेकिन फिर फोन करे के चाही ।”
“देखल जइतइ ।”
“देखे के नयँ । बात करे के चाही ।” - कहके ऊ रिसीवर रख देलका ।

“सौन्दर्य के निधि ही ! लक्ष्मी के कटाक्ष के साथ-साथ हम्मर घर पर कदम रक्खे वाली हम्मर लता सौन्दर्य आउ ऐश्वर्य दूनहूँ मिलाके हमरा राजा बनाके बीच के प्रीति के भी ध्यान रक्खे के न ? ऑफिस में खटके करोड़ो कमायके चाही त सात जनम में भी सम्भव नयँ ... पइसे आजकल सबसे मुख्य । एकरा सामने प्यार-वियार के जगहे नयँ । न्याय नीति के कोय मतलबे नयँ । पइसा रहला पर सब्भे कुछ के मोल-जोल करके खरीदल जा सकऽ हइ; जरूरत रहला पर कुच्छो भी !  ... एरा ल कोय अपराध कइला पर भी गलत नयँ होवे वला । .... हम बस एक्के ठो अपराध करम । ई दू अक्षर के काम ... हत्या !

“कानून के हाथ लम्बा होवऽ हइ, ओहे से बहुत सवधानी से ई काम के करे के चाही । हमरा तो अनुकूल परिस्थिति मिल गेल ह ... कीऽ कइल जाय ।”

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