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Thursday, October 13, 2011

फैसला - भाग 8


- 8 -

दू घंटा के बाद देह के पोस्ट मॉर्टम ल भेजवा देलका इन्सपेक्टर राजाराम । दयाल के स्टेशन लौटके अइला पर किनारे डालल बेंच पर बइठल अहल्या आउ ओक्कर साथ आल एगो तगड़ा व्यक्ति उठके खड़ा हो गेला ।

“बोलाके लइलिये ह सर” - सिपाही बोलल ।

अहल्या के नीरार पर चौड़गर गोल कुमकुम हलइ । टाइट ब्लाउज़ । झीना साड़ी । सिर पर चमेली के फूल । पल्लू चढ़इले हलइ । मुख पर छोट्टे-छोट्टे फुंसी । देखतहीं ई ओइसहीं । मतलब लिक्खल जइसे कहल जा सकऽ हलइ, पान-सुपारी चबावल मुँह लाल हो गेल हल ।

“  सलाम साहब जी । मालूम होलइ कि बोलाके लावे ल कहलथिन हल” - अहल्या बोलल ।
राजाराम ओकरा एक टक देखलका । “दयाल, हम पूछताछ करऽ हकियो । तूँ रिपोर्ट लिक्खऽ ?”
दयाल अप्पन मेज के कुर्सी पर बइठके इनकर पूछताछ ल अप्पन कान खड़ा कर लेलका ।

“तोहर नाम की ?”
“अहल्या, साहब जी” - साफ-साफ बोलल ।
“ई केऽ ?”
“हम्मर छोटका भाय ।”
“तोहर मर्द नयँ अइलथुन ?”
“उनकर गुजरला छो बरस हो गेलइ, साहब जी ।”
“कीऽ काम करऽ ह ?”
“जब तब नाटक में अभिनय करऽ हिअइ, साहब जी ।”
“झूठ मत बोलऽ । तोहरा कइएक तुरी कोर्ट में देखल आद हके ।”
“जानल बात के पुच्छे पर हम कीऽ कह सकऽ हिअइ, साहब जी ?”

“एल. प्रमिला के हइ ?”
“कइसे खुल्ला कहल जाय ? हमरा पास रहे वली में ओहो एक हइ । लचार एक सप्ताह पहिले हम्मर घर पर आल हल .... बात की हइ, साहब जी ?”
“कल साँझ के प्रमिला के कहाँ भेजलँ हँल ?”
“काहाँ भेजलूँ हँल ?” - अइसे अहल्या सोचते-सोचते, “ओकरा हम नयँ भेजलूँ हँल । सुबह में खुद्दे एगो पार्टी के पकड़लक हल, ई बतइलक । बेसेंटनगर में ऊ गराहक मिल्लल हल । बड़गर अदमी हका, ई भी बतइलक । रात के आठ बजे गेल हल । दोसर गाँव भी जाय पड़ सकऽ हइ, ओहे से एक ठो साड़ी आउ एक ठो ब्लाउज़ लेके गेल हल ।”
“बेसेंटनगर में पार्टी केऽ हइ, ई ठीक-ठीक बतइलको हल कि नयँ ?”
“ऊ भी बतइलक नयँ, हमहूँ पूछलूँ नयँ ।”

“देह पर गहना-गुरिया हलइ ?”
“कान में सोना के झुमका हलइ, हाथ में घड़ी हलइ । गर्दन में सिकरी हलइ । हाथ में कंगन .... अपने ई सब काहे ल पूछ रहलथिन हँ, हमरा समझ में नयँ आल ।”- घबराके गोस्सा में पूछलक ।
“तोरे घर में रहऽ हलउ ?”
“हाँ ।”

“केतना बजे बाहर गेलो हल ?”
“केतना बजले हल ? .... आठ बजले हल ।”
“कइसे गेलो हल ?”
“मेन रोड होके ऑटो पकड़के जा हिअउ, अइसन बतइलक हल ।”
“ऊ कउन गाँव के हउ ?”
“केरल के एक ठो गाँव । गाँव के नाम आद नयँ पड़ रहल ह ।”
“कल जाय घड़ी कइसन साड़ी पेन्हलको हल ?”
“दुधिया रंग के साड़ी । करिया रंग के हैंडबैग .... आ ऊ हइ न मेज पर, ओहे हैंडबैग । प्रमिला काहाँ हइ साहब जी ? ... ओरा की होलइ ?” - बोलके अहल्या लॉकअप तरफ मुड़के देखलक ।
“ऊ अब नयँ हउ । मर गेलउ ।”
“अगे मायँ ! .... कब ? ... कखने ? .... केऽ ? ... हे भगवान !”

इन्सपेक्टर राजाराम सब कुछ बताके कहलका - “हमरा साथे आव । लाश देखके प्रमिला के पहचानला पर पोस्ट-मॉर्टम होला के बाद लाश के तोरा सौंपे के इन्तज़ाम करबउ .... एरा खोलबऽ जरी ?”

“ओकरा ल हमरा छोड़के आउ कउन अधार; छी-छी, कइसन-कइसन लोग हइ । हम जइसन लोग के अकेले एद्धिर-ओद्धिर जाय में नयँ बन्नऽ हके । सोना के झुमका बाकी सब ....... के हइ । दू हजार भी नयँ पार लग सकऽ हइ । एरा लगि ओक्कर खिस्से खतम कर देलकइ । लावारिस हम्मर बुतरू ! .....रोज पाँच सो जकमा हले .... ई कामधेनु जइसन हले । एरा पर हम केतना विश्वास करऽ हलूँ ... सिनेमा में मौका देवे के चाही, अइसन सोचऽ हलूँ ! कइसन रूप हइ ! .... हम्मर बेटी । छोड़के चल गेलँ । तोर सोना नियर देह के कइसे आग लगावूँ ? ... ई कइसन देश हइ, साहब जी !” - अइसन दहाड़ मार के रोवे पर ....

“देख, हीआँ ई तरह से चिल्लो मत ! ओक्कर हत्या होवे से चाहे ओकरा मर गेला से संकट पड़े के अपेक्षा जादे ओकरा से तोरा मामूली तौर पर मिल्ले वला नगद चल गेलउ न, ओहे से एतना जोर से कन रहलँ हँ ... चिल्लो मत ! धन्धा चलावऽ हँ ? घरवा पर केतना जन के रखलँ हँ ?”

“नो गो, .... नयँ, नयँ, ..आठ ... ई तो चल गेल न ?”
“केतना हिसाब रक्खऽ हइ ! तोरा बाद में देख लेबउ ।”
एरिया वला (पुलिस अफसर) के हफ्ता देइये रहलिये ह न, साहब जी” - ऊ घमंड से बोलल ।

राजाराम आउ दयाल पास अइला ।
“दयाल, एक्कर कहल बात के देखके लगऽ हइ कि एरा लेके जे रिक्शावाला आल ह, ओहे ई काम कइलक ह । ऑटो स्टैंड में जाके पुच्छे के चाही । पैट्रोलिंग डिविज़न में बेसेंटनगर तरफ ड्यूटी पर के हला, ई पूछ ल ... हम इनका साथे जी.एच. (जेनरल हॉस्पिटल, सदर अस्पताल) जा रहलियो ह ... आउ कोय रस्ता नयँ, अइसन बात नयँ । लाश के सौंप देल जाय ।”

दयाल के ओतना हड़बड़ी के काम के जरूरत नयँ हल । अहल्या के बात में एक प्रकार के विवरण नयँ आल जइसन ढोंग देखाय दे रहल हल ।
“आउ थोड़े स पूछला के बाद ...” - कहते बखत जरी गोस्सा आ गेल नियन लगल ।
“रस्ता में पूछ ले हकियो । तूँ पैट्रोलिंग डिविज़न में ...” -- कहके उनका साथ जीप में चढ़ गेला ।

ऊ दिन साँझ के अखबार में समाचार प्रकट होल ।

“समुद्र तट पर एगो रूपसी के लाश ! ऑटोचालक लगि पुलिस के खोज जारी !
“सैदापेट के प्रमिला नाम के नवयुवती वेश्यावृत्ति में निरत हल । कल रात अप्पन पार्टी के साथ मिल्ले ल ऑटो धरके गेल प्रमिला के बेसेंटनगर के समुद्र तट पर लाश पड़ल मिलल । ओक्कर देह पर के गहना-गुरिया वगैरह गायब हइ । आभूषण के लालच में ही ओकरा पर हाथ फेरके भागल ऑटो चालक के हाथ ई हत्या में हो सकऽ हइ, ई शंका से पुलिस वला ओक्कर खोज में हका । अपराधी के पता लगावे में अडयार के अपराध अन्वेषण विभाग के इन्सपेक्टर राजाराम आउ सब-इन्सपेक्टर दयाल के खोजबीन चल रहल ह ।”
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“अखबार देखलँ हँ ?” - मेनका के मौसा सुब्रह्मण्य बोलला । माम्बल के फ्लैट सिस्टम में खरीदल तेसरा बिल्डिंग के फ्लैट के सीट-आउट में अराम कुर्सी पर बइठल हला । साँझ के अन्हेरा फैल रहल हल ।
कॉफी लाके उनकर पत्नी, मेनका के मौसी पूछलक - “कीऽ लिखलका ह ?”
“एगो वेश्या के कोय गला दबाके मार देलके ह । ओक्कर देह पर के सब गहना के सम्बन्ध में । देश खराब होल जा रहल ह ।”
“एहे लगि तो तोर मेनका के साथ में मीनाम्बक्कम् तक जाके ओक्कर सहेली के घर छोड़के फेर साथे लेले आवे ल हम कहलियो हल ।”
“कीऽ कह रहलँ हँ ? हम की ‘नयँ’ कहलियो हल ? हम आउ तूँ केतना तरह से पूछलिये हल । ‘नयँ जरूरत हइ, हम चल जइबइ’ - कहके अकेल्ले चल गेलइ ।”
“ई समय तक ऊ मायावरम् पहुँच गेल होत । ‘अप्पन सहेली के घर ठहरके सुबह नश्ता करके निकल जाम’ - अइसन कहलक हल ।”
“ओक्कर सहेली के घर पर कोय फोन-वोन हइ, अइसन बतइलको हल ? मालूम रहला पर फोन करके बात कर लेल जाय ।”
“ओक्कर सहेली के नाम कीऽ, ई पुच्छे के ध्यान नयँ रहलइ । मीनाम्बक्कम् एतना कहलके हल ।”
“ई सब कुछ नयँ । सकुशल अप्पन शहर पहुँच गेल होत ।” - कहके सुब्रह्मण्य अखबार में ऊ दिन के भविष्य देखते कॉफी पीये लगला ।

ओहे दिन; ओहे समय । कोचीन ।
माधव ऊ लॉज में रुक गेल हल । अप्पन कम्पनी के चार दिन के सम्मेलन में भाग लेवे ल कोचीन आल हल । ऊ अप्पन मित्र के साथ मिलके हँसते-हँसते ताश के इस्पीट खेल में डुब्बल हल । ई माधव मेनका के पति ।

“की जी माधव, जरी चिन्ता देखाय दे हको तोर मुख पर ?” - ओक्कर मित्र कहलक, इस्पीट के पत्ता फेंटते-फेंटते ।
“कुछ नयँ । ‘बैंक के एक ठो परीक्षा लगि मद्रास जाय के हके’ - अइसन कल हम्मर वाइफ़ बतइलक हल । ‘जाके आज मायावरम् वापस अइतहीं के साथ पोस्ट ऑफिस से ट्रंक कॉल करबो’ - अइसन बतइलक हल । ओक्कर फोन के इन्तज़ार कर रहलूँ हँ, बस एतने बात हइ ।”

“लाइन मिल्ले में बड़ी दिक्कत .... एतने लगि काहे ल चिन्ता कर रहलऽ ह ? कल तो सम्मेलन खत्मे हो जइतो । रात में हम सब निकल जाम । परसूँ अप्पन शहर में । एतने समय लगि पत्नी के साथ बात करे के जरूरत हको ? तूँ तो वास्तव में जोरू के गुलाम देखाय दे ह ।”
“छी-छी, मद्रास जाके आवे के जरूरत पड़ला पर फोन पर सूचना दिहँ, ई बतइलिये हल ।”
“मद्रास में तो तोर रिश्तेदार के घरवे में ठहरे वली हका न ?”
“हाँ, ओक्कर मौसी के हुआँ घर हइ ।”
“फेर चिन्ता कउन बता के ? उनकर मौसी के घर में फोन हकइ ?”
“नयँ .... ठीक हइ, छोड़ऽ ई बात के । होके अइतइ । फोन नयँ आल मतलब कल चिट्ठी अइतइ ... हमरा चलते सबके मूड खराब नयँ होवे के चाही । पत्ता फेंकऽ ।” - माधव बोलल, तकिया के जाँघ पर रखते-रखते ।
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ओहे दिन; ओहे समय । मद्रास ।
अडयार । कामराज एवेन्यू में ऊ किराया पर के घर के सामने साइकिल खड़ा करके थकके आल त्यागु के ओक्कर माय राजम्मा घबराहट से देखके पूछलका - “कीऽ होलउ बेटा ?”
नन्दिनी के छोटका भाय त्यागु उच्छ्वास छोड़के बइठ गेल ।

“अब पुच्छे ल आउ कोय बच्चल नयँ अम्मा । दीदी के सहेली के ऑफिस वला में से एक्को के बिना छोड़ले पूछलूँ हँ ... कल ओक्कर ऑफिस में कोय बिदाय समारम्भ नयँ हलइ । हमरा सामने झूठ बोलल । साँझ के पाँच बजे ऑफिस खतम होला पर ऊ काहाँ गेल, ई केकरो मालूम नयँ ।”
“ई तूँ कीऽ कह रहलँ हँ ? बिना कहले-सुनले कहूँ जाय वली नयँ .... तोरा कीऽ लगऽ हउ ?”
“ओक्कर ऑफिस के टेलिफोन ऑपरेटर एक बात के जानकारी देलको ह माय !”
“कीऽ ?”
“दीदी के जब-तब कोय टेलिफोन करऽ हलइ । ऊ ओरा साथ हँसते-हँसते बात करऽ हलइ ।”
“नयँ काहे हम्मर पेट में .... ?”
“अम्मा, दीदी बहुत फिटफाट पसन्द वली ।”

“कोय चारा नयँ होला से हमरा देखते रहऽ हल । हम काम चला लेम कहके ओकरा दुरहंकार हलइ । बाउजी नयँ हका । हमरो काम मिलल नयँ । ओहे से ओक्कर बात के हम सब बिना सामना कइले चुप रहते अइलूँ हँ । ओहे से ओक्कर घमंड बढ़ते गेल । केरो साथ प्रेम के चक्कर होत । घर पर बतइला से तूँ नयँ मालूम की-की कहमँ, ओहे से बिना बतइले ओकरा साथ भाग गेल होत ...! जरूरत हउ त देखते रह, ओकरा साथ शादी करके अचानक आके खड़ी हो जइतउ शायद ।”
“हम्मर नन्दिनी अइसन कुछ कर सकऽ हइ ?”
“एकरा से जादहीं कर बइठे के अहंकार ओकरा हउ, अम्मा ।”
“अब की कइल जाय त्यागु ?”
“तूँ ही बताव ।”
“हम्मर बेटी देखाय नयँ दे हके, त पुलिस के शिकायत कइल जाय ?”
“अब घरवे में बइठके अपमान सहम । रस्ता में सबके ढिंढोरा पीटके बताके सबके सामने हँसाय करावे के ? ओक्कर खिस्सा अब छोड़ अम्मा । हम तो हिअउ न । तोर जवाबदारी हमरा पर रहे दे ।” - त्यागु गोस्सा से बोलल ।”

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