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Sunday, June 02, 2013

90. मगही उपन्यास "बिसेसरा" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



बिरायौ॰ = "बिसेसरा" (मगही उपन्यास) - श्री राजेन्द्र कुमार यौधेय; प्रथम संस्करणः अक्टूबर 1962;  प्रकाशकः यौधेय प्रकाशन,  नियामतपुर, पो॰ - घोरहुआँ, पटना; मूल्य - सवा दो रुपया; कुल 82 पृष्ठ ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ, आउ दोसर संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

यौधेय जी मगही शब्द के अन्तिम अकार के उच्चरित दर्शावे खातिर 'फूल बहादुर' में जयनाथपति जइसने हाइफन के प्रयोग कइलथिन ह । जैसे - 'लगऽ' के स्थान पर 'ल-ग' ; ‘रहऽ के स्थान पर र-ह ;  बनऽ के स्थान पर ब-न ; ‘कोसऽ  के स्थान पर को-स इत्यादि । ई मगही कोश में एकरूपता खातिर अवग्रहे चिह्न के प्रयोग कइल गेले ह । हाइफन के प्रयोग लमगर शब्द के तोड़के सही उच्चारण के दर्शावे ल भी कइलथिन ह । जैसे - 'एकजनमिआपन' के स्थान पर 'एक-ज-नमिआपन' ; 'जोतनुअन' के स्थान पर 'जो-तनुअन' ; 'लगवहिए' के स्थान पर 'लग-वहिए' इत्यादि ।

मूल पुस्तक में शब्द के आदि या मध्य में प्रयुक्त वर्ण-समूह 'अओ' के बदल के '' कर देल गेले ह । जइसे - अओरत  के स्थान मेंऔरत’; नओकरी  के स्थान में नौकरी, इत्यादि ।

कुल शब्द-संख्या : 1614

ठेठ मगही शब्द ('' से '' तक) : 
922    पँकइटा     (बाभन मालिक कहलक - हम सब्भे लोग एकक हर के जोतो देबुअ, साल भर के खइहन-बिहन देबुअ आउ घर छावे-बनावे के भार हमरे पर रहल । मल्लिक-मालिक डाँक ठोकलक - त हम दू-दू हर के जोत देबुअ, चार बरिस ले खइहन-बिहन देबुअ आउ रहे लागी पँकइटा के बनल एक कित्ता अप्पन मकान फेर ।)    (बिरायौ॰10.14)
923    पँक-पड़उअल     (भंडरकोनी ओला गबड़वा में दू गो लइकन पँक-पड़उअल में रमल हल । अररवा पर जाके सामी जी पुकारलन - लइकवन डेराएले निअर सकपकाएल पँकवा में से उप्पर होइत गेलइ ।)    (बिरायौ॰35.25)
924    पँजरा     (लंगोट कसले बिसेसर आउ मकुनी अखाड़ा में उतरल । ताल ठोक के दुन्नो हाँथ मिलौलक आउ ढिब गेल । मकुनी एगो रेला देलकइ, बिसेसरा ठेलाएल गेल । बिसेसरा मकुनी के आगु मुँहे तीरलक, मकुनी अड़ गेल । बिसेसरा मकुनी के पँजरा में आ गेल, ओकरा टाँग के पीठ पर ले गेल ।; आगु-आगु सामी जी, पिछाड़ी-पिछाड़ी भोलवा । मुसहरी से बाहर होल, खेत के आरी पर चलल । ... सामी जी बइठ गेलन । पँजरे में भोलवा के बइठे पड़ल ।; सोबरनी अकसरे बइठल हल । एक ओछार बरखा बरख गेल हे । भुँइआ ओद्दा हे । सोबरनी अँगुरी से जमीन पर चित्तर तिरित हे । पेंड़-बगात हे, पँजरे में दूगो हरिंग कुदक्का मारित हे ।)    (बिरायौ॰31.9; 33.25; 58.7)
925    पंचइती (= पंचायत)     (आज दू ठो पंचइती होत, एक ठो कसइलीचक में आउ एगो मुसहरी में । भुमंडल बाबू के हड़बड़ी हे, तुरते पंचइती में बइठतन ।; गाँवे के हे सोबरनी आउ सेकरा बिसेसरा दिनादिरिस रख लेलक, एकरो ले बढ़ के गुन्डइ हो हे ? आजे पंचइती हो जाए के चाही, अइसनो बात के घर न करबें त केकरो बहु-बेटी के इज्जत बचत ?; इ का कि जात में बिआह नहिंओ होला पर आन जात से बिआह करला पर डंड लेवल जाए, पंचइती करके बेहुरमत कएल जाए ।)    (बिरायौ॰78.1, 2, 8, 23)
926    पंचित     (सउँसे कसइलीचक में सब ले खनदानी हथ भुमंडल बाबू । केउ उठा दे तो अँगुरी । धन केकरो होए, जमिनदारी केकरो होए, बाकि पंचित में भुमंडले बाबू के माथा पर फेंटा बँधाऽ हे, जेकरा चाहथ उठा लेथ, जेकरा चाहथ हिगरा देथ ।; कुरमी के जात पंचित होए, चाहे भुमिहार के, भुमंडल बाबू जरुरे रहतन ।)    (बिरायौ॰16.17, 20)
927    पंडी जी (= पंडित जी)     (पुन्ना पाँड़े अएलन । बोललन - अपना-अपना किताब इँकासी जा । बिसेसरा पुछलक - पंडी जी, हमनी सब ले ओछ अगत काहे समझल जा ही ।  हमनी ले बढ़ के कमासुत, सुद्धा, सुपाटल पुरमातमा आन कउन जात हे ?)    (बिरायौ॰11.18)
928    पचड़ा     (रतगरे से चुड़कुट्टी सुरु होए, बहरी माँदर धँमसे, पचड़ा गवाए । एक पचड़ा खतम होए आउ भगत भर काबू टिटकारी मारे - "टीन-ट्री-पट-काक-छू !" / लोग कहऽ हथ, भगवान के लीला, इगरहवाँ दिन तीन पचड़ा गवाऽ चुकल हल, भगत जइसहीं जोर से टिटकारी मारलक, 'टीन-ट्री' कहलक कि मालिक बेटी भौंकल, ओकर हाँथ से मूसर फेंकाऽ गेल आउ आँख में जोत एकबएग आ गेल ।)    (बिरायौ॰9.10, 11, 12)
929    पचड़ा-जोगिड़ा     (गयाजी देन्ने के एगो झुनकुट बूढ़ अपिआ मुसहर संकराँत में पुनपुन्ना नद्दी किछारे लगे ओला राजघाट मेला में आल हल, भारी भगत हल । टोना-जादू, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर, पचड़ा-जोगिड़ा सब्भे कुछ में पम्पाइल ।)    (बिरायौ॰7.6)
930    पछिआ     (पह फट्टे खनी असमान एकदम्मे निबद्दर हल, बाकि तुरंते बदरी कचरिआए लगल । लफार पछिआ उठल । देखित-देखित में चउगिरदी करिवा बादर तोप देलक । बड़का-बड़का बूँद टिपटिपावे लगल ।; झरक निअर दिन । दिन भर लफार पछिआ । अदमी लुक्कल रहे दिन भर । साँझ होए त अदमी के जान में जान आवे ।)    (बिरायौ॰41.8; 46.8)
931    पछिआरी     (भोलवा पछिम रुखे सोझ होल, सामी जी मुसहरी देने चललन । पछिआरी निमिआ तर तीन-चार गो बुतरु कउड़ी-जित्तो खेलित हल ।; आज मुसहरिआ में साभा हलइ होवे ला बाकि अबके सुनली कि बिसेसरा पर चाँप चढ़वे ला पुरवारी आउ पछिआरी मुसहरिआ के लोगिन आज पंचित करे गेल हे ... । सरूप कहलक ।)    (बिरायौ॰34.12; 80.15)
932    पछिमहुते     (भगत के नहकारे के जगहा न रह गेल, नओकेंड़िआ बगइचवा में डेरा दे देलक, पुरुखन के पिढ़ी पालकी पर लावल गेल । बगइचवा से पछिमहुते एगो नीम के पेंड़ हल, ओही तर पिढ़िअन के थापल गेल ।; मुसहरिआ से उतरहुते पछिमहुते थोड़िक्के दूर पर एगो पीपर के अजगाह झँमाठ दरखत हे । दुन्नो इआर हुँए बइठ के गप्प-सड़ाका करे लगल ।)    (बिरायौ॰10.2; 18.20)
933    पटपटाना     (गँउआ के लोगिन बोलित हलइ कि कमनिस कमिअन के बहका दे हे आउ रोपनी चाहे टँड़वाही बेजी गिरहत के काम छोड़वा दे हे । गिरहत्ती चौपट होए से अकाल हो जा हे आउ सब केउ अन्न बेगर पटपटा के रह जा हे ।)    (बिरायौ॰19.12)
934    पटरी (~ बइठना/ खाना = मेल-मिलाप होना, मन या विचार मिलना)     ( तोर पुरुख जगत सीधा मरदाना तो गाँओ-जेवार में दीआ लेके ढुँढ़े-खोजे से कहुँ मिलत आउ सेकरा तुँ उगटा-पुरान करे हें ! ओकरा ले बेसी सुद्धा, साध, सुपाटल आउर के हे, कह तो ... बाकि पटरी बइठे के बात । हाँ, पटरी तोरा भोलवा से कहिओ न बइठलउ ... तोरे निअर हमरा अप्पन पहिल मरदाना से न बनऽ हल ।; तोर मरदाना साधु हउ, पटरी जरुरे बइठतउ ...।)    (बिरायौ॰6.7, 8, 12)
935    पट्टी     (भगत के छओ गो कमासुत लइकन फिन बसे ला आएल हे, इ बात के खबर सँउसे कसलीचक में हो गेल । सब्बे पट्टी के लोग जुटल । बाभन मालिक जिक धर लेलक - भगत अप्पन लर-जर साथे हमरे जमीन में बसे ।; त तो खुब्बे भलाई करतउ, गिरहत के अन्न खतउ, से हमनी के पट्टी रहतउ ।)    (बिरायौ॰10.8; 21.24)
936    पठरू     (सउँसे गाँव में घुम आव, बाकि एक्को मेहरारू के मुँह खिलता न पएबें । सब अज्जब गिलटावन पठरू निअर मधुआल बुझइतउ !)    (बिरायौ॰53.24)
937    पड़ी (= परी, पर; हिंआ ~ = यहाँ पर)     (- इ घड़ी हिंआ का करित हें ? - घरवा में मच्छर से निंदे न आल, त हउआ गुने हिंआ पड़ी चल अइली । - घरवा में सुतना जरूरी का हलउ, इ तो चाँप न हलउ कि सड़ चाहे गल, रहे पड़तउ घरे में । अँगनवा में सुत रहतें । - इँजोरिवा में हिंआ पड़ी अन्छा लगऽ हइ हो ।; हम एकर बेटा हिक ? तबहिंए उनका इआद पड़ल - साल भर पहिले उ एही बुढ़िआ के दुआरी पर से भगा देलन हल । बइठ गेलन उ हुँए पड़ी ।)    (बिरायौ॰59.6, 10; 80.4)
938    पढ़ल-लिक्खल (= पढ़ल-लिखल)     (दू रोज से मुसहरी में दू-दू गो पठसाला चल रहलवऽ हे, पाँड़हु चलावित हे आउ एक ठो नाया सामी जी आएल हे । बड्डी पढ़ल-लिक्खल हे, दू हजार महिना के नौकरी छोड़ के आएल हे ।)    (बिरायौ॰18.6-7)
939    पढ़ल-लिखल     (बिसेसरा भरभराए लगल - आज भोलवा के टोकारा देलिवऽ हल मंगरु चा । कहलिअइ - "देख भोलवा, जिनगी अकारथ जतउ, पढ़वे-लिखबें त लोक-परलोक दुन्नो बनतउ । लाठी-बद्दी के जमाना गेलउ, नाया जमाना में ओही अदमी हे, जे पढ़ल-लिखल हे, देस-परदेस के खबर रक्खे हे ... ।")    (बिरायौ॰13.6)
940    पत (= प्रति, प्रत्येक, हर)     (कटनी होतहीं गिढ़थ उलट गेल - बेगर रुपइआ भरले पैदा कइसे ले जएबऽ, खइहन के डेओढ़िआ लगतवऽ । अनाज के भाव एकदम गिरल हे । जउन बेरा अनाज देलिवऽ हल, मसुरी पत मन अठारह रुपइआ बिक्कऽ हल, इ घड़ी बारह हे, डेओढ़िआ देबऽ तइओ हमरा डाँड़े लगित हे, बाकि हरवाहा गुने कम्मे लेइत हिवऽ ... ।; पंडी जी, पत मुसहरी के दू-चार अदमी पत बरिस भाग के दूसर मुसहरी में सरन ले हे । कोई अइसन उपाह बताइ जे में केकरो जनमभुँई न छोड़े परे ।; छोड़ी दस मन, आठे मन के हिसाब जोड़ी । साल में दू सो दिन खट्टे हे कमिआ, आठ मन के दाम सवा सो भेल, दस आना पत दिन पड़ल ।)    (बिरायौ॰14.16, 26; 15.8)
941    पनपिआर (= पनपियाड़)     (छुट्टा मजूर के मजूरी खुल गेल, डेढ़ रुपइआ आउ पा भर अनाज पनपिआर में । ८ घंटा के खटइआ । मेढ़ानु के मजूरी सवा रुपइआ । कुरमी लोग तो अपनहुँ हर जोत लेत हल, बाकि भुमिहार के हर छूने न । से बाभनो जोतनुआ नओ जाना बेस बुझलक ।)    (बिरायौ॰74.16)
942    पम्पाइल (= पम्पाल, पंपाल; तगड़ा, पुष्ट, मोटा, स्थूल)     (गयाजी देन्ने के एगो झुनकुट बूढ़ अपिआ मुसहर संकराँत में पुनपुन्ना नद्दी किछारे लगे ओला राजघाट मेला में आल हल, भारी भगत हल । टोना-जादू, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर, पचड़ा-जोगिड़ा सब्भे कुछ में पम्पाइल ।)    (बिरायौ॰7.6)
943    परगटाना (= प्रकट करना)     (- जी न सरकार, हमनी के जनेउ के दरकार न हे । - असल चीज मन हे, मन के किदोड़ी हटाना चाही, घुरची खोलना चाही, पढ़ना-लिखना चाही ... । आउ लोग अप्पन-अप्पन राए परगटावऽ ।)    (बिरायौ॰54.20)
944    परजात     (का जात का परजात, सब केउ दुसे लगल बजरंग आउ भुमंडल बाबू के । - हरसट्ठे छोटजतिअन से न ढिबना चाही । जोतनुआ लोग कहलक ।; कइसन घिनावन हे पुरान नओंनेम कि जे कोई परजात से सादी करे ओकर जन-फरजन के हिरदा में बरोबर हिनजइ के काँटा चुभित रहे । समाज में नाया विचार-कनखी छवाड़िक लोग न लावत त आउ कउन लावत ।)    (बिरायौ॰75.24; 78.24)
945    परतक     (एही सब तो मातवरी-मेहिनी के चिन्हा हइ । इ सब के परतक कइसे करबें तुँहनी । तुँहनी साँझ के झुमर गएबें, अरमना करबें, हिंआ सास-पुतोह के महभारत सुरु होतउ । तुँहनी रोपनी-डोभनी करबें, कटनी करबें आउ साथ हीं साथ गीतो गएबें । हिंआ कोकसासतर आउ तोता-मैना बाँचल जतउ ।)    (बिरायौ॰65.23)
946    परमेसरी (~ बिद्दा)     (गयाजी देन्ने के एगो झुनकुट बूढ़ अपिआ मुसहर संकराँत में पुनपुन्ना नद्दी किछारे लगे ओला राजघाट मेला में आल हल, भारी भगत हल । टोना-जादू, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर, पचड़ा-जोगिड़ा सब्भे कुछ में पम्पाइल । परमेसरी बिद्दा में लमहर-लमहर ओझा-बढ़ामन के उ नँ गदानलक मेला में ।)    (बिरायौ॰7.6)
947    परसंसना (= प्रशंसा करना)     (केते लोग जे अपने तो एक्को खेर न उसकाऽ सकथ आउ जे खून-पसीना एक कर रहल हे ओकरा दुसतन । ओइसन अदमी के हम परसंसम कइसे ।)    (बिरायौ॰63.11)
948    परसना     (पुछतइ - चाउर हइ ? हम्मर मुँह से इँकसतइ - न कउची हइ ? दूध-दही-चाउर-दाल-तीना । जो परस के खा ले गन, खीर बनइलुक हे ।)    (बिरायौ॰22.19)
949    पराछुत (~ पड़ना)     (बेचारी सोबरनी के केत्ता चोटी कहली - ए गे सोबरनी, तोरा न बनतउ भोलवा से, ओकरा पर बड़जतिअन के पराछुत पड़ल हउ साँझे-बिहने माउग के लतवस्से के ।)    (बिरायौ॰77.18)
950    परास (= पलास, टेसू, सेमल)     (बेचारी सोबरनी के केत्ता चोटी कहली - ए गे सोबरनी, तोरा न बनतउ भोलवा से, ओकरा पर बड़जतिअन के पराछुत पड़ल हउ साँझे-बिहने माउग के लतवस्से के । बाकि हम्मर बात पर कान न देलक । अप्पन देह के भुँज देलक बिख के घम्मर में । हाए, सउँसे जिल्ला में बरऽ हल सोबरनी, से देखते-देखते लट के परास हो गेल ।)    (बिरायौ॰77.21)
951    परास (सुखके ~ होना)     (सामी जी निहा-फींच के निहचिन्ते होलन हल, से सोबरनी पहुँचल । सुइआ दिआवे ला सोबरनी अंगरखवा के हटा के बचवा के देहवा उघारकइ । तनिक्को गोस न हलइ, खाली ठठरी बचित हलइ । बोलल - एन्ने सुख के परास हो गेलइ मालिक । खाली सँसरिए तो बचित हइ ।)    (बिरायौ॰37.21)
952    परोजन (= प्रयोजन)     (जी न सरकार, खाली दू मुट्ठी पोरा मिल जाए । खाए-पीए ला कोई झंझट-पटपट के परोजन न हे, हे थोड़िक चूड़ा ।; पाँड़े के भिरे देखके पुछलक - "पुजो का करे पड़तइ ?" - "अरे चल, नाया जमाना के इस्कुल में एकर परोजन न हउ । ए रे बिसेसरा, एकरा ककहरा लिख देहीं तो ।")    (बिरायौ॰7.18; 13.20)
953    पलखत (= छुट्टी; आराम का समय; एक काम समाप्त होने और दूसरे के शुरू होने के बीच का समय; अवसर, मौका)     (इ मत कह भाई । सब्भे जोतनुअन के सुर बिगड़ल हउ, साइत के बात हे । तुँ तो पलखत पाके तड़काऽ-पड़काऽ देतहीं, आउ हिंआ पड़तइ हल सउँसे मुसहरी पर । बेफएदे कुन्नुस बढ़ावे से कुछ मिले-जुले ला हइ ? हट जएबें त ठंढाऽ जतइ ।)    (बिरायौ॰43.2)
954    पलाइस (= पालिश; खुशामद, खुश करनेवाली बोली; पीठपोंछी)     (घंटन ले लोग गोरमिंट करित रहल । बिसेसर चुप्पी नाधले रहल । एक अदमी बात-चलउनी करे, दूसर ओकरा पलाइस करे, चाहे कट्टिस करे ।)    (बिरायौ॰67.6)
955    पलोटन     (बुतरुआ के गोदी लेके उ पच्छिम मुँहे बढ़ल । सामी जी जरी सुन पुरुब बढ़ के उत्तर ओली गलिआ धर लेलन, कोई भेंटलइन न । दू पलोटन सउँसे मुसहरिआ के चउकेठ देलन, गलिए-गलिए चाल देलन, बाकि केउ पर नज्जर न पड़लइन ।)    (बिरायौ॰35.21)
956    पसन (= पसीन; पसन्द)     (अब तुँ इ बताव कि तोरा कउन तरज के इंतजाम मुलक में पसन हउ, खेत-सरकार ले ले कि छोड़ दे । रूसो, लिंकन, टाल्सटाय, गान्ही जी आउ नेहरू जी से लेके हिटलर आउ लेनिन तक के विचार आउ नओनेम (सिद्धान्त) तोरा जनाऽ चुकली हे ।)    (बिरायौ॰62.9)
957    पसिखाना     (बिच्चे मुसहरी एगो नीम के पेंड़ फुलाइत हे । चार गो गबड़ा । सब घर बेकेंबाड़ी के । पुरब तरफ एगो तेली के दुकान, सटले पसिखाना । पसिखनवा के पिछुत्ती एगो मिट्टी के चबुतरा लिप्पल-पोतल ।)    (बिरायौ॰11.11)
958    पसिटोला (< पासी + टोला)     (बेर डूब रहल हल । भोलवा पसिटोला देने जा रहल हल, रहवे में भेंटाल बिसेसरा ।; पसिटोलवा पर बड़ी भीड़ लगल हलइ । दुरे से अकाने से बुझलइ जइसे पिआँके-पिआँक में कहा-सुन्नी हो रहलइ होए ।)    (बिरायौ॰18.1, 14)
959    पसिटोली     (- तुँ पसिटोली में रहऽ ह ? - हाँ, इ बुतरुआ के कान बहऽ हइ । - एकरा रूइ से नीमन से साफ करके नित्तम रोज नीम के पत्ता के रस दू ठोप चुआऽ देल करऽ ।)    (बिरायौ॰32.14)
960    पसेरी     (हुँए तो जाइए रहली हे ... गिढ़थ हीं । खरची घटल हइ, एकाध पसेरी अँकटी-खेसारी मिल जतइ, त चार रोज खेपाऽ जतइ ... चल रे ... ।)    (बिरायौ॰35.18)
961    पह (= पौ)     (पह फट्टे खनी असमान एकदम्मे निबद्दर हल, बाकि तुरंते बदरी कचरिआए लगल । लफार पछिआ उठल । देखित-देखित में चउगिरदी करिवा बादर तोप देलक । बड़का-बड़का बूँद टिपटिपावे लगल ।)    (बिरायौ॰41.7)
962    पहिल     ( तोरे निअर हमरा अप्पन पहिल मरदाना से न बनऽ हल । त हम सोचली कि अपनो जिनगी के जराना आउ दुसरो के साँस न लेवे देना ठीक नँ हे । ओहु माउग कर लेलक हमहुँ मरदाना कर लेली ।)    (बिरायौ॰6.8)
963    पहिलहीं     (आज सँउसे बगइचा उजह गेल हे, एगो बूढ़ा पेंड़ बचवो करऽ हल त ओकरा सरकारी होए के डरे पहिलहीं लोघड़ाऽ के रुख-रोपा-सत्ता मनावल गेल ।)    (बिरायौ॰11.7)
964    पहुँच (~ वला अदमी)     (अकलु के ठकमुरती लगल हलइ - बाकि ओस्ताद, समिआ का तो बड़ पहुँच ओला अदमी हइ, कहुँ बझा-उझा देलक त ? - हुँह, तुँ डेराऽ गेलऽ । देखऽ ह का, हम हिवऽ न, चट्टे-पट्टे जा ... ।)    (बिरायौ॰45.7)
965    पहुनइ     (पहुनइ कर आवऽ । तोरा से भेंट करके दिल खुस हो गेल । चलूँ, अब निहाहुँ-धोआए के बेरा होल । उक्खिम दिन हे, अब झरके आवे में कउन बिलम हे ।)    (बिरायौ॰37.14)
966    पाँड़े     (पुन्ना पाँड़े अएलन । बोललन - अपना-अपना किताब इँकासी जा । बिसेसरा पुछलक - पंडी जी, हमनी सब ले ओछ अगत काहे समझल जा ही ।  हमनी ले बढ़ के कमासुत, सुद्धा, सुपाटल पुरमातमा आन कउन जात हे ?)    (बिरायौ॰11.18)
967    पाट (= पार्ट)     (आज के खेला में जसिआ सोबरनी के पाट बड़ी बेस ढंग से करलक । जसिआ सोबरनी से कम सुत्थरो, सवांगिन न हे ! ओइसने गितहारिन । खेला के कोई बनउरी मत समझिअ ।)    (बिरायौ॰31.23)
968    पाड़ना (सोंस ~)     (रात भर भगतवा सोंस पाड़लक, मुँहलुकाने में जतरा बनवे लगल -  त हम अब चलित ही, आपके भलाई न भुलाम ।)    (बिरायौ॰7.19)
969    पातर-दुबर (= दुबर-पातर)     (एक पट्टी सामी जी उज्जर कपास चद्दर ओढ़ले जम्मल हथ । नाटा खुँटी के, पातर-दुबर, मुठान चकइठ, पर नाक चाकर, सामता रंग, सुकवार । सुत्थर न त छँइछनो न । माथा, मोंछ, डाढ़ी सब घोंटएले ।)    (बिरायौ॰20.17)
970    पाना-उना     (मुखिआइन हद्दे-बद्दे निछक्का घीउ में कचउड़ी छानलन, हलुआ घोंटलन, पंडी जी पा-उ के ढेकरलन ।)    (बिरायौ॰46.18)
971    पानी-उनी     (अच्छा हइ, सब कोई जनेउ ले लेतइ त अदमी छोटजतिआ गिनाऽ हल से अब न गिनात । पनिओ-उनिओ चले लगतइ । कमेसरा बहू गते सिन बोलल ।)    (बिरायौ॰54.13)
972    पानी-काँजी     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।)    (बिरायौ॰5.7)
973    पारक     (- चललें का ? आज पारक में किरतन होतउ, अएबें न ? - न हो, बड़ी रात हो जा हइ । नकली गीत हमरा न अच्छा लगे । - नकली गीत कइसन हो हे हो ?)    (बिरायौ॰55.21)
974    पारना (चाल ~)     ( ओन्ने भोलवा के दुहारी पर गिरहत चाल पारलक आउ लाखो बरिस में न ओरिआए ओला बहस ओरिआऽ गेल, जमात उखड़ल आउ लोगिन जन्ने-तन्ने बहरा गेल ।)    (बिरायौ॰29.24)
975    पारा (= बारी)     (ओद्दी-सुखी होत । झिटकी उछलावल जात । गोटी से तय होत कि दुन्नो में के ठाड़ा रहे, के बइठे । अकलु खलीफा अक्किल के बात कहलक - सरकार गोटी से तय हो गेल आउ दूसर-तीसर अदमी कहुँ खड़ा हो गेल त फिन बिसेसरे के पारा आ जा हे ।)    (बिरायौ॰74.4)
976    पारु (= पारू; पड़ा होना, खड़ा न हो पाना, बीमार)     (सुरु बरसात से बेमारी उपटल हे । दू महिन्ना ले लगवहिए उनाह लेलन, एक मन ले आसो-अरिस्ट पी गेलन, सोना फुँकओली, लोहा कुँकओली, बाकि कारन जरी बिचो न होल । ओन्ने झपसी होए त पारु हो जा हलन, उगेन होए त टनटनाऽ जाथ ।)    (बिरायौ॰8.1)
977    पाले (= पल्ले; पास)     (घुरती चोटी ओकरा कसइलीचक के नओकेंड़ी बगइचवा भिजुन झोल-पसार हो गेलइ । बिच्चे बगइचा एगो देओचारा हलइ फुसहा, ठँवे एगो बड़का चाकर कुइँआँ फिन । सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत । हमरा का भूत-परेत के डर-भय हे । पाले चूड़ा हइए हे, फाँक के दू घोंट पानी पी जाम ।; एत्ता तेज हमरा पाले रहत हल त मुसहरी सेती हल !; जेकर पाले इ घड़ी दस-बीस हजार जमा हइ उ कइसे केकरो बदतइ अपना आगु । तुँहनी तो छुच्छे ठहरलें, हमनिओं के अदमी का गदानित हथिन भुमंडल बाबू ।)    (बिरायौ॰7.10; 12.22; 66.15)
978    पिअँक्कड़ (= पिआँक; पियक्कड़)     (हमनी ले बेसी कमासुत तो उ लोग नहिंए हथ । केतना लोग कहऽ हथ कि तुँहनी पिअँक्कड़ जात हें, सेइ से इ हालत में पड़ल हें । हमनी थक्कल-फेदाएल कहिओ दू चुक्कड़ निराली पीली, त पिआँक हो गेली ।)    (बिरायौ॰69.20)
979    पिआँक     (हमनी ले बेसी कमासुत तो उ लोग नहिंए हथ । केतना लोग कहऽ हथ कि तुँहनी पिअँक्कड़ जात हें, सेइ से इ हालत में पड़ल हें । हमनी थक्कल-फेदाएल कहिओ दू चुक्कड़ निराली पीली, त पिआँक हो गेली ।)    (बिरायौ॰69.21)
980    पिछड़लपनइ     (सरकारी नौकरी हल, छोड़-छाड़ के हिंआ हइली । जल्दी से जल्दी हम इ टोला के गरीबी आउ पिछड़लपनइ के भगा देना चाहऽ ही । हम नाया मुसहरी के नकसा तइआर करली हे ।)    (बिरायौ॰21.8)
981    पिछलत्ती (~ देना)     (गोहार चढ़ आएल । दुतरफी ढेलवाही होए लगल । बिसेसर भइआ कहलन - मर मिटना हे, बाकि पिछलत्ती न देना हे । पलटुआ एकबएग ललकल आगु मुँहें, आउ भुमंडल बाबू के गोहार भाग चलल ।)    (बिरायौ॰75.12)
982    पिछाड़ी     (देखऽ न, हमरा से पुछलक न मातलक आउ का जनी केकरा तो साथे सेनुर देके आएल हे । हिंआ अब सउँसे मुसहरी भात माँग रहल हे । एँसो हिंआ धान मुआर कटाल हल । भात न देही त सब चटइआ से काट देत । फिनो पिछाड़ी मिले में बेगर डंड-जुरमाना के गुजारे न हे ।)    (बिरायौ॰43.22)
983    पिछाड़ी-पिछाड़ी (आगु-आगु ... ~)     (आगु-आगु सामी जी, पिछाड़ी-पिछाड़ी भोलवा । मुसहरी से बाहर होल, खेत के आरी पर चलल । ... सामी जी बइठ गेलन । पँजरे में भोलवा के बइठे पड़ल ।)    (बिरायौ॰33.24)
984    पिछुआना     (आगु-आगु बजरंग, पिछु-पिछु लमगुड्डा आउ सउँसे चोपचक के लोग पिछुअएले ... ।; भुमंडल बाबू पिछुआऽ गेलन, पलटुआ आ तोखिआ पिठिआठोक रगेदित हे । बिसेसरा एकसिरकुनिए धउग रहल हे । मन्नी भगतिनिआ के टँगरी में का जनी कहाँ के बल आ गेलइ, ओहु हुँपकुरिए दउगित हे ।)    (बिरायौ॰49.3; 75.15)
985    पिछुत्ती     (बिच्चे मुसहरी एगो नीम के पेंड़ फुलाइत हे । चार गो गबड़ा । सब घर बेकेंबाड़ी के । पुरब तरफ एगो तेली के दुकान, सटले पसिखाना । पसिखनवा के पिछुत्ती एगो मिट्टी के चबुतरा लिप्पल-पोतल ।)    (बिरायौ॰11.11)
986    पिठिआठोक     (सामी जी बुझलन कि कुतवा उनका पर धउगत अब । से उ ललटेन के बीग-उग के भाग चललन । बेचारे सुकवार अदमी, अइसन ठेंस लगलइन कि हुँपकुरिए गिर पड़लन । लोग धउगल पिठिआठोक - डेराइ मत सामी जी ।; जइसहीं उ लौटे लगल कि भोलवा पहुँचल - सरकार, अपने खीस-पीत करली से मन दुखाऽ गेल, चल अइली । चलती हल बाकि पलटु के बहिनी पिठिआठोक चल आल हे । अब हम कउन मुँह लेके हुआँ जा ही !; भुमंडल बाबू पिछुआऽ गेलन, पलटुआ आ तोखिआ पिठिआठोक रगेदित हे । बिसेसरा एकसिरकुनिए धउग रहल हे । मन्नी भगतिनिआ के टँगरी में का जनी कहाँ के बल आ गेलइ, ओहु हुँपकुरिए दउगित हे ।)    (बिरायौ॰24.8; 43.27; 75.15)
987    पिठिआठोके     (लइकवन सोझे दक्खिन मुँहे धउग गेलइ, दू घर के बाद ओला घरवा के दुहरिआ पर ठाड़ हो गेलइ । सामिओ जी पिठिआठोके पहुँचलन ।)    (बिरायौ॰36.4)
988    पिठिआना (= पीठ पीछे आना)     (आइँ हो पलटु, बेलिआ खाली तोरे बहिन हउ, हमनी के बहिन न हे ? बोल तो ।  इ चुप्पेचाप रख ले आउ चल । पलटु से जवाब न चलल । हार मान के गोहुँमा के चदरवा में बान्ह के पिठिऔलक ।)    (बिरायौ॰26.20)
989    पिढ़ी     (सब केउ लोंदा भगत के कसइलिए चक में रहे ला कहे लगल, मल्लिक-मालिक अपनहुँ घिघिअएलन, बाकि लोंदा भगत 'नँ' से 'हाँ' न कहलक । कहलक - सरकार, हम्मर पुरखन के जहाँ पिढ़ी हे, हुँआँ से हम कइसे हट सकऽ ही, हुँआँ दीआ-बत्ती के करत ? सलिआना के चढ़ावत ?; भगत के नहकारे के जगहा न रह गेल, नओकेंड़िआ बगइचवा में डेरा दे देलक, पुरुखन के पिढ़ी पालकी पर लावल गेल । बगइचवा से पछिमहुते एगो नीम के पेंड़ हल, ओही तर पिढ़िअन के थापल गेल ।)    (बिरायौ॰9.20; 10.2, 3)
990    पितपिताना     (सोबरनी घर लौटल । भोलवा सत्तु के मुठरी इँगल रहल हल । सोबरनी बुतरुआ के उतार देलकइ, बुतरुआ चुपचाप ठाड़ हो गेलइ । भोलवा बुतरुआ के न बोलौलकइ, न उ ओन्ने बढ़लइ । सोबरनी के जीउ पितपिताऽ गेलइ ।)    (बिरायौ॰33.9)
991    पिनइ     (ताड़ी-सराब के पिनइ के रसे-रसे कमाऽ देना जरूरी हे, पठसाला में सब कोई लइका-सिआन, बच्चा-सरेक, मरद-मेहरारु आवऽ, तुँहनी खाली साथ द, देखऽ हम तुँहनी लागी का करऽ ही ।; निराली के पिनइ तन्दुरुस्ती देवे ओला मानल जाइत हे ।)    (बिरायौ॰21.16; 71.15)
992    पिनकाह (= पिनक्की; पिनक में रहनेवाला, अफीम आदि के नशे से धुत्त; नशे से ऊँघनेवाला)     (पिनकाह अदमी से मन टोके बोले-बतिआए के चाही । अइसे न ।)    (बिरायौ॰55.5)
993    पिपकार (~ पार के रोना)     (पलटु एक-दू पिआली घरउआ दारू पीलक, एगो बोंग लाठी लेलक आउ सल्ले-बल्ले उत्तर मुँहे सोझ हो गेल । पिपरिआ आँटे जाके बइठ रहल । मुसहरिआ में कोई औरत पिपकार पार के रोवे लगलइ । थोड़िक देर बाद रो-कन के चुप हो गेलइ ।)    (बिरायौ॰25.3)
994    पिपनी     (साइत के बात । एक रोज मल्लिक मालिक के बेबिआहल बुनिआ के दहिना आँख में पत्थर के गोली से चोट लग गेल, आँख लाल बिम्म हो गेल । डाकडर-हकीम के कउन कमी हल, बाकि आँख में जोत नहिंए आल । सेंकित-सेंकित आँख के कुल्ले पिपनी गिर गेल, पलक के रंग झमाऽ गेल ।)    (बिरायौ॰9.4)
995    पिराना-उराना     (तोरा मन पर चोट पहुँचे, हमरा केकरो खेत में से एक मुट्ठी झँगरी कबार के खाइत देख के । देह पिराएल-उराएल, आउ कहुँ दू चुक्कड़ फाजिल पी लेली, तुँ माथा पिट लेलें अप्पन ।)    (बिरायौ॰41.22)
996    पिरित (= प्रीति)     (इ देखऽ बिसेसरा के । कइसन गोजी लेखा छर्रा जवान हे, एकइस बरिस के छौंड़ हे । अइँठल बाँह, कसरतिआ देह । लाठिओ-पैना में माहिर हे । तीन बरिस में तीन लड़की से पिरित लगौलक-तोड़लक हे ।)    (बिरायौ॰30.14)
997    पीअर (= पीला) (दह-दह ~)     (सोबरनी (दह-दह पीअर लुग्गा, हरिअर कचनार झुल्ला पेन्हले) अबीर लेके झाँझ झँझकारित आगु बढ़ल । बिसेसरा के लिलार पर अबीर लगौलक आउ झुम्मर उठौलक ।; भोलवा से बेचारी के पटरी न बइठे से जिनगी कोरहाग हो गेलइ हल । पीअर देह, देह में एक्को ठोप खून न । भला के दिन के हइ छउँरी, से लगइ कि अधबएस हे ।)    (बिरायौ॰31.14; 53.9)
998    पीठ-लेटउनी     (तोखिआ - अरे तुँ तो ठठलें हल, घंटन ले तर-उप्पर होइत रहलें, हमरा तो बीसे मिनट में चित कर देलकइ हल । अब बिसेसर हाँथ मिलावत । देखऽ चौगिरदी के सब्भे नामी-गिरामी लड़ंतन के उ पीठ-लेटउनी कर चुक्कल हे ।)    (बिरायौ॰30.27)
999    पीना-उना     (सावन-भादो में चार घोंट अहरी के अन्डर बोए पानी के अस्तालक पर सगर दिन लप-निहुर के बरखा-बुन्नी में भींज-तीत के रोपा-डोभा करम हँम, आउ इ जुअनिआ-मुना पसिनिआ के फेर में पइसा जिआन करत, पी-उ के गारी-गुप्ता करत ।; पढ़ना-लिखना जुरला के हे । अब दिन भर खट्टम त साँझ के दू चुक्कड़ पी-उ के गाएम-बजाएम । अब बएसो तो न हइ सरकार ।)    (बिरायौ॰5.12; 37.2)
1000    पीपर (= पीपल)     (मुसहरिआ से उतरहुते पछिमहुते थोड़िक्के दूर पर एगो पीपर के अजगाह झँमाठ दरखत हे । दुन्नो इआर हुँए बइठ के गप्प-सड़ाका करे लगल ।)    (बिरायौ॰18.20)
1001    पुछना-मातना     (देखऽ न, हमरा से पुछलक न मातलक आउ का जनी केकरा तो साथे सेनुर देके आएल हे । हिंआ अब सउँसे मुसहरी भात माँग रहल हे । एँसो हिंआ धान मुआर कटाल हल । भात न देही त सब चटइआ से काट देत ।)    (बिरायौ॰43.18)
1002    पुछाना (= पूछ होना)     (कद्दर तो पलटुओ के बहुत कम गेलइ हे । मँदरा बजावे में पुछाऽ हल, मार पलटु भइआ, पलटु भइआ ! अब सामी जी के रेडिओ सहिए-साँझ से घोंघिआए लगे हे, अब पलटु के माँदर भुआ जएतन !)    (बिरायौ॰52.20)
1003    पुजागी     (गाँइ में खबर पहुँचल, किसिम-किसिम के उटक्करी बात उड़े लगल । - बिसेसरा संत रविदास निअर हरिजन के उठाना चाहे हे आउ पुजागी लेना चाहे हे । साफ एही बात हे । - न न, उ हड़ताल करा के गिढ़त्ती चौपट करे के फेरा में हे ।)    (बिरायौ॰72.18)
1004    पुतोह     (अगे, खाली कहे ला सब बड़जतिआ हइ, जानलें ? बिहने से लेके निसबदिआ ले सास-पुतोह, ननद-भौजाई, बाप-बेटा के महभारत । गाड़ी-गुप्ता झोंटा-झोंटउअल, सरापा-सरापी । कहुँ पुतोह के इरखा पर सास फँसरी लगावत, कहुँ सास के साँसत से उबिआऽ के पुतोह बिख पीके जान हतत ।)    (बिरायौ॰53.20)
1005    पुतोहिआ (= पुतहिया, पुतहू; पुत्रवधु)     (- गँउआ के सरुप के पुतोहिआ आज आ गेलइ, तरुआ अबहीं न अलइ हे । / - त अब का होतइ माए । सरुप रहे देतइ अपना हीं ! /- रहे देतइ ? अरे अपने बोला के लएबे करकइ हे कातो आउ ?)    (बिरायौ॰6.19)
1006    पुनपुन्ना (= पुनपुन नदी)     (गयाजी देन्ने के एगो झुनकुट बूढ़ अपिआ मुसहर संकराँत में पुनपुन्ना नद्दी किछारे लगे ओला राजघाट मेला में आल हल, भारी भगत हल । टोना-जादू, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर, पचड़ा-जोगिड़ा सब्भे कुछ में पम्पाइल ।)    (बिरायौ॰7.4)
1007    पुरबिल्ला (= पूर्वजन्म)     (बढ़म लेख न टरे बिसेसर । इ सब पुरबिल्ला के कमाई हे ... ।; भोलवा बोलल - हम तोरा आज ले तनिक्को सुन सुख न पहुँचा पउली । हमरा बड़ा मलाल हे । ... सब पुरबिल्ला के कमाई हे ।; त सेइ समिआ हिंए जम्मल रहतइ गे । देखिहें, एकाद महिन्ना में सोबरनी साथे न इँकस गेलउ हे त कहिहें । रुपइवा दे हइ त उ बोर न हइ त आउ का । पुरबिल्ला के कमाइ रक्खल हइ समिआ हीं ।)    (बिरायौ॰15.12; 41.20; 54.3)
1008    पुरमातमा (= परमात्मा)     (पुन्ना पाँड़े अएलन । बोललन - अपना-अपना किताब इँकासी जा । बिसेसरा पुछलक - पंडी जी, हमनी सब ले ओछ अगत काहे समझल जा ही ।  हमनी ले बढ़ के कमासुत, सुद्धा, सुपाटल पुरमातमा आन कउन जात हे ?)    (बिरायौ॰11.20)
1009    पुरवारी, पुरबारी     (बिच्चे मुसहरी एगो नीम के पेंड़ फुलाइत हे । चार गो गबड़ा । सब घर बेकेंबाड़ी के । पुरब तरफ एगो तेली के दुकान, सटले पसिखाना । पसिखनवा के पिछुत्ती एगो मिट्टी के चबुतरा लिप्पल-पोतल । घरवन के करे में सूअर के बखोर । पुरवारी बगइचवा में एगो उजड़ल घर जेकर ओटा बहारल-सोहारल ।; - अगे, कातो पुन्ना पँड़वा पुरबारी मुसहरिआ में सब्भे के जनेउ देलकइ हे आउ उतरवारिओ मुसहरिआ में जनेउ देवित हइ ! - तोरो हीं लेत्थुन का ? - मर तोरी के, सब कोई लेवे करतइ त उ न काहे लेत्थिन !; आज मुसहरिआ में साभा हलइ होवे ला बाकि अबके सुनली कि बिसेसरा पर चाँप चढ़वे ला पुरवारी आउ पछिआरी मुसहरिआ के लोगिन आज पंचित करे गेल हे ... । सरूप कहलक ।)    (बिरायौ॰11.12; 54.8; 80.15)
1010    पुरवा-साठ (< पूर्व + साक्ष्य) (= संबंधित व्यक्तियों को आमने-सामने कर पूछताछ; आमने-सामने की गवाही) (~ के झंझट में पड़ना)     (- त अब चलूँ, दीदी । बलमा बहू उठ गेल । बड़ी देर होल । - जो न भाई । बाकि देख एक बात कह दिलु, केकरो से इ खिसवा भुलिओ के न दोहरइहें, न तो बेकार अदमी पुरवा-साठ के झंझट में पड़त ।)    (बिरायौ॰61.21)
1011    पुरान (= पुराना)     (मोरहर नद्दी के अरारा पर एगो डबल मुसहरी । लोग कहऽ हथ कि कसइलीचक के चारो मुसहरिआ में सबले पुरान अग्गिनकोनी मुसहरिआ जे दखिनवारी कहल जाहे, सिरिफ एक्के सौ साल पुरान हे ।)    (बिरायौ॰7.2, 3)
1012    पुरिआ (= पुड़िया) (पुरिवा < पुरिआ+'आ' प्रत्यय+वकार आगम)     (दवइआ के पुरिवा दहिना हँथवा में से बाँइ हँथवा में ले लेलक, लइकवा के अँचरिआ से झाँप लेलक । थोड़िक दूर आके घुर के सामी जी देने देखलक, सामी जी जनु कुछ सोंचित हलथिन । न रुक्कल ।)    (बिरायौ॰38.9)
1013    पुरुख (= पुरुष, पति, मर्द)     (तोर पुरुख जगत सीधा मरदाना तो गाँओ-जेवार में दीआ लेके ढुँढ़े-खोजे से कहुँ मिलत आउ सेकरा तुँ उगटा-पुरान करे हें !)    (बिरायौ॰6.5)
1014    पेंड़-बगात     (सोबरनी अकसरे बइठल हल । एक ओछार बरखा बरख गेल हे । भुँइआ ओद्दा हे । सोबरनी अँगुरी से जमीन पर चित्तर तिरित हे । पेंड़-बगात हे, पँजरे में दूगो हरिंग कुदक्का मारित हे ।)    (बिरायौ॰58.6)
1015    पेठाना     (एगे, तोरा सुनाहीं ला करले हलुक, से तुँ बेबात के बात छेड़ देलें । सहजू बाबू के पुतोह एसों बी.ए. एम.ए. पास करकथिन हे, से आल हथिन । रोज हमरा बोलाऽ पेठावऽ हथिन कि मुसहरी के गीत लिखाऽ दे ।)    (बिरायौ॰61.15)
1016    पेन्हना     (नैका गुरुआ बग-बग उज्जर बस्तर पेन्हऽ हइ । भुमंडल बाबू से अंगरेजी में बोले लगलइ त का कहिवऽ, अरे एकदम्म धरधराऽ देलकइ हो ।)    (बिरायौ॰19.15)
1017    पेन्हाना     (हथिआ बउरइलइ कि भागा-भागी मचलइ, / कउन सूरमा ! अब सींकड़ पेन्हौतइ ओकरा कउन सूरमा !)    (बिरायौ॰31.17)
1018    पेरना (हक्कर ~)     (एक बेरी गिलटु के भाई के कंगरेसिआ दुकान के निराली पिए ला एक बरिस ला कट्टिस कर देवल गेल । साही जी गिलटु के पच्छ ले लेलन - निराली पीना तो निसखोरी न हे, एकर घर करना ठीक न हे । एतना उनकर कहना हल कि भुमंडल बाबू गड़गड़एलन - हूँह, इनकर बेटा माउग साथे रिकसा पर पटना में सगरो बुलित फिरऽ हइन आउ इ पंचित के मिद्धी बने ला हक्कर पेरले हथ । चुप रहऽ ।; - चुप रहे हें कि न ? - अरे मारे न रे मुँहझौंसा, तोरे से हमरा दिन निबहे ला हे ! हमरा तुँ जेत्ता पेर लें, फेर पछतएबें ... पेर ले ...।  - अब का खाउँ, इ कुतिआ हमरा दू कोर खाहुँ देवत !)    (बिरायौ॰17.3; 33.14)
1019    पेराना     (बिसेसरा भुनकल- देखलें न स मेहनत के पूजा करे ओला बहादुर के । दस गज धउगहीं में चित हो गेलन ! हिंआ अदमी काम से पेराऽ रहल हे, दू घड़ी दम मारे ला खखनित हे आउ इ आवऽ हथ उरदु-फारसी बुक्के !)    (बिरायौ॰24.12)
1020    पैना (= डंडा)     (सब के मुँह से एक्के कहानी । मंगरु चा के दमाद चइतु पर गिढ़त पैना चला देलकथिन हल, से भाग आएल अप्पन जनमभुँई छोड़ के । सालो के कमाई छोड़ देलक ।; भुमंडल बाबू सुकवार अदमी, ढनमनएलन आउ तीन ढबकनिआ खाके गिर पड़लन बेचारे । पलटुआ पैना चलैलक बाकि इ का ? भुमंडल बाबू के देह पर मन्नी भगतिनिआ गिरल हे ।)    (बिरायौ॰14.1; 75.19)
1021    पोठिआ     (लोगिन बस गेल हुँए, बजे लगल मँदरा रोज बिन नागा । समय के पहाड़ी सोता में दिनन के इँचना पोठिआ रेलाएल गेल निच्चे मुँहे ।)    (बिरायौ॰11.5)
1022    पोतन (= लीपने अथवा पोतने का कपड़े का टुकड़ा; साफ करने का कपड़ा)     (रात खनी करिवा बादर उठल आउ लगल ह-ह ह-ह करे । भित्ती तर सटक के बिसेसरा बचना चाहलक बाकि चोटगर बरखा आउ ठठ गेल । ओकर कपड़ा-लत्ता भींज के पोतन हो गेल, कहाँ जाए ?)    (बिरायौ॰76.8)
1023    पोरसिसिआ (= सांत्वाना या संवेदना; शोक के समय दिलासा दिलाना; मातमपुरसी)     (ओन्ने झपसी होए त पारु हो जा हलन, उगेन होए त टनटनाऽ जाथ । बाकि तोरा से का छिपइवऽ, इ घड़ी तो एकदम्मे लरताँगर हथ । लटपटाए दिआ सुनके कर-कुटुम पोरसिसिओ आ-जा रहलन हे । चलऽ जरी देख-सुन ल, संतोख तो होत ... ।)    (बिरायौ॰8.3)
1024    पोरा (= पोवार; पुआल)     (झोपड़वा में एगो जोतनुआ एगो खटोला पर खरहट्टे गोरथरिआ देन्ने माथ कएले पड़ल हल । बोलल - आवऽ भगतजी, ठहरना चाहऽ ह त हिंए ठहर जा, कोई बात के तकलीफ न होतवऽ । उ गछुलिआ आँटे दू बोझा पोरा रक्खल हइ, लेके पड़ रहऽ, बेसी जुड़जुड़ी बुझावऽ त दिसलाइओ हे, आग ताप ले सकऽ ह ।)    (बिरायौ॰7.14)
1025    पोसिन्दा     (पोसिन्दा (मर्मज्ञ) लोग कहऽ हथ कि अदओं से आज ले मुलुक के लोग बरन-बाँट के कहिओ न मानलक हे आउ जात से बहरी सादी-बिआह बरमहल होइत रहल हे ।)    (बिरायौ॰82.11)
1026    फँड़िआना     (सए हाउ-हाउ गोहुमा के बलवा के ममोड़े लगल । घड़िए-घंटा में दसन कट्ठा खेत के टुंग-टांग के फँड़िआऽ लेलक । चलती-चलाँत एकक मुट्ठा बूँट के झँगरी ले लेवित गेल ।)    (बिरायौ॰26.5)
1027    फँसरी (= फाँसी) (~ लगाना)     (अगे, खाली कहे ला सब बड़जतिआ हइ, जानलें ? बिहने से लेके निसबदिआ ले सास-पुतोह, ननद-भौजाई, बाप-बेटा के महभारत । गाड़ी-गुप्ता झोंटा-झोंटउअल, सरापा-सरापी । कहुँ पुतोह के इरखा पर सास फँसरी लगावत, कहुँ सास के साँसत से उबिआऽ के पुतोह बिख पीके जान हतत ।)    (बिरायौ॰53.19)
1028    फदगोबर     (- तोरा ले जाए ला चाहउ त तुँ जाहीं ! - दुर छिनरी, हम सोहबइ । छँइछँन फदगोबर ... । अलबत्ते तु देखलग्गु छोकड़ी हें, नाया-नाया गदराऽ रहलें हें, तोरे डर हउ ।/ दुन्नो एक्के बेरा खिलखिलाऽ के हँस्से लगल ।)    (बिरायौ॰54.5)
1029    फरहर     (रग्घु भइआ तो न पढ़ल हथ बाकि सौदा के दाम जोड़े में चाहे सूद जोड़े में उनका ले हमनी फरहर का हो गेली हे ।; न चा, तुँ केकरो चार महिन्ना ला सहर में कमाए-खाए ला भेज न द, उ बोले में फरिन्दा हो जा हवऽ कि न । बिसेसर सहर गेलन तबहिंए से बोले-चाले में फरहर हो गेलथुन ।)    (बिरायौ॰28.11, 19)
1030    फरही-फुटहा     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।)    (बिरायौ॰5.9)
1031    फरिआना (लुर-बुध ~)     (पहिले तो तुँ कहऽ हलें कि पढ़-लिख जात त अदमी तनी दवा-बिरो के हाल जान जाएत । ओझा-गुनी के फेरा में न रहत । फलना हीं के भूत हम्मर लइका के धर लेलक, चिलना के मइआ डाइन हे, हम्मर बेटी के नजरिआऽ देलक हे, इ लेके जे रोजिना कोहराम मच्चल रहे, से न रहत । पढ़े-लिक्खे से लुर-बुध फरिआत ।; सोबरनी फरिआल जाइत हइ काहे ? हिरदा में समिआ ला नाया-नाया पिरीत फुज्जित हइ जनु । पिरीत के भोर जिनगी के इँजोर कर दे हे न ?)    (बिरायौ॰29.7; 53.11)
1032    फरिन्दा     (न चा, तुँ केकरो चार महिन्ना ला सहर में कमाए-खाए ला भेज न द, उ बोले में फरिन्दा हो जा हवऽ कि न । बिसेसर सहर गेलन तबहिंए से बोले-चाले में फरहर हो गेलथुन ।)    (बिरायौ॰28.18)
1033    फरीछ     (फरीछ के बेरा । कसइलीचक गाँव से पूरब जेज्जा भुइँआ असमान के अँकवारित लउके हे, बिसेसरा लाठी लेले चलल जाइत हल । एक ठो मेढ़ानु के घाँस गढ़ित देखके ओज्जा गेल ।; - सउँसे गाँव में घुम आव, बाकि एक्को मेहरारू के मुँह खिलता न पएबें । सब अज्जब गिलटावन पठरू निअर मधुआल बुझइतउ ! - काहे न मधुआल निअर बुझाइ, सोबरनी ओला गितवा न इआद हउ - नेहवा के हउआ के झिरके से मसकऽ हइ, जिनगी हइ फरीछ के फूल !)    (बिरायौ॰39.10; 53.26)
1034    फलना     (फलना अजात हीं बेटी बिआह देलक, फलना पार गंगा से ओछ जात के लड़की कीन लएलक आउ बेटा से सादी कर देलक, छौ बरिस कट्टिस कर देल गेल । फलना हीं चाकर के राज हे । बाकि भुमंडल बाबू नाक हथ सउँसे गाँइ के ! आउ तो आउ, पुरान जमिनदार न हथ सहजू साही,  ओहु पंचित में भुमंडल बाबू के बात न काट सकऽ हथ ।; पहिले तो तुँ कहऽ हलें कि पढ़-लिख जात त अदमी तनी दवा-बिरो के हाल जान जाएत । ओझा-गुनी के फेरा में न रहत । फलना हीं के भूत हम्मर लइका के धर लेलक, चिलना के मइआ डाइन हे, हम्मर बेटी के नजरिआऽ देलक हे, इ लेके जे रोजिना कोहराम मच्चल रहे, से न रहत । पढ़े-लिक्खे से लुर-बुध फरिआत ।)    (बिरायौ॰16.20, 21, 22; 29.4)
1035    फहाफह (~ अंगरखा)     (रिकसवा के गदवा में धँसलका अदमिआ के तीरे ओला के सुख-दुख का बुझतइ । घिंचे ओला पसीना से निहाऽ गेल, घुर के जरी ताकलक । बाबू साहेब तो फहाफह अंगरखा पेन्हले अकड़ के बइठल हथ । मजुरवा आउ जोर लगाऽ के रिकसवा के तीरे लगल ।)    (बिरायौ॰50.12)
1036    फाँड़ा     (ल पलटु भाई, इ तो रखहीं पड़तवऽ । सब्भे कहलक । लोगिन अप्पन-अप्पन फाँड़ा के गोहुम पलटुए के चदरा पर उझिल देलक । पलटु नाकर-नोकर करे लगल ।)    (बिरायौ॰26.15)
1037    फाजिल (= अधिक, अतिरिक्त)     (साल में दू सो दिन खट्टे हे कमिआ, आठ मन के दाम सवा सो भेल, दस आना पत दिन पड़ल । अइसे पक्की सेर भर अनाज आउ आ सेर सत्तु रोजिना पावे हे न, ओकरे साथे एहु दस आना रोजे दे देवे गिढ़थ, फाजिल मत देवे ।; त अपने के दाया से फिनो नौटंगी के किताब पढ़हीं आ गेल । अब फाजिल पढ़ के का करम ।; तोरा मन पर चोट पहुँचे, हमरा केकरो खेत में से एक मुट्ठी झँगरी कबार के खाइत देख के । देह पिराएल-उराएल, आउ कहुँ दू चुक्कड़ फाजिल पी लेली, तुँ माथा पिट लेलें अप्पन ।)    (बिरायौ॰15.9; 23.18; 41.22)
1038    फिंचना (लुग्गा ~)     (लुग्गा फिंचे ला बहराएल कमेसरा बहू मुँहलुकाने में । नदिए पर तोखिआ बहू भेंटा गेलइ ।)    (बिरायौ॰52.14)
1039    फिन (= फिनु, फिनो, फेन, फेनो; फिर; भी)     (घुरती चोटी ओकरा कसइलीचक के नओकेंड़ी बगइचवा भिजुन झोल-पसार हो गेलइ । बिच्चे बगइचा एगो देओचारा हलइ फुसहा, ठँवे एगो बड़का चाकर कुइँआँ फिन । सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत ।; दिक-सिक होला पर मजूर देह धरे हे । फिन गिरहत कीनल बैल समझऽ हथ ओकरा ।)    (बिरायौ॰7.9; 67.17)
1040    फिनो     (बिहने पहर भगत अपन लइकन के समझौलक - देखी जा, लोभ बड़का भूत हे । एकर दाओ में आना न चाही । लोभ में पड़के जहाँ केकरो खेती-बारी के भार लेवे ला सँकारलऽ कि फिनो कोल्हु के बैल बनलऽ, न जिनगी के कउनो ओर बुझतवऽ, न छोर ।; देखऽ न, हमरा से पुछलक न मातलक आउ का जनी केकरा तो साथे सेनुर देके आएल हे । हिंआ अब सउँसे मुसहरी भात माँग रहल हे । एँसो हिंआ धान मुआर कटाल हल । भात न देही त सब चटइआ से काट देत । फिनो पिछाड़ी मिले में बेगर डंड-जुरमाना के गुजारे न हे ।)    (बिरायौ॰10.22; 43.22)
1041    फिफिहिआ     (साही जी चुप हो गेलन । भुमंडल बाबू के बाप बड़ाहिली ला न फिफिहिआ हलन ? इ बेरा भुमंडल बाबू गिनाऽ हथ ।; हमनी के मेढ़नुअन मजूरी करे में न हिचके । आज सब्भे जात के औरत नौकरी करे ला फिफिहिआ हो रहल हे ।)    (बिरायौ॰17.4; 71.11)
1042    फिरन्ट     (भुमंडल बाबू मुखिअइ ला अड्डी रोपलन । बजरंग अप्पन सान में फुल्लल हल, अब चौंकल । रोज अप्पन सवदिया कसइलीचक भेजे । फिरन्ट लोग जसुसी ला गलिअन में चक्कर काटे लगल ।)    (बिरायौ॰44.21)
1043    फिराक     (लइकवन सब अप्पन-अप्पन फिराक में निकल चुकल हल । सामी जी आखरी दाव लगा देलन - देखऽ, तुँ हमरा पठसाला जमवे में साथ द, एकरा ओजी में हम तोरा दस रुपइआ के महिन्ना बाँध दिलवऽ, महिन्ने-महिन्ने देल करबुअ आउ घटला-पड़ला पर मदतो देबुअ ।)    (बिरायौ॰37.4)
1044    फुजना     (सोबरनी फरिआल जाइत हइ काहे ? हिरदा में समिआ ला नाया-नाया पिरीत फुज्जित हइ जनु । पिरीत के भोर जिनगी के इँजोर कर दे हे न ?)    (बिरायौ॰53.11)
1045    फुटानी     (अरे कइली से सब्भे अदमी, का बड़का का छोटका, काहे थर-थर करे हे, एही से कि कइली से छिप्पल न हे एक्को तितुली के रग-रेसा ! कहुँ खोल देलक तो मातवरी के टिपोरी आउ कोठा-सोफा के फुटानी एगो लमहर चौल बन जात ।; अन्ध-देखहिंसकी बेस चीज न हे । जोतनुअन के देखहिंसकी करके एकजनमिआपन अपनाना अक्किल के बात न हे, बिआह में देह बेच के नाच-मोजरा के फुटानी अक्किल के बात न हे ।)    (बिरायौ॰39.23; 71.20)
1046    फुल्लल     (भुमंडल बाबू मुखिअइ ला अड्डी रोपलन । बजरंग अप्पन सान में फुल्लल हल, अब चौंकल । रोज अप्पन सवदिया कसइलीचक भेजे । फिरन्ट लोग जसुसी ला गलिअन में चक्कर काटे लगल ।)    (बिरायौ॰44.20)
1047    फुल्ला     (अच्छा तोर लइका के आँख में ... जरी एन्ने लावऽ, देखिकऽ । फुल्लो हइ आउ रोहो । रोज अँखवा के सेंक के आँजन लगावे पड़तवऽ ।)    (बिरायौ॰32.18)
1048    फुसहा (= फूस का)     (घुरती चोटी ओकरा कसइलीचक के नओकेंड़ी बगइचवा भिजुन झोल-पसार हो गेलइ । बिच्चे बगइचा एगो देओचारा हलइ फुसहा, ठँवे एगो बड़का चाकर कुइँआँ फिन । सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत ।)    (बिरायौ॰7.9)
1049    फुहिआना     (लफार पछिआ उठल । देखित-देखित में चउगिरदी करिवा बादर तोप देलक । बड़का-बड़का बूँद टिपटिपावे लगल । छिमा होके तनी देर फुहिआल । फिन झरझराऽ देलक ।)    (बिरायौ॰41.9)
1050    फेंकाना     (लोग कहऽ हथ, भगवान के लीला, इगरहवाँ दिन तीन पचड़ा गवाऽ चुकल हल, भगत जइसहीं जोर से टिटकारी मारलक, 'टीन-ट्री' कहलक कि मालिक बेटी भौंकल, ओकर हाँथ से मूसर फेंकाऽ गेल आउ आँख में जोत एकबएग आ गेल ।)    (बिरायौ॰9.14)
1051    फेंटा (~ बाँधना)     (पंडी जी एक देन्ने लमहर फेंटा बाँधले बइठल हलन, लोग देखलक - पुन्ना पाँड़े । बजरंग पंडी जी के गोर छूलक, आउरो लोगिन नेम निवाहलक ।)    (बिरायौ॰49.6)
1052    फेर (= फेन, फेनु, फिनु, फेनु; फिर)     (भगतवा के छओ लइकवन, फेर अप्पन मेहरी, लइकन-फइकन जौरे कसइलिए चक बसे ला पहुँचल । भगत के छओ लइकन किजर निअर जुआन, उलटल सीना, केला के थम्ह निअर कल्हा ओला ... ।)    (बिरायौ॰10.3)
1053    फेरा-फेरी (= बारी-बारी)     (बाभन मालिक कहलक - मुसलमान हीं रहबऽ त जात भरनठ हो जतवऽ । का बोले बेचारा भगत । भारी सकरपंच में पड़ल । साँझो होला पर लोग नँहिँए हटल । रातो में दुन्नो मालिक के गोरिन्दा-दलाल टापा-टोइआ फेरा-फेरी अइतहीं जाइत रहल ।)    (बिरायौ॰10.18)
1054    बँड़ेरी (= बड़ेरी)     (बिआह पार लग गेलइ । पंडी जी रम गेलन मुसहरिए में । एगो दू-छपरा बनल, थुम्मी के लकड़ी ला गरमजरुआ जमीन में के एगो नीम के डउँघी छोपल गेल । बँड़ेरी ला एगो ताड़ के अधफाड़ देलक बजरंग । नेवाड़ी मुसहर सब अपना-अपना गिरहत हीं से लौलक ।)    (बिरायौ॰49.23)
1055    बइठकी (~ खेलना)     (पछिआरी निमिआ तर तीन-चार गो बुतरु कउड़ी-जित्तो खेलित हल । - अब हम बइठकी न खेलबउ, चँउआ खेलबें त खेल सकऽ हुक । - चँउआ हम न खेलम, अल्हिए न हे । - न खेलबें त मत खेल, खोसामद कउन करऽ हउ ।; सभा-सोसाइटी चलवे के लुर सिखलें हें ? एक काम कर । अबहीं रह जो दू सत्ता आउ । हमरा साथे नवजुआन सभा के कामकरंता कमिटी के बइठकी में भाग ले ।; सभा के बइठकी खतम हो गेल ।)    (बिरायौ॰34.14; 64.11; 67.23)
1056    बइठिका (= बइठका, बैठक, मीटिंग)     (अरे आज तो एही बेरा से बइठिका गूँज रहल हे, एक ठो उपरी अदमी बुझाऽ हइ । कोई हितु होतइन । भितरे जाना ठीक न हे, हेंठहीं घाँस पर लोघड़ रहुँ तब । अकानुँ लोग का बतिआइत हे ।)    (बिरायौ॰57.1)
1057    बइदक     (अच्छा, तुँ ओझइओ जानऽ ह । बेस हे, त तो अबहीं ठहरे पड़तवऽ । हम्मर भाई के गेठिआ सतावित हे । जरी देख ल । बइदक दवाई करइते-करइते घर खोंक्खड़ हो गेल ।)    (बिरायौ॰7.24)
1058    बउआ     (देखी मालिक, दीदा के रोग हे, खेल नँ हे । बउआ के रोहता ठीक लउके हे, इ से हमरा उम्मीद हे ।; - इ में जान हते ला काहे चाहतइ । इ में सरम के तो कोई बात न हइ । - मन्नी भगतिनिआ अप्पन बेटवा के नाँव तोरा बता देतउ, ओकरा समझाऽ दिहीं । - न बउआ, हम्मर कोई आन अदमी बेटा न हे, हम्मर बेटा तुँहीं हे । ... ह-ह-ह । हम्मर बेटा तुँहीं हे ।)    (बिरायौ॰9.7; 79.25)
1059    बउराना     (हथिआ बउरइलइ कि भागा-भागी मचलइ, / कउन सूरमा ! अब सींकड़ पेन्हौतइ ओकरा कउन सूरमा !)    (बिरायौ॰31.17)
1060    बउराहा-सुराहा     (त जा ही हम । हम तोरा से अब न बोलबउ । से उ चल गेल । सखिओ घरे आल । तहिए से दुन्नो में बोलाचाली बन्द हो गेलइ । ... अब तुँहीं सोंच कि अइसन बउराहा-सुराहा से के सगाई करके हँसारत करतइ ।)    (बिरायौ॰61.8)
1061    बएस (= वयस, उमर)     (अब कसइलीचक में केउ बेराम पड़े, आउ औसान से कारन न हटे त लोंदा भगत कन अदमी धउगे भभूत लागी । केउ के वएसो होला पर खोइँछा न खुले त धावा-धाइ अदमी लोंदा भगत कन पहुँचे ...।)    (बिरायौ॰8.20)
1062    बकारा (= बकार)     (सउँसे कसइलीचक में सब ले खनदानी हथ भुमंडल बाबू । केउ उठा दे तो अँगुरी । धन केकरो होए, जमिनदारी केकरो होए, बाकि पंचित में भुमंडले बाबू के माथा पर फेंटा बँधाऽ हे, जेकरा चाहथ उठा लेथ, जेकरा चाहथ हिगरा देथ । केउ बाछा के बधिआ बनौलक आउ सवाल उठल तो भुमंडल बाबू के बकारा से नौ-छौ होत ।)    (बिरायौ॰16.19)
1063    बखरा (= हिस्सा)     (ल पलटु भाई, इ तो रखहीं पड़तवऽ । सब्भे कहलक । लोगिन अप्पन-अप्पन फाँड़ा के गोहुम पलटुए के चदरा पर उझिल देलक । पलटु नाकर-नोकर करे लगल । - न भाई, ई न होतवऽ, अप्पन-अप्पन बखरा लेले जाए पड़तवऽ । जान के मोल पर कीनल गोहुम हवऽ, इ काहाँ से होतवऽ ।)    (बिरायौ॰26.16)
1064    बखिआ (= पास-पास और मजबूत टोप की सिलाई) (~ तड़तड़ाना)     (- बिसेसर भाई चुप्पे रहतन ? मोहन बाबू बोललन । - पहिले से तो हम गूँग जरुरे हली बाकि जइसहीं आपलोग सबलोगा भक्खा में कार सुरू करली तइसहीं हम्मर मुँह के बखिआ तड़तड़ाऽ गेल ।)    (बिरायौ॰67.9)
1065    बगइचा (= बगीचा)     (घुरती चोटी ओकरा कसइलीचक के नओकेंड़ी बगइचवा भिजुन झोल-पसार हो गेलइ । बिच्चे बगइचा एगो देओचारा हलइ फुसहा, ठँवे एगो बड़का चाकर कुइँआँ फिन । सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत ।)    (बिरायौ॰7.8)
1066    बग-बग (~ उज्जर)     (नैका गुरुआ बग-बग उज्जर बस्तर पेन्हऽ हइ । भुमंडल बाबू से अंगरेजी में बोले लगलइ त का कहिवऽ, अरे एकदम्म धरधराऽ देलकइ हो ।)    (बिरायौ॰19.14)
1067    बच्चा-सरेक     (ताड़ी-सराब के पिनइ के रसे-रसे कमाऽ देना जरूरी हे, पठसाला में सब कोई लइका-सिआन, बच्चा-सरेक, मरद-मेहरारु आवऽ, तुँहनी खाली साथ द, देखऽ हम तुँहनी लागी का करऽ ही ।)    (बिरायौ॰21.17)
1068    बजड़न (= बजड़नियाँ, पटका)     (उँचका कुरसिआ ओला अदमिआ के मुठनवा अनमन ओकरे निअर हइ । अरे, अबके एकरे न एक बड़जन चउअनिआ ला लगएलिक हल ... दत्तेरी के ! उक्का गटवा भीर कुरतवा चेथरिआएल हइ ।; - एगो पइसवे देवे में अटपट करे लगल । - हमरा से तो आँइ-बाँइ करलक । ओकरा एक बजड़न देली ।)    (बिरायौ॰52.5; 55.15)
1069    बजाड़ना     (पुरबारी मुसहरी । लमगुड्डा झोललका सुअरवा के अकसरे कन्हेटले जा रहल हल । बजरंग बाबू के देखके बड़ा सकुचाऽ गेल । 'सलाम सरकार' कहके हाली-हाली डेग उठएलक । सुअरवा के दुअरिआ भीर बजाड़ के मुड़ल ।)    (बिरायौ॰48.4)
1070    बझाना-उझाना     (अकलु के ठकमुरती लगल हलइ - बाकि ओस्ताद, समिआ का तो बड़ पहुँच ओला अदमी हइ, कहुँ बझा-उझा देलक त ? - हुँह, तुँ डेराऽ गेलऽ । देखऽ ह का, हम हिवऽ न, चट्टे-पट्टे जा ... ।)    (बिरायौ॰45.7)
1071    बड़का     (घुरती चोटी ओकरा कसइलीचक के नओकेंड़ी बगइचवा भिजुन झोल-पसार हो गेलइ । बिच्चे बगइचा एगो देओचारा हलइ फुसहा, ठँवे एगो बड़का चाकर कुइँआँ फिन । सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत ।; अरे कइली से सब्भे अदमी, का बड़का का छोटका, काहे थर-थर करे हे, एही से कि कइली से छिप्पल न हे एक्को तितुली के रग-रेसा ! कहुँ खोल देलक तो मातवरी के टिपोरी आउ कोठा-सोफा के फुटानी एगो लमहर चौल बन जात ।)    (बिरायौ॰7.9; 39.21)
1072    बड़जतिआ     (अगे, खाली कहे ला सब बड़जतिआ हइ, जानलें ? बिहने से लेके निसबदिआ ले सास-पुतोह, ननद-भौजाई, बाप-बेटा के महभारत । गाड़ी-गुप्ता झोंटा-झोंटउअल, सरापा-सरापी ।)    (बिरायौ॰53.17)
1073    बड़हन (= बड़ा)     (अन्छा, अबहीं कुच्छो न बिगड़ल हे । हम न होत त पुरबारी मुसहरिआ में आसरम खोलम, बड़हने टोला तो बुझाऽ हइ एहु !)    (बिरायौ॰47.4)
1074    बड़ही (= बढ़ई)     (बलिपुरी ओला मलिआ पइसे ले हे, सुरेगना ओला बड़हिआ पइसे ले हे । सब ले भल हथ चन्नी माए । सब कोई अप्पन-अप्पन घरे चलल ।; सरकार, हिंआ तो कातो एगो किरिस्तान बड़ही सब्भे मुसहरवन के किरिस्तान बना देलकइ हे ।; जब आप अप्पन गाँव के माथ हो के कहित ही त हम इनकारऽ ही कइसे । चली हम इ लोग के जनेउ दे देही । बाकि बड़हिआ के बात में लोग फिन न आ जाथ ... ।)    (बिरायौ॰33.1; 47.5; 49.14)
1075    बड़ाहिली (= बराहिली)     (साही जी चुप हो गेलन । भुमंडल बाबू के बाप बड़ाहिली ला न फिफिहिआ हलन ? इ बेरा भुमंडल बाबू गिनाऽ हथ ।)    (बिरायौ॰17.4)
1076    बड़ी (= बड्डी; बहुत)     (हमरा तो बड़ी हँस्सी आवे हे इ सुन-सुन के हो ।; बिभूति बाबू दुन्नो के ले गेलन भितरे । लोग बइठल हथ कलीन पर । ... बिसेसरा के बड़ी असिआर बुझलइ कलिनवा पर बइठे में । लोग धर के बइठएलन ओकरा ।)    (बिरायौ॰19.14; 66.23)
1077    बड्डी (= बड्ड; बहुत)     (दू रोज से मुसहरी में दू-दू गो पठसाला चल रहलवऽ हे, पाँड़हु चलावित हे आउ एक ठो नाया सामी जी आएल हे । बड्डी पढ़ल-लिक्खल हे, दू हजार महिना के नौकरी छोड़ के आएल हे ।; न गे, सोबरनी के केउ चाहे कि फुसलाऽ ली त इ होवे ओला बात न हे । ... बाकि बेमन के बिआह ठीक न होवे हे, न गे । इ बात में एन्ने अदमी जोतनुअन से नीमन हे । उ सब में मेहररुअन के बड्डी दुख रहऽ हइ । रोज मारपीट, रगड़ा-झगड़ा ... ।)    (बिरायौ॰18.6; 53.15)
1078    बढ़नी (= झाड़ू)     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।)    (बिरायौ॰5.6)
1079    बढ़म (= ब्रह्म) (~-लेख)     (बढ़म लेख न टरे बिसेसर । इ सब पुरबिल्ला के कमाई हे ... ।)    (बिरायौ॰15.12)
1080    बढ़ामन (= ब्राह्मण)     (मुसलमान चाहे किरिसतान के छूअल पानी फिन आप न पीअम, बाकि इ से उ लोग के मन में हिनतइ के भओना कन्ने जम्मे हे । जदगर बढ़ामन तो छुच्छे हथ, अनपढ़े हथ बाकि उनकर मन में हिनतइ के भओना न बसे ।; दरोजा के केंवाड़ी ओठँगाऽ देल गेल । पंडी जी मेराऽ-मेराऽ के बात बोले लगलन - देखऽ जजमान, गुरुअइ के काम अदौं से बढ़ामने के रहल हे ।; कुरमी लोग तो अपनहुँ हर जोत लेत हल, बाकि भुमिहार के हर छूने न । से बाभनो जोतनुआ नओ जाना बेस बुझलक । … बढ़ामन आउ रजपुत लोग फिन एही करलक ।)    (बिरायौ॰12.13; 46.20; 74.21)
1081    बढ़ामनी (= ब्राह्मणी)     (हम जाइत ही जरा घरे, जरा बढ़ामनी के खबर जनाऽ देउँ ! दू रोज में एगो दू-छपरा सितल्लम ला बनावे पड़त । उदान में रहना ठीक न होत, हम ठहरली दिनगत अदमी ।)    (बिरायौ॰47.14)
1082    बतबनवा     (- त हम तोरा पसन्दे न हुक । केउ दूसर गदराइत मेढ़ानु के देख के लोभाल होतें । - जहिआ हाँथ धरबउ तहिआ तोरे, न तो कुँआरे रहबउ । - तुँ बतबनवा हें, गालु हें । जो, तोरा से हम आज से न बोलबउ ।)    (बिरायौ॰60.14)
1083    बतिआना (= बात करना)     (- ए हो, तोरा से ढेर सानी बात बतिआए ला हे, चलें न उ पिपरिआ आँटे । - चलऽ न ।)    (बिरायौ॰18.17)
1084    बदना (= अनुशासन या नियंत्रण में होना)     (जेकर पाले इ घड़ी दस-बीस हजार जमा हइ उ कइसे केकरो बदतइ अपना आगु । तुँहनी तो छुच्छे ठहरलें, हमनिओं के अदमी का गदानित हथिन भुमंडल बाबू ।)    (बिरायौ॰66.15)
1085    बद्दी (= कुश्ती, मल्ल-युद्ध) (~ मारना; ~ खाना)     (सुनी जा भाई ! कसइलीचक के मुसहरी में अखाड़ा हे, धुरी लगावे हे बलमा, कमेसरा, पलटु आउ बिसेसरा ! … आउ इ हवऽ पलटुआ, बीसन बद्दी मार चुकल हे ।; पलटु - हम तो बद्दी खा चुकली मकुनी से । अब तो बेकारे हम धुरी लगाऽ रहली हे । छोड़ देवे के मन करे हे ।; आज इलाका के नामी लड़ंतिआ मकुनी अहीर के बद्दी होत बिसेसर माँझी से ।)    (बिरायौ॰30.15, 19; 31.4)
1086    बन (= बन्द) (~ करना)     (बीसन बरिस से तो चन्नी माए पुजाइत अएलन हे इ मुसहरी में, त अब पँड़वा आउ समिआ चाहलक गोड़ी जमावे ला । अरे हमनी के छोटजतिआ कह के घिनाऽ, नाक बन करऽ । बाकि चाल बेस हे तुँहनी ले हमनी के ।)    (बिरायौ॰77.11)
1087    बनउरी     (आज के खेला में जसिआ सोबरनी के पाट बड़ी बेस ढंग से करलक । जसिआ सोबरनी से कम सुत्थरो, सवांगिन न हे ! ओइसने गितहारिन । खेला के कोई बनउरी मत समझिअ ।)    (बिरायौ॰31.24)
1088    बनकस     (हमनी मजूर के आउ तलवरन के विचार-कनखी में भारी फरक हइ कनिआ । हमनी ओही अदमी के सुत्थर कहबइ जेकर बनकस बेस होतइ । छर्रा-सटकार, दोहरा काँटा के, कसावट देहओला हट्ठा-कट्ठा छौंड़ के देख के मजूर के बेटी लोभाएत, तलवरन के बेटी कोठा-सोफा, मोटर-बग्गी, ठाट-बाट, बाबरी-झुल्फी देख के । बाकि खिसवन में अदमी के आँख, नाक, ओठ, केस, दाँत, भौं वगैरह के खुबसुरती पर एत्ता जोर देवल जा हइ आउ बनकस के जिकरो न रहइ !)    (बिरायौ॰66.2, 6)
1089    बनिआ-कलाल     (बिसेसरा जीक धर लेलक - पढ़े से कुछ फएदा हइ मँगरू चा, सच-सच कहऽ तो ! - फएदा न काहे हइ, देस-देस के हाल जान जाएत त अदमी कहुँ जाएत त भुलाएत न, हिसाब-किताब करे ला जानत त केउ बनिआ-कलाल से ठगाएत-मुँड़ाएत न ।)    (बिरायौ॰28.4)
1090    बनिवा (= बनइवा;  < बनइआ {= वन का, बनैला, जंगली} + 'आ' प्रत्यय)     (पाँड़े देक गाँओ-जेवार में रकम-रकम के हौड़ा उड़े लगल, सँझवा के मुसहरिआ में बनिवा न आल ।)    (बिरायौ॰17.15)
1091    बफगर (= जिससे भाफ निकल रहा हो, गरम, ताजा, टटका)     (सुनी जा भाई ! कसइलीचक के मुसहरी में अखाड़ा हे, धुरी लगावे हे बलमा, कमेसरा, पलटु आउ बिसेसरा ! … इ हे कमेसरा, कम बफगर न हे, चुमकी में गिनाऽ हे !)    (बिरायौ॰30.18)
1092    बबुआनी-फुटानी (= एक प्रकार का खेल)     (पलटु बात चलौलक - आज खेला होए के चाही लइकन ! - कउन खेला, 'धोबिआ-धोबिनिआ' कि 'बबुआनी-फुटानी' ? एगो बुतरु पुछलक ।)    (बिरायौ॰30.2)
1093    बरउनी     (तुँहु कहऽ हलें कि अदमी न पढ़ल हे त बेमउगत मरिते हे । डाकडर दवाइ दे हे बाकि जाहिल होए के ओजह से हमनी ओकरा ठीक समए पर कन्ने दे ही, बरउनी कन्ने करऽ ही, नतीजा इ हे कि मरित ही बेमउगत । झाड़-फूँक के चक्कर में पड़ जा ही ।)    (बिरायौ॰29.1)
1094    बरखना (बरखा ~)     (सोबरनी अकसरे बइठल हल । एक ओछार बरखा बरख गेल हे । भुँइआ ओद्दा हे । सोबरनी अँगुरी से जमीन पर चित्तर तिरित हे । पेंड़-बगात हे, पँजरे में दूगो हरिंग कुदक्का मारित हे ।; - का हइ माए, इ घड़ी ? - इ घड़ी अइलुक हे तोरा बोलवे । देखित हें इ सम्हर, रात भर बरखा बरखतउ । भींजल रहबें त बेराम पड़ जएबें । चल हाली ।)    (बिरायौ॰58.5; 76.20)
1095    बरखा (= वर्षा)     (- आइँ हो भोलवा, तुँ आज गिरहतवा से गारी-गुप्ता काहे ला करलहीं हे ? तोखिआ दरिआफलक । - बरखवा छिमा होतहीं लगले पसारे कहलक त कहलिअइ कि जरी भुइँवो तो बराइ, अइसे पसारे से तो नोकसवानी होतइ । एही पर लाल-पिअर होए लगल, बड़का भइवा अलइ त ओहु चनचनाए लगल ... ।; सोबरनी अकसरे बइठल हल । एक ओछार बरखा बरख गेल हे । भुँइआ ओद्दा हे । सोबरनी अँगुरी से जमीन पर चित्तर तिरित हे । पेंड़-बगात हे, पँजरे में दूगो हरिंग कुदक्का मारित हे ।)    (बिरायौ॰42.17; 58.5)
1096    बरखा-बुन्नी     (सावन-भादो में चार घोंट अहरी के अन्डर बोए पानी के अस्तालक पर सगर दिन लप-निहुर के बरखा-बुन्नी में भींज-तीत के रोपा-डोभा करम हँम, आउ इ जुअनिआ-मुना पसिनिआ के फेर में पइसा जिआन करत, पी-उ के गारी-गुप्ता करत ।)    (बिरायौ॰5.10)
1097    बरजाती     (सामी जी, भुमंडल बाबू आउ अनेगा लोग, पलटु मूँड़ी निहुरएले । सामी जी बोलंता के हाव-भाव में बोलित हलन - हमरा पिछु दोख मत दीहें । हम खरचा-बरचा ला तइआर हुक । इ बजरंगवे के बरजाती हे । इ में सक करना बेकार हे ।)    (बिरायौ॰44.8)
1098    बरजोरी (दे॰ बलजोरी)     (गिढ़थ सालो के कमाई खरिहानिए में छेंकले हलइ, अब खाए का ? बरजोरी पकड़ के गिढ़थ ले जाए खरिहानी दउनी हँकवे ला । भुक्खे ढनमनाऽ के गिर पड़ल खरिहानिए में, बाकि कठकरेज जोतनुआ छेकलहीं रहल मजुरी के अनाज ।)    (बिरायौ॰14.4)
1099    बरन-बाँट     (पोसिन्दा (मर्मज्ञ) लोग कहऽ हथ कि अदओं से आज ले मुलुक के लोग बरन-बाँट के कहिओ न मानलक हे आउ जात से बहरी सादी-बिआह बरमहल होइत रहल हे ।)    (बिरायौ॰82.12)
1100    बरना (= जलना; आना; लगना) (ललटेन ~; हँस्सी ~)     (पित्तर के चमाचम ललटेन बर रहल हे । सउँसे मुसहरी के कुल्ले अदमी जुटल हे । चबुतरा पर तिलो रक्खे के दाव न ।; - काहे हँस्सित हें बिसेसरा ! अबहीं हम कउन बेसी दिनगत हो गेली हे । - हँस्सी बरे के बात बता दुक । एज्जे एक बेजी एगो लड़की, जेकरा देखतहीं हम भुलाऽ जा हली दुनिआ के, एही बेरा घाँस गढ़ित भेंटल हल । आउ आज तुँ भेंटलें हें !; बेचारी सोबरनी के केत्ता चोटी कहली - ए गे सोबरनी, तोरा न बनतउ भोलवा से, ओकरा पर बड़जतिअन के पराछुत पड़ल हउ साँझे-बिहने माउग के लतवस्से के । बाकि हम्मर बात पर कान न देलक । अप्पन देह के भुँज देलक बिख के घम्मर में । हाए, सउँसे जिल्ला में बरऽ हल सोबरनी, से देखते-देखते लट के परास हो गेल ।)    (बिरायौ॰20.19; 39.16; 77.20)
1101    बरमहल (= अकसर)     (गलिआ में दू गो चार गो अउरत-मेढ़ानु तो बरमहल अइतहीं-जइतहीं रहऽ हइ, बाकि चन्नी माए के देख के सोबरनी चुप हो गेल ।; अब हरवाही छोड़ना चाहे हे त दू मन के बदला में पचास मन माँगऽ हहु ! दे न पावे त जबरदस्ती पकड़ के काम करे ला ले आवऽ हहु । बरमहल धिरउनी । हमरा से सरबर करके कन्ने जएबें, चोरी-बदमासी में फँसा देबउ, बस जेहल में सड़ित रहिहें । त अब ओहु सबके नाया जमाना के हावा लग गेलइ हे ।; पोसिन्दा (मर्मज्ञ) लोग कहऽ हथ कि अदओं से आज ले मुलुक के लोग बरन-बाँट के कहिओ न मानलक हे आउ जात से बहरी सादी-बिआह बरमहल होइत रहल हे । आरज-दरबीर-सक-हून सब एक हो चुकलन हे ।)    (बिरायौ॰6.1; 73.6; 82.13)
1102    बराना (= अ॰क्रि॰ भींगी जमीन, भींगे कपड़े आदि का गीलापन या जलांश कम होना)     (- आइँ हो भोलवा, तुँ आज गिरहतवा से गारी-गुप्ता काहे ला करलहीं हे ? तोखिआ दरिआफलक । - बरखवा छिमा होतहीं लगले पसारे कहलक त कहलिअइ कि जरी भुइँवो तो बराइ, अइसे पसारे से तो नोकसवानी होतइ । एही पर लाल-पिअर होए लगल, बड़का भइवा अलइ त ओहु चनचनाए लगल ... ।)    (बिरायौ॰42.18)
1103    बराना ('बरना' का सकर्मक रूप) (अन्नस ~)     (चबुतरा पर तिलो रक्खे के दाव न । मेहरारु सए एकदिसहाँ खचकल हे तल-उपरी । लइकन-फइकन अलगे जोड़िआल हे । लड़कोरिअन सब काहे ला चल अलइ हे, रेजवन कउहार कएले हइ, अन्नस बराऽ देलकइ की ।)    (बिरायौ॰20.22)
1104    बराबरिआँव     (एक बात तो हमरा इ मालूम हो हे कि पढ़इआ के निसाना होए के चाही अदमी में छुट्टा विचार के जोत जगाना, हर चीज पर पुरान ठोकल-बजावल नओनेम से बेल्लाग होके सोचे के ताकत पैदा करना । हमरा महतमा रूसो के भइआरे, बराबरिआँव आउ अजादी के नओनेम से इँजोरा मिलल हे ।)    (बिरायौ॰62.15)
1105    बरिआती (= बारात)     (- बरिअतिआ आजे न अतउ हो ? - मुँहलुकान होइए रहलइ हे सरकार, अब देरी न हइ ।; बरिआती पहुँच गेल । माँदर के धम्मँस आ रहल हे, गीतो के अवाज साप-साफ सुनाइ पड़ित हे ।; पूरा खरमंडल हो गेल । सरकार, अइसन बिघिन पड़ गेल हे कि सब कएल-धएल गुरमट्टी हो रहल हे । बरिआती के लोग सब जनेउ लेले हथ, सूअर-माकर खएबे न करथ । डिब्बा ओला घीउ के बनल पुरिओ न खाथ । बड़ा सकरपंच में पड़ गेली हे ।)    (बिरायौ॰48.5, 14, 22)
1106    बरिआर (= मजबूत, शक्तिशाली)     (तोखिआ - हम तो चाहली कि कइसहुँ कोई दाव लगाइ कि मुसहरी के इज्जत बचे । बाकि हमरा ले उ बरिआर पड़ऽ हल ।; सब कोई अप्पन-अप्पन मड़इआ पर नाया फूस चढ़ाऽ के निच्चु बना रहल हे । एसों मुसहरी के रौनक बढ़ जात, पाँच-छौ अदमी सपरित हे खपड़ा चढ़वे ला छौनी पर । छौनी के ठाठ बरिआर बनवल जा रहल हे एही से ।)    (बिरायौ॰30.22; 76.3)
1107    बरिस (= वर्ष)     (मँगरु चा भुनक गेलन - जब तुँहीं अइसन कहें हें त आउ के पढ़त । सब ले सेसर तो तुँ हलें, दुइए महिन्ना में दस बरिस के भुलाएल अच्छर चिन्ह लेलें, किताबो धरधरावे लगलें, से तुँहीं अब न पढ़बें, त हमनी बुढ़ारी में अब का पढ़म ।)    (बिरायौ॰27.21)
1108    बलजोरी (= बलजबरी; जबरदस्ती)     (जे लोग कहऽ हथ "आवऽ माँझी जी, हमरा-तोरा में कोई भेद न हे" आउ बलजोरी साथहीं खटिआ-मचिआ पर बइठावऽ हथ, उनका हमनी लुच्चा समझऽ ही, समझऽ ही इ बखत पर गदहा के बाबा कहे ओला तत के अदमी हथ, कुछ काम निकासे ला इ चपलुसी कर रहलन हे ।)    (बिरायौ॰12.5)
1109    बलुक (= बल्कि)     (जहिआ तुँ हमरा साथे रहे ला तइआर हो जएबें । हम केकरो भात न दे सकऽ ही । देह बेच के बाजा-गाजा हम न बजाम, बे-बिआहले न बलुक रही ।; हम बिसेसर बाबू आउ सोबरनी देइ से मिनती करऽ ही कि उ लोग एतने से संतोख न कर लेथ बलुक घूम-घूम के आनो ठग के मजूरन के मेंटगिरी करथ, राह देखावथ ।)    (बिरायौ॰60.7; 82.5)
1110    बस्तर (= वस्त्र)     (नैका गुरुआ बग-बग उज्जर बस्तर पेन्हऽ हइ । भुमंडल बाबू से अंगरेजी में बोले लगलइ त का कहिवऽ, अरे एकदम्म धरधराऽ देलकइ हो ।)    (बिरायौ॰19.15)
1111    बह (= सिंचाई की नाली, पइन; बिना पेंदे का बरतन; धारता, बकाया, न चुकाया जा सकनेवाला ऋण) (~ भरना = सेवा करना, आजीवन दास रहना)     (दस-बीस रुपइआ के कहिओ दरकार होल, बिआह-सादी में चाहे सुद-खउअन के तंग करला पर, तो देह धरली, बंधुआ बनली आउ फिन कोल्हु के बैल बन गेली, भर जिनगी बह भरित रहली ।; जे दिन बह भरकवऽ, ते दिन भरकवऽ । हमनी में एका रहल त अबहीं पाँच-दस बरिस आउ उ सब के दाब के काम ले सकऽ ही, बाकि एका रहे त ।)    (बिरायौ॰70.9; 73.8)
1112    बहरसी     (देखी मालिक, दीदा के रोग हे, खेल नँ हे । बउआ के रोहता ठीक लउके हे, इ से हमरा उम्मीद हे । माइँ से एक महिन्ना ले दू घड़ी रोज भिनसरवा में चूड़ा कुटवाइ, हम बहरसी बइठ के 'देवास' करम ।)    (बिरायौ॰9.8)
1113    बहराना (= बाहर जाना)     (देख के नहीं चलता, अन्धरा है ? एगो बाबू से बिसेसरा टकराइत-टकराइत बच्चल । माउग साथे साँझ खनी हावा खाए ला बहरइलइ हे जनु ।)    (बिरायौ॰56.14)
1114    बहरी     (मलिकाइन धउग के बहरी आके खबर करलन, सब कोई भितरे दउगल, सँउसे हवेली गाँओ के अदमी से सड़ँस गेल, मालिक बेटी के बाँइ आँख के मुँदाऽ के किताब पढ़ावल गेल, अच्छर चिन्हावल गेल, सरसों गिनावल गेल ... ।)    (बिरायौ॰9.15)
1115    बहारल-सोहारल     (घरवन के करे में सूअर के बखोर । पुरवारी बगइचवा में एगो उजड़ल घर जेकर ओटा बहारल-सोहारल ।)    (बिरायौ॰11.13)
1116    बहिनी     (जइसहीं उ लौटे लगल कि भोलवा पहुँचल - सरकार, अपने खीस-पीत करली से मन दुखाऽ गेल, चल अइली । चलती हल बाकि पलटु के बहिनी पिठिआठोक चल आल हे । अब हम कउन मुँह लेके हुआँ जा ही !)    (बिरायौ॰43.27)
1117    बाँट-बखरा     (एक भाई कहत - तुँ एकसिरताह हें, खाली अपने धिआ-पुता ला मरें हें । दूसर कहत - तुँ बेगरताह हें, तोरा ला हम का न करली, बाकि तुँ भुलाऽ गेलें । तोरा निअर हम निरगुनिआ न ही । नित्तम दिन उगटा-पुरान । हमरा इ न समुझ पड़े कि लोग बाँट-बखरा काहे न करथिन आउ अइसे झगड़ित रहऽ हथिन ।)    (बिरायौ॰65.21)
1118    बाइली (= बाहरी)     (भाइ, बहिन लोगिन ! हम्मर घर इ इलाका में न हे । हम ही आन ठग के रहंता, बाइली आदमी । हाले हम एही इलाका से हो के सहर जाइत हली । जब इ इलाका के मुसहरी स के गरीबी देखली त हम्मर आँख भर आएल ...।; कल्हे चोपचक में बाइली अदमी आल आउ अइसन होल ... । न पलटु हमरा साथे घुमत-टहलत हल आउ न इ होत हल । बजरंगवा के मुखिअइ के गुमान हइ त हमहुँ कोई भोथर अदमी न ही ।; टोनू चरचा करलक - सुनली कि मुसहरिआ में अबके तीन-चार गो बाइली अदमी हेलल हे, पुलिस का अलइ ?)    (बिरायौ॰21.2; 44.9; 80.12)
1119    बाकि (= लेकिन)     (गलिआ में दू गो चार गो अउरत-मेढ़ानु तो बरमहल अइतहीं-जइतहीं रहऽ हइ, बाकि चन्नी माए के देख के सोबरनी चुप हो गेल ।; ओकरा ले बेसी सुद्धा, साध, सुपाटल आउर के हे, कह तो ... बाकि पटरी बइठे के बात ।; तोरे निअर हमरा अप्पन पहिल मरदाना से न बनऽ हल । ... ओहु माउग कर लेलक हमहुँ मरदाना कर लेली । ... बाकि तोर मरदाना साधु हउ, पटरी जरुरे बइठतउ ...।)    (बिरायौ॰6.2, 7, 12)
1120    बाज (~ जाना)     (सहजु साही के दादा गाँइ के महतो हलन, जेठ जोतनुआ । जमीनदारी किनलन त मल्लिक मालिक जरे लगल । आखिर बाज गेलन मल्लिक मालिक से । पीछु उ जमीनदारी दे देलक साहिए के, साही जे कुछ नमंतरी रुपइआ हँथउठाइ दे देलन सेइ पर । साही के रोआब हल गाँइ-जेवार में । केकर दिन हल उ घड़ी साही से आँख मिलावे के ।)    (बिरायौ॰64.17)
1121    बात-चलउनी     (घंटन ले लोग गोरमिंट करित रहल । बिसेसर चुप्पी नाधले रहल । एक अदमी बात-चलउनी करे, दूसर ओकरा पलाइस करे, चाहे कट्टिस करे ।)    (बिरायौ॰67.4)
1122    बादर     (रात खनी करिवा बादर उठल आउ लगल ह-ह ह-ह करे । भित्ती तर सटक के बिसेसरा बचना चाहलक बाकि चोटगर बरखा आउ ठठ गेल । ओकर कपड़ा-लत्ता भींज के पोतन हो गेल, कहाँ जाए ?)    (बिरायौ॰76.6)
1123    बान (= आदत)     (केत्ता बेस होतइ हल जदि कहतिक - कल्हे ओरिआऽ गेलइ, सत्तू हइ, परसिवऽ ? रोज सपरऽ ही अब नीमन से बोलबइ, ताना न देबइ, गरिअबइ न ... बाकि ... बान पड़ गेलइ जनु ।)    (बिरायौ॰22.22)
1124    बान्हना (= बाँधना)     (आइँ हो पलटु, बेलिआ खाली तोरे बहिन हउ, हमनी के बहिन न हे ? बोल तो ।  इ चुप्पेचाप रख ले आउ चल । पलटु से जवाब न चलल । हार मान के गोहुँमा के चदरवा में बान्ह के पिठिऔलक ।)    (बिरायौ॰26.20)
1125    बाबरी (= बाबड़ी; सिर के लम्बे बाल; झुलफी)     (बिसेसरा उ घड़ी एकक बित्ता के बाबरी रक्खऽ हल, धूरी लगावऽ हल, जन्ने चले तन्ने बिदेसिआ के धुन रेघावित ।)    (बिरायौ॰59.1)
1126    बाबरी-झुल्फी     (छर्रा-सटकार, दोहरा काँटा के, कसावट देहओला हट्ठा-कट्ठा छौंड़ के देख के मजूर के बेटी लोभाएत, तलवरन के बेटी कोठा-सोफा, मोटर-बग्गी, ठाट-बाट, बाबरी-झुल्फी देख के ।)    (बिरायौ॰66.5)
1127    बाभन     (लोग कोटिन-किल्ला कएलक जे में लोंदा भगत के कसइलिए चक में बसावल जाए, बाकि नँ तो मल्लिके मालिक बसे ला जमीन देवे ला रौदार होल न बाभने मालिक ।; पहिले मल्लिक मालिक लग केउ मलगुजारी देवे चाहे सलामी देवे जाए त हेंट्ठे बइठे, भुँइए पर । का बाभन रइअत, का कुरमी रइअत । त बाभन लोग गते-गते चँउकी पर बइठे लगल । त फिन कुरमी लोग बइठे लगल ।; केउ बाभन के दुरा पर केउ कुरमी जाए त चट दे खटिआ-मचिआ के खड़ा कर देवल जाए बइठे के डरे । त खड़ो खटिआ बिछाऽ के बइठावल जाए लगल उ लोग के । अहिरो अपना के केकरो से घट न समझे अब । बाभन के दुरा होए चाहे कुरमी के, खड़ो खटिआ बिछाऽ के बइठ जा हे ।; घुन-पिच होवित रहल बाभन आउ बढ़ामन में दू सत्ता ले ।; छुट्टा मजूर के मजूरी खुल गेल, डेढ़ रुपइआ आउ पा भर अनाज पनपिआर में । ८ घंटा के खटइआ । मेढ़ानु के मजूरी सवा रुपइआ । कुरमी लोग तो अपनहुँ हर जोत लेत हल, बाकि भुमिहार के हर छूने न । से बाभनो जोतनुआ नओ जाना बेस बुझलक ।)    (बिरायौ॰8.25; 16.2, 4, 7, 12; 74.18)
1128    बारे     (पलटुआ पैना चलैलक बाकि इ का ? भुमंडल बाबू के देह पर मन्नी भगतिनिआ गिरल हे । - जाए दे बाबू, जाए दे बाबू ! रोकते-रोकते में डंटा भगतिनिआ के देह पर गिर पड़ल, बारे चोट ओछाहे लगलइ ।)    (बिरायौ॰75.21)
1129    बाल (= फसल या पौधों के अन्ना का गुच्छा; मकई का भुट्टा; बलवा/ बलिआ <  बाल+'आ' प्रत्यय)     (सए हाउ-हाउ गोहुमा के बलवा के ममोड़े लगल । घड़िए-घंटा में दसन कट्ठा खेत के टुंग-टांग के फँड़िआऽ लेलक । चलती-चलाँत एकक मुट्ठा बूँट के झँगरी ले लेवित गेल ।)    (बिरायौ॰26.4)
1130    बिआह     (- इ अच्छा न होलइ माए, दुन्नो के मन मिलल हलइ त दुन्नो बिआह करके रहत हल । / - कइसे रहे ! उ में कातो सरुप के बेइजती हलइ, इ में झाँकन हो गलइ ।; बेलिआ के दूसर बिआह होवे ला ठीक हइ । दिनो ठिकावल जा चुकलइ हे ।; अच्छा, इ बताव कि सोबरनी से तुँ बिआह न काहे करलहीं ? - एही समझ जो कि न भेल आउ का !)    (बिरायौ॰6.22; 24.14; 40.1)
1131    बिख (= विष, जहर)     (अगे, खाली कहे ला सब बड़जतिआ हइ, जानलें ? बिहने से लेके निसबदिआ ले सास-पुतोह, ननद-भौजाई, बाप-बेटा के महभारत । गाड़ी-गुप्ता झोंटा-झोंटउअल, सरापा-सरापी । कहुँ पुतोह के इरखा पर सास फँसरी लगावत, कहुँ सास के साँसत से उबिआऽ के पुतोह बिख पीके जान हतत ।; बेचारी सोबरनी के केत्ता चोटी कहली - ए गे सोबरनी, तोरा न बनतउ भोलवा से, ओकरा पर बड़जतिअन के पराछुत पड़ल हउ साँझे-बिहने माउग के लतवस्से के । बाकि हम्मर बात पर कान न देलक । अप्पन देह के भुँज देलक बिख के घम्मर में । हाए, सउँसे जिल्ला में बरऽ हल सोबरनी, से देखते-देखते लट के परास हो गेल ।)    (बिरायौ॰53.20; 77.20)
1132    बिघिन (= विघ्न)     (पूरा खरमंडल हो गेल । सरकार, अइसन बिघिन पड़ गेल हे कि सब कएल-धएल गुरमट्टी हो रहल हे । बरिआती के लोग सब जनेउ लेले हथ, सूअर-माकर खएबे न करथ । डिब्बा ओला घीउ के बनल पुरिओ न खाथ । बड़ा सकरपंच में पड़ गेली हे ।)    (बिरायौ॰48.21)
1133    बिच (बिचो न होना = टस-से-मस न होना)     (हम्मर भाई के गेठिआ सतावित हे । जरी देख ल । बइदक दवाई करइते-करइते घर खोंक्खड़ हो गेल । सुरु बरसात से बेमारी उपटल हे । दू महिन्ना ले लगवहिए उनाह लेलन, एक मन ले आसो-अरिस्ट पी गेलन, सोना फुँकओली, लोहा कुँकओली, बाकि कारन जरी बिचो न होल ।)    (बिरायौ॰8.1)
1134    बिच्चे (= बीच में; ~ बगइचा = बगीचे के बीच में)     (घुरती चोटी ओकरा कसइलीचक के नओकेंड़ी बगइचवा भिजुन झोल-पसार हो गेलइ । बिच्चे बगइचा एगो देओचारा हलइ फुसहा, ठँवे एगो बड़का चाकर कुइँआँ फिन । सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत ।; दखिनवारी मुसहरी में अन्हारहीं जमकड़ा लगल । पुन्ना पाँड़े विराजित हथ बिच्चे ठइँआ । सउँसे मुसहरी के लोग आवे हे, गोर टो-टो के बइस जाहे ।)    (बिरायौ॰7.8; 57.22)
1135    बिद्दा (= विद्या)     (गयाजी देन्ने के एगो झुनकुट बूढ़ अपिआ मुसहर संकराँत में पुनपुन्ना नद्दी किछारे लगे ओला राजघाट मेला में आल हल, भारी भगत हल । टोना-जादू, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर, पचड़ा-जोगिड़ा सब्भे कुछ में पम्पाइल । परमेसरी बिद्दा में लमहर-लमहर ओझा-बढ़ामन के उ नँ गदानलक मेला में ।; जोतनुओ सब्भे हमनिए निअर अदमी हथ । देखऽ तो, उ लोगिन में बिद्दा के सहचार केत्ता जादे हो गेल । मार डाकडर, मास्टर, अफसर, मिसतिरी के कोई आतागम न हे ।)    (बिरायौ॰7.6; 69.15)
1136    बिन (= बिना) (~ बोलएले)     (गाँइ के छवाड़िक लोग के बइठकी भेल । भुमंडल बाबू के हाँ में हाँ मिलौनिहार गिलटु, टोनु आउ सरूप तहाक के लइकन जुटल । भुमंडल बाबू के चचेरा भाई के छोटका लइका किरती कुमार बिन बोलएले पहुँचल ।)    (बिरायौ॰78.15)
1137    बिन्हा-चइली     (अकलु अप्पन बिन्हा-चइली ले लेलक, झुलंग कुरता पेन्हलक, सहेंट के मुरेठा बान्हलक ... चलल झुमित । तिराकोनी पहुँचल मुसहरिआ में ।; पच्छिम से बरसात के पहिला घट्टा उठल, एक लहरा बरख गेल, बाकि घट्टा न हटल, घोकसले रहल । जनु झपसी लगावत । सहेंट के मुरेठा बाँधले, कान्हा पर बिन्हाचइली लेले बिसेसरा बढ़ल अप्पन गाँव देन्ने उत्तर-पच्छिम मुँहें । अन्हमुहान होइत-होइत पहुँचल अप्पन मुसहरिआ में ।)    (बिरायौ॰45.9; 68.3)
1138    बिपत     (कहलक - सरकार, हम्मर पुरखन के जहाँ पिढ़ी हे, हुँआँ से हम कइसे हट सकऽ ही, हुँआँ दीआ-बत्ती के करत ? सलिआना के चढ़ावत ? एही से मुसुकबन्द ही, न तो आप लोगिन के बात न टारती । बिपतो पड़ला पर जग्गह बदलम त पिढ़ी के कबार के साथ ही लाम ।; सुन, इ हइ मन्नी भगतिनिआ । बेचारी के अइसन बिपत पड़लइ हे कि बुत रहे हे । तोर जान उ दिन बचइलकउ अप्पन जान दाव पर लगा के । तुँ एकर बुतपनइ के दूर करे के जतन करहीं ।)    (बिरायौ॰9.22; 79.13)
1139    बिपत, बीपत (= विपत्ति)     (बेचारा के बेटा हाले उखड़लइ हे आउ आज इ संकट आ गेलइ, कउन जाने जोतनुअन सब का करऽ हइ । तोखिआ भोलवा के बिपत के अप्पन बिपत बुझलक ।)    (बिरायौ॰43.6)
1140    बिम्म (आँख लाल ~ होना)     (साइत के बात । एक रोज मल्लिक मालिक के बेबिआहल बुनिआ के दहिना आँख में पत्थर के गोली से चोट लग गेल, आँख लाल बिम्म हो गेल । डाकडर-हकीम के कउन कमी हल, बाकि आँख में जोत नहिंए आल ।)    (बिरायौ॰9.2)
1141    बिलम (= विलम्ब; देरी)     (पहुनइ कर आवऽ । तोरा से भेंट करके दिल खुस हो गेल । चलूँ, अब निहाहुँ-धोआए के बेरा होल । उक्खिम दिन हे, अब झरके आवे में कउन बिलम हे ।)    (बिरायौ॰37.16)
1142    बिलाना (= गायब होना)     (- अब तुँ अपना में हिनतइ के भओना पावें हे कि न ? - जी न । आप के सहसरंग से हमरा में थोड़-बहुत रजनीतिआ-समाजिआ हबगब पैदा होल । ओकर बाद अपरुपिए बिलाऽ गेल हिनतइ के भओना ।)    (बिरायौ॰63.5)
1143    बिहनहीं (~ से = सुबह से ही)     (बुतरुआ बिहनहीं से छरिआल हइ, सोबरनी ओकरा टाँगले चल आएल नदिआ आँटे पँकड़वा तर ।)    (बिरायौ॰22.9)
1144    बिहने     (बिहने पहर भगत अपन लइकन के समझौलक - देखी जा, लोभ बड़का भूत हे । एकर दाओ में आना न चाही । लोभ में पड़के जहाँ केकरो खेती-बारी के भार लेवे ला सँकारलऽ कि फिनो कोल्हु के बैल बनलऽ, न जिनगी के कउनो ओर बुझतवऽ, न छोर ।; सरकार बात इ हे कि हमरा खाए-पीए के दिक-सिक हे, छुट्टा होए के ओजह से केउ घटला पर डेउढ़ो-सवाइ अनाज न देथिन । साँझ ला सीधा रहल त बिहने नदारत, बिहने जुरल त साँझ के एकादसी । पढ़ना-लिखना जुरला के हे ।; अगे, खाली कहे ला सब बड़जतिआ हइ, जानलें ? बिहने से लेके निसबदिआ ले सास-पुतोह, ननद-भौजाई, बाप-बेटा के महभारत । गाड़ी-गुप्ता झोंटा-झोंटउअल, सरापा-सरापी ।)    (बिरायौ॰10.20; 37.1; 53.17)
1145    बिहान     (बाकि मँगरुआ न उठल खटिआ पर से । आज खटिआ पर से न उठल, बिहान सलाम करना छोड़ देत । सेकरा बाद साथहुँ बइठे के हिआव करे लगत ।)    (बिरायौ॰17.7)
1146    बीगना     (बइठक खतम हो गेल । चललन सामी जी । थोड़िक्के दूर गेलन हल मुसहरिआ से कि एगो लइका एगो कुत्ता पर झिटकी बीग देलकइ । कुतवा भुक्के लगलइ । सामी जी बुझलन कि कुतवा उनका पर धउगत अब । से उ ललटेन के बीग-उग के भाग चललन ।; ए भाई, अइसे कहें हें त जे उच्चा-निच्चा करली से तो करिए गुजारली बाकि अब हमरा बड़ी पछतावा हो रहल हे । आज ले इ काम न कहिओ करली ... । - त गोहुमा के बीग आव जाके, जेकर हइ सेकरे हीं ।; बिसेसरा मकुनी के बीग देलक । मकुनी चित्ते लोघड़ाऽ गेल बिच्चे अखाड़ा ।)    (बिरायौ॰24.5; 27.5; 31.10)
1147    बीगना-उगना     (बइठक खतम हो गेल । चललन सामी जी । थोड़िक्के दूर गेलन हल मुसहरिआ से कि एगो लइका एगो कुत्ता पर झिटकी बीग देलकइ । कुतवा भुक्के लगलइ । सामी जी बुझलन कि कुतवा उनका पर धउगत अब । से उ ललटेन के बीग-उग के भाग चललन ।)    (बिरायौ॰24.7)
1148    बीस (= अनपढ़ ग्रामीण औरतों के द्वारा प्रयुक्त गिनती की इकाई)     (अप्पन सन लेखा केस के हगुआवित-हगुआवित चन्नी माए ठड़े-ठड़े टुभक पड़लन - का भार-भीर परलउ हे गे सोबरनी । एगो लइका भेलउ सेइ से बुढ़ी हो गेलें । एक्को बीस के तो उमर न होतउ ।)    (बिरायौ॰6.4)
1149    बुकना (= बकना ?) (उरदु-फारसी ~; कनून ~)     (बिसेसरा भुनकल- देखलें न स मेहनत के पूजा करे ओला बहादुर के । दस गज धउगहीं में चित हो गेलन ! हिंआ अदमी काम से पेराऽ रहल हे, दू घड़ी दम मारे ला खखनित हे आउ इ आवऽ हथ उरदु-फारसी बुक्के !; अरे टसकबो करबें कि खाली ठाड़-ठाड़ कनुनिए बुकबें ।)    (बिरायौ॰24.12; 25.16)
1150    बुझाना (= लगना, प्रतीत होना)     (सामी जी ओकर गटवा पर तीन गो अँगुरिआ जरी सुन रखलकथिन । - देहवा तो धम-धम बुझाऽ हइ । एकरा पानी सिरगरम करके देवल करऽ ।)    (बिरायौ॰35.8)
1151    बुड़बक (= मूर्ख; खराब, खतरनाक)     (तोखिआ मेरौलक - इक्का डेढ़ बरिस से लोगिन पाँड़े के पँओलग्गी करित हे, आउ अबहीं ले एक्को किताब पढ़े के लुर केकरो न होलइ हे । पाँड़े के फेरा में तो लगे हे अदमी आउ बुड़बक बन जाएत ।; भगवान चहतथुन त महिन्ना लगित-लगित मोटाऽ जतवऽ आउ बेमरिआ भाग जतइ । खोंखी-बुखार के कारन बड़ बुड़बक होवऽ हे ।)    (बिरायौ॰27.27; 35.17)
1152    बुढ़ारी     (मँगरु चा भुनक गेलन - जब तुँहीं अइसन कहें हें त आउ के पढ़त । सब ले सेसर तो तुँ हलें, दुइए महिन्ना में दस बरिस के भुलाएल अच्छर चिन्ह लेलें, किताबो धरधरावे लगलें, से तुँहीं अब न पढ़बें, त हमनी बुढ़ारी में अब का पढ़म ।)    (बिरायौ॰27.22)
1153    बुत     (मन्नी भगतिनिआ आएल हे । बेचारी साल में दस महिन्ना बुत रहे हे । का जनी कउन रोग हो गेलइ हल । आजकल ठीक लगे हे । चन्नी माए खुस हथ अप्पन बहिन के देख के ।; सुन, इ हइ मन्नी भगतिनिआ । बेचारी के अइसन बिपत पड़लइ हे कि बुत रहे हे । तोर जान उ दिन बचइलकउ अप्पन जान दाव पर लगा के । तुँ एकर बुतपनइ के दूर करे के जतन करहीं ।)    (बिरायौ॰50.1; 79.14)
1154    बुतपनइ     (सुन, इ हइ मन्नी भगतिनिआ । बेचारी के अइसन बिपत पड़लइ हे कि बुत रहे हे । तोर जान उ दिन बचइलकउ अप्पन जान दाव पर लगा के । तुँ एकर बुतपनइ के दूर करे के जतन करहीं ।)    (बिरायौ॰79.15)
1155    बुतरु (= बुतरू, बच्चा)     (एगो बुतरु हे ओकरे माया-मोह हे, न त जलगु ले अप्पन सवाँग ठीक हे, तलगु ले दू गो लिट्टी मोहाल न रहत ।)    (बिरायौ॰5.17)
1156    बुतात     (- आज कइसन रहलउ बिसेसरा ? मुटुकवा हे । - आज तो एकदम्मे देवाला हउ हो, कुल्लम एक ठो अठन्नी । तीन आना के लिट्टी-अँकुरी लेलुक हे । रात के बुतात भर बच्चऽ हउ । अप्पन कह ।)    (बिरायौ॰55.12)
1157    बुधिआर     (सब केउ के पढ़वल जात जे में केउ 'काला अच्छर भइँस बरोबर' न रहे । सब केउ बुधिआर हो जाए जे में केकरो सुदखौक, जमिनदार, कलाल-पासी ठगे न पावे ।)    (बिरायौ॰21.15)
1158    बुलना (= चलना)     (जे अप्पन माए, माउग, बहिन, आउ धिआ तक के घर के छरदिवारी के भितरहीं आँख देखा के, मार-पीट के, बान्ह के रक्खे - ओही नीच हे । जेकर मगज में घीन के पिल्लु बुल्लित रहे हे - ओही नीच हे ।)    (बिरायौ॰65.14)
1159    बूढ़ (झुनकुट ~)     (गयाजी देन्ने के एगो झुनकुट बूढ़ अपिआ मुसहर संकराँत में पुनपुन्ना नद्दी किछारे लगे ओला राजघाट मेला में आल हल, भारी भगत हल । टोना-जादू, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर, पचड़ा-जोगिड़ा सब्भे कुछ में पम्पाइल ।)    (बिरायौ॰7.4)
1160    बून (= बूँद)     (हमनिओ के मन करे हे खटिआ-मचिआ पर साँप-बिच्छा से निहचिंत होके सुत्ते के, बेमउगत के मरित अप्पन सवाँगन के परान बचावे ला डाकडर हीं से दू बून दवाइ लावे ला हमहुँ चाहऽ ही, बाकि का अइसन कर पावऽ ही ?)    (बिरायौ॰69.26)
1161    बेंचना-खोंचना     (पँड़वा तो कहे हे कि "इ गुरुअइ का करत, खाली ढकोसला रचना चाहे हे, जे में रेआन के भलाइ-करंता गिनाइ आउ रेआन केउ चाल-चलन पर सक न करे, एक्कर सब्भे रंग-ढंग चार-से-बीस के हउ, दाव मिलतउ तो दू-चार गो लड़किओ के ओन्ने हटा के बेंच-खोंच देतइ ।")    (बिरायौ॰19.25)
1162    बेंट     (भोलवा एक ठो छूरा इँकाल के देखौलकइ - देखऽ न, दू रुपइआ में किनलिवऽ हे । - दुए रुपइआ में ? मोहना से का लेले हें ? - हाँ, कइसे जानलऽ ? - हमरो देखएलकइ हल, बाकि हमरा भओगर न लगलइ । - बेंटवा तो बड़ा तओगर लगऽ हइ ।)    (बिरायौ॰18.26)
1163    बेइजती (= बेइज्जती, अपमान)     (- इ अच्छा न होलइ माए, दुन्नो के मन मिलल हलइ त दुन्नो बिआह करके रहत हल । / - कइसे रहे ! उ में कातो सरुप के बेइजती हलइ, इ में झाँकन हो गलइ ।)    (बिरायौ॰6.24)
1164    बेकेंबाड़ी     (बिच्चे मुसहरी एगो नीम के पेंड़ फुलाइत हे । चार गो गबड़ा । सब घर बेकेंबाड़ी के । पुरब तरफ एगो तेली के दुकान, सटले पसिखाना ।)    (बिरायौ॰11.10)
1165    बेख (= गाँव, पैत्रिक स्थान; वेष, भेष)     (सल्ले-बल्ले भोलवा उठल, घरे गेल । घरे लुकना ठीक न बुझलक । अप्पन छुरवा लेलक, एक बोतल खाँटी सराब लेलक, बोलल - एक-दू दिन में तुहुँ चल अइहें । आउ दक्खिन रोखे सोझ हो गेल । जनु अप्पन बाप के बेख पर मेंहदीचक जाइत हे ।)    (बिरायौ॰43.12)
1166    बेखेत     (गाँवन के आन रेआन लोग, जे बेखेत के हे आउ नौकरी-चाकरी फिन न कर रहल हे, जदगर छुट्टा मजूरी करे हे, आउ जनावर पोसे-पाले हे । हमनिओ अइसन कर सकऽ ही ।)    (बिरायौ॰70.19)
1167    बेगर (= वगैर, बिना)     (कटनी होतहीं गिढ़थ उलट गेल - बेगर रुपइआ भरले पैदा कइसे ले जएबऽ, खइहन के डेओढ़िआ लगतवऽ ।; का हड़ताल करबऽ, गछ लेतवऽ मजुरी जेतना माँगबहु ओतने आउ खरिहनिए में खेतवा के पैदवा में से काट लेतवऽ, का करबहु ! हवऽ आथ ? दसो दिन बेगर कमएले जुरतवऽ अन्न !; एँसो हिंआ धान मुआर कटाल हल । भात न देही त सब चटइआ से काट देत । फिनो पिछाड़ी मिले में बेगर डंड-जुरमाना के गुजारे न हे ।; बतवा तो एही हइ, बाकि एका तो रखहीं पड़तइ, एकरा बेगर कइसे काम चलतइ । अपने हर के जोतत ।)    (बिरायौ॰14.14; 15.16; 43.22; 73.11)
1168    बेगरतहपन     (अब बताइ, लोभ दे हथ गिढ़थ एक बिग्घा खेत के पैदा के आउ आधे मजुरी पर सालो खटावऽ हथ, जब फस्सल के बेरा आवे हे त दुसरे राग अलापऽ हथ । एकरो ले बढ़के बेगरतहपन होवे हे ? )    (बिरायौ॰15.4)
1169    बेगरताह     (ए कनिआ ! भाइओ-भाइ में जइसन किलमिख-तिरपट हिंआ हे, ओइसन हमनी छुच्छा में न पएबऽ । एक भाई कहत - तुँ एकसिरताह हें, खाली अपने धिआ-पुता ला मरें हें । दूसर कहत - तुँ बेगरताह हें, तोरा ला हम का न करली, बाकि तुँ भुलाऽ गेलें । तोरा निअर हम निरगुनिआ न ही ।)    (बिरायौ॰65.19)
1170    बेजाए     (एतबर भगतिन । दवा-बिरो, झाड़-फूँक आउ टोटमा में तोर चन्नी माए चन्निए माए हथ, सिनका तो तुँ कलपावें हें, कलपाना चढ़तउ कि का । डाँक बाबा, टिप्पु, राम ठाकुर, जंगली मनुसदेवा, बैमत, देवि दुरगा, गोरइआ, राह बाबा, किच्चिन, भूत-परेत सब्भे खेलवऽ हथ ... न इ बड़ा बेजाए करें हें ...।)    (बिरायौ॰25.12)
1171    बेजी (= समय)     (अइसे कहे हें, त भोलवा के खाली एक बेजी सोंचे के देरी हउ न तो फिनो एक दिन न चुकतउ ... ले उक्का भोलवा आहीं गेलउ ... ।; हमनी के पहिले काहाँ मालूम हल कि उ कमनिस हे । - कमनिस हइ हो ? - हाँ, गँउआ के लोगिन बोलित हलइ कि कमनिस कमिअन के बहका दे हे आउ रोपनी चाहे टँड़वाही बेजी गिरहत के काम छोड़वा दे हे ।; हँस्सी बरे के बात बता दुक । एज्जे एक बेजी एगो लड़की, जेकरा देखतहीं हम भुलाऽ जा हली दुनिआ के, एही बेरा घाँस गढ़ित भेंटल हल । आउ आज तुँ भेंटलें हें !)    (बिरायौ॰13.8; 19.11; 39.16)
1172    बेजोरु (= बिना जोरू)     (- अरे मारे न रे मुँहझौंसा, तोरे से हमरा दिन निबहे ला हे ! हमरा तुँ जेत्ता पेर लें, फेर पछतएबें ... पेर ले ...। - अब का खाउँ, इ कुतिआ हमरा दू कोर खाहुँ देवत ! हे भगवान, अइसन जोरु से बेजोरु के अदमी नीमन हे ... संको बिसेसर आज ले सगाइ न करलक हे, बेस करलक जे बेमाउग-मेहरी के हे, न तो हमरे निअर कोरहाग में पड़त हल ...।)    (बिरायौ॰33.16)
1173    बेफएदे (= व्यर्थ का/ में)     (इ मत कह भाई । सब्भे जोतनुअन के सुर बिगड़ल हउ, साइत के बात हे । तुँ तो पलखत पाके तड़काऽ-पड़काऽ देतहीं, आउ हिंआ पड़तइ हल सउँसे मुसहरी पर । बेफएदे कुन्नुस बढ़ावे से कुछ मिले-जुले ला हइ ? हट जएबें त ठंढाऽ जतइ ।)    (बिरायौ॰43.3)
1174    बेबात (~ के बात)     (एगे, तोरा सुनाहीं ला करले हलुक, से तुँ बेबात के बात छेड़ देलें । सहजू बाबू के पुतोह एसों बी.ए. एम.ए. पास करकथिन हे, से आल हथिन । रोज हमरा बोलाऽ पेठावऽ हथिन कि मुसहरी के गीत लिखाऽ दे ।)    (बिरायौ॰61.13)
1175    बेबिआहल     (साइत के बात । एक रोज मल्लिक मालिक के बेबिआहल बुनिआ के दहिना आँख में पत्थर के गोली से चोट लग गेल, आँख लाल बिम्म हो गेल । डाकडर-हकीम के कउन कमी हल, बाकि आँख में जोत नहिंए आल ।)    (बिरायौ॰9.1)
1176    बेबोलएले (= बिना बुलाए)     (चन्नी माए बेबोलएले घर में घुँस के आसन लगवे ओली हलन, से अँगना में आ जमलन । सोबरनी बइठे ला एगो चापुट लकड़ी रख देलकइन, अपनहुँ सट के बइठ रहल ।)    (बिरायौ॰6.14-15)
1177    बेमउगत (= बेमौत)     (तुँहु कहऽ हलें कि अदमी न पढ़ल हे त बेमउगत मरिते हे । डाकडर दवाइ दे हे बाकि जाहिल होए के ओजह से हमनी ओकरा ठीक समए पर कन्ने दे ही, बरउनी कन्ने करऽ ही, नतीजा इ हे कि मरित ही बेमउगत । झाड़-फूँक के चक्कर में पड़ जा ही ।; हमनिओ के मन करे हे खटिआ-मचिआ पर साँप-बिच्छा से निहचिंत होके सुत्ते के, बेमउगत के मरित अप्पन सवाँगन के परान बचावे ला डाकडर हीं से दू बून दवाइ लावे ला हमहुँ चाहऽ ही, बाकि का अइसन कर पावऽ ही ?)    (बिरायौ॰28.24; 29.1; 69.25)
1178    बेमन (~ के बिआह)     (न गे, सोबरनी के केउ चाहे कि फुसलाऽ ली त इ होवे ओला बात न हे । ... बाकि बेमन के बिआह ठीक न होवे हे, न गे । इ बात में एन्ने अदमी जोतनुअन से नीमन हे । उ सब में मेहररुअन के बड्डी दुख रहऽ हइ । रोज मारपीट, रगड़ा-झगड़ा ... ।)    (बिरायौ॰53.14)
1179    बेमाउग-मेहरी     (- अरे मारे न रे मुँहझौंसा, तोरे से हमरा दिन निबहे ला हे ! हमरा तुँ जेत्ता पेर लें, फेर पछतएबें ... पेर ले ...। - अब का खाउँ, इ कुतिआ हमरा दू कोर खाहुँ देवत ! हे भगवान, अइसन जोरु से बेजोरु के अदमी नीमन हे ... संको बिसेसर आज ले सगाइ न करलक हे, बेस करलक जे बेमाउग-मेहरी के हे, न तो हमरे निअर कोरहाग में पड़त हल ...।)    (बिरायौ॰33.17)
1180    बेमारी     (हम्मर भाई के गेठिआ सतावित हे । जरी देख ल । बइदक दवाई करइते-करइते घर खोंक्खड़ हो गेल । सुरु बरसात से बेमारी उपटल हे ।; भगवान चहतथुन त महिन्ना लगित-लगित मोटाऽ जतवऽ आउ बेमरिआ भाग जतइ । खोंखी-बुखार के कारन बड़ बुड़बक होवऽ हे ।)    (बिरायौ॰7.25; 35.16)
1181    बेर (~ झुकना; ~ डूबना)     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।; बेर डूब रहल हल । भोलवा पसिटोला देने जा रहल हल, रहवे में भेंटाल बिसेसरा ।)    (बिरायौ॰5.8; 18.1)
1182    बेरा (= बेला, समय)     (जउन बेरा अनाज देलिवऽ हल, मसुरी पत मन अठारह रुपइआ बिक्कऽ हल, इ घड़ी बारह हे, डेओढ़िआ देबऽ तइओ हमरा डाँड़े लगित हे, बाकि हरवाहा गुने कम्मे लेइत हिवऽ ... ।; चलऽ न दू चुक्कड़ पीके तुरते लौटे के, पठसाला के बेरा होइए रहलवऽ हे ।; पहुनइ कर आवऽ । तोरा से भेंट करके दिल खुस हो गेल । चलूँ, अब निहाहुँ-धोआए के बेरा होल । उक्खिम दिन हे, अब झरके आवे में कउन बिलम हे ।; हँस्सी बरे के बात बता दुक । एज्जे एक बेजी एगो लड़की, जेकरा देखतहीं हम भुलाऽ जा हली दुनिआ के, एही बेरा घाँस गढ़ित भेंटल हल । आउ आज तुँ भेंटलें हें !)    (बिरायौ॰14.16; 18.11; 37.15; 39.17)
1183    बेराम (= बीमार)     (आउ संचे उ महिन्ना पुरते-पुरते खेत-बधार घुमे लगलन । लोंदा भगत के नाँओ खिल गेल । अब कसइलीचक में केउ बेराम पड़े, आउ औसान से कारन न हटे त लोंदा भगत कन अदमी धउगे भभूत लागी ।; - का हइ माए, इ घड़ी ? - इ घड़ी अइलुक हे तोरा बोलवे । देखित हें इ सम्हर, रात भर बरखा बरखतउ । भींजल रहबें त बेराम पड़ जएबें । चल हाली ।)    (बिरायौ॰8.19; 76.20)
1184    बेरामी     (बिसेसरा तो कहऽ हइ सामी जी कि होमीपत्थी से बेरामी अच्छा होवऽ हइ त तलवर अदमिअन अपने काहे आलापत्थी दवाई करावऽ हथिन ?)    (बिरायौ॰38.22)
1185    बेला-फार     (लइकन खनो बेला-फार जमवे, खनो बाघ-बकरी । बुढ़वन चौपड़ पाड़ना सुरु कएलक । एक घंटा ले असमान घोकसल रहल । सरेकगर लइकन चिक्का में पिल पड़ल ।)    (बिरायौ॰41.11)
1186    बेलूरा     (हम्मर मुसहरिआ में एगो मुसहरनी हइ, उ केतना गीत बनाइए के गा दे हइ । बाकि आन औरतिअन चिन्ह ले हइ त रोक दे हइ, त फिनो असली गावे लगऽ हइ । - केतना सीन के हइ हो ? - फिन बेलूरा ओला बात । - बेलूरा हम ही, कि तुँ हें ।; - ए बिसेसरा, हम तोरा से सगाइ न करबउ । - काहे ? - तूँ अबहीं बेलूरा हें, अल्हड़ हें । - दु बरिस के बाद ? - कबहिंओ न ।; - जब तुँ जनेउ न लेबऽ, त हमनिओ उतार देम । तोखिआ बोलल । - इ कोई बात हे । अपना-अपना समझ-बूझ के मोताबिक चले के चाही, देखहिंसकी बेलूरा के चीज हे ।)    (बिरायौ॰56.5, 6; 61.3; 68.16)
1187    बेल्लाग     (एक बात तो हमरा इ मालूम हो हे कि पढ़इआ के निसाना होए के चाही अदमी में छुट्टा विचार के जोत जगाना, हर चीज पर पुरान ठोकल-बजावल नओनेम से बेल्लाग होके सोचे के ताकत पैदा करना ।)    (बिरायौ॰62.13)
1188    बेस (= अच्छा, ठीक)     (घुरती चोटी ओकरा कसइलीचक के नओकेंड़ी बगइचवा भिजुन झोल-पसार हो गेलइ । बिच्चे बगइचा एगो देओचारा हलइ फुसहा, ठँवे एगो बड़का चाकर कुइँआँ फिन । सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत ।; भुमंडल बाबू हद्दे-बद्दे पानी पी के उठलन, जुत्ता पेन्हलन, छाता लेलन । माए के कँहड़े के अवाज सुनलन । - मन बेस हवऽ न माए ? - हाँ बबुआ । कहुँ जाइत हें का ?)    (बिरायौ॰7.10; 79.3)
1189    बेसतर (= बेहतर)     (पसिटोलवा पर बड़ी भीड़ लगल हलइ । दुरे से अकाने से बुझलइ जइसे पिआँके-पिआँक में कहा-सुन्नी हो रहलइ होए । घुरिए जाना बेसतर समझ के दुन्नो लौटे लगल ।)    (बिरायौ॰18.15)
1190    बेसी (= अधिक, ज्यादा)     (झोपड़वा में एगो जोतनुआ एगो खटोला पर खरहट्टे गोरथरिआ देन्ने माथ कएले पड़ल हल । बोलल - आवऽ भगतजी, ठहरना चाहऽ ह त हिंए ठहर जा, कोई बात के तकलीफ न होतवऽ । उ गछुलिआ आँटे दू बोझा पोरा रक्खल हइ, लेके पड़ रहऽ, बेसी जुड़जुड़ी बुझावऽ त दिसलाइओ हे, आग ताप ले सकऽ ह ।)    (बिरायौ॰7.15)
1191    बेहज     (तुँही कुछ उपाह सोंच सके हे ... हमनी के जिनगी तो गुलामी से बेहज हे । मंगरु चा के आँख लोराइत हे ।)    (बिरायौ॰15.19)
1192    बेहुरमत (~ करवाना)     (बजरंगवा के मुखिअइ के गुमान हइ त हमहुँ कोई भोथर अदमी न ही । इ का कि कोई के बेराए देखली त ओकर बहू-बेटी के गाएब करवा देली, बेहुरमत करवा देली । अब ओकरा मुखिअइ कएल हो गेल ... ।; केउ लड़का आन जात के लड़की से बिआह करे त ओकर पीठ पर रहे सब केउ ... किरिआ-कसम के साथ तय हो गेल ... इ का कि जात में बिआह नहिंओ होला पर आन जात से बिआह करला पर डंड लेवल जाए, पंचइती करके बेहुरमत कएल जाए ।)    (बिरायौ॰44.12; 78.24)
1193    बैमत     (एतबर भगतिन । दवा-बिरो, झाड़-फूँक आउ टोटमा में तोर चन्नी माए चन्निए माए हथ, सिनका तो तुँ कलपावें हें, कलपाना चढ़तउ कि का । डाँक बाबा, टिप्पु, राम ठाकुर, जंगली मनुसदेवा, बैमत, देवि दुरगा, गोरइआ, राह बाबा, किच्चिन, भूत-परेत सब्भे खेलवऽ हथ ... न इ बड़ा बेजाए करें हें ...।)    (बिरायौ॰25.11)
1194    बोंग     (पलटु एक-दू पिआली घरउआ दारू पीलक, एगो बोंग लाठी लेलक आउ सल्ले-बल्ले उत्तर मुँहे सोझ हो गेल । पिपरिआ आँटे जाके बइठ रहल ।)    (बिरायौ॰25.1)
1195    बोझा (= किसी चीज का एक साथ बँधा बोझ; पवनियाँ को दी जानेवाली कटी फसल)     (झोपड़वा में एगो जोतनुआ एगो खटोला पर खरहट्टे गोरथरिआ देन्ने माथ कएले पड़ल हल । बोलल - आवऽ भगतजी, ठहरना चाहऽ ह त हिंए ठहर जा, कोई बात के तकलीफ न होतवऽ । उ गछुलिआ आँटे दू बोझा पोरा रक्खल हइ, लेके पड़ रहऽ, बेसी जुड़जुड़ी बुझावऽ त दिसलाइओ हे, आग ताप ले सकऽ ह ।)    (बिरायौ॰7.14)
1196    बोर (= डुबाने की क्रिया; मछली का चारा; मिट्टी की नापी के लिए छोड़ा गया चिह्न; स्त्रियों के सिर पर का एक गहना)     (त सेइ समिआ हिंए जम्मल रहतइ गे । देखिहें, एकाद महिन्ना में सोबरनी साथे न इँकस गेलउ हे त कहिहें । रुपइवा दे हइ त उ बोर न हइ त आउ का । पुरबिल्ला के कमाइ रक्खल हइ समिआ हीं ।; दिक-सिक होला पर मजूर देह धरे हे । फिन गिरहत कीनल बैल समझऽ हथ ओकरा । जइसे मछरी बंसी के काँटा के बोर न देखे हे आउ फँस जा हे चक्कर में, ओइसहीं मजूर हरवाही गछ के फँस जा हे । बिसेसरा बोल गेल ।)    (बिरायौ॰54.2; 67.18)
1197    बोलंता     (सामी जी, भुमंडल बाबू आउ अनेगा लोग, पलटु मूँड़ी निहुरएले । सामी जी बोलंता के हाव-भाव में बोलित हलन - हमरा पिछु दोख मत दीहें । हम खरचा-बरचा ला तइआर हुक । इ बजरंगवे के बरजाती हे । इ में सक करना बेकार हे ।)    (बिरायौ॰44.7)
1198    बोलना-उलना     (उ बोले लगल, बोल-उल के बइठ गेल त फिन थपड़ी बजलइ । ल, ओकर करवा ओला गलफुल्ला अदमिआ उठके बोले लगलइ ।)    (बिरायौ॰52.6)
1199    बोलहटा (= बुलाहट)     (सब्भे पंच पहुँच चुकल हे, खाली भुमंडल बाबू के पहुँचे के देरी हे । आध घंटा हो गेल, बोलहटा जा चुकल बाकि अबहीं ले उ न पहुँचलन ।)    (बिरायौ॰80.8)
1200    बोला-बगटी     (त तो खुब्बे भलाई करतउ, गिरहत के अन्न खतउ, से हमनी के पट्टी रहतउ । जरी सुन, केउ के सूअर-माकर केकरो खेत में पड़लउ आउ बोला-बगटी होलउ, बस धर-पकड़ करौलकउ । अबहिंए हमनी के चेत जाना बेसतर हे । जहाँ हमनी लास-फुस लगएलें, लल्लो-चप्पो कएलें कि डेरा जमा देलकउ आउ आगु चल के हमनिए के दिक-सिक करतउ ।; माए-बाप हमरा भोलवा नाँव धरलक हल से हिंआ रोजिना के बोला-बगटी से मिजाज अइसन दोम हो गेल कि केकरो मिट्ठो बात हमरा न सोहाऽ हे । आज गिढ़त से झगड़ा हो गेल हे, अब हिंआ से न टरम त जान के जोखिम हे ।)    (बिरायौ॰21.25-26; 42.5)
1201    भँगुआल     (बड़ी अँखिए निदाँऽ रहल हे पंडी जी । - अच्छा, सुत । भँगुआल में बातो करना ठीक नहिंए हे ।; भँगुआल निअर मुँह बनएले जम्हाइ लेवित बिसेसर इँकसल, सामी जी के देख के सलाम करलक - सरकार से भेंट करे ला आज आहीं ला हली बाकि माथा भरिआल निअर हे, सेइ से पड़ल हली ।; आज सगरो नाया जमाना के किरिंग पसर रहल हे, जे सुतल हल, उ जगित हे । जे ठुमकल हल, उ बढ़ चलल हे । जे आजो भँगेड़ी निअर भंगुआल पड़ल रहत, उ फिन आउ कब जागत ।)    (बिरायौ॰23.19; 36.8; 69.13)
1202    भंडरकोनी     (भंडरकोनी ओला गबड़वा में दू गो लइकन पँक-पड़उअल में रमल हल । अररवा पर जाके सामी जी पुकारलन - लइकवन डेराएले निअर सकपकाएल पँकवा में से उप्पर होइत गेलइ ।)    (बिरायौ॰35.25)
1203    भइआरे (= भाईचारा)     (एक बात तो हमरा इ मालूम हो हे कि पढ़इआ के निसाना होए के चाही अदमी में छुट्टा विचार के जोत जगाना, हर चीज पर पुरान ठोकल-बजावल नओनेम से बेल्लाग होके सोचे के ताकत पैदा करना । हमरा महतमा रूसो के भइआरे, बराबरिआँव आउ अजादी के नओनेम से इँजोरा मिलल हे ।; मुसहरी के लोग बात-बात में जोतनुअन के रेवाज, विचार आउ मेहिनी के दुस्से हे जरुर, बाकि अब हम समझ गेली कि उ गलती रहता हइ । आपुस में भइआरे आउ नेह रहे ।)    (बिरायौ॰62.15; 63.16)
1204    भओगर     (भोलवा एक ठो छूरा इँकाल के देखौलकइ - देखऽ न, दू रुपइआ में किनलिवऽ हे । - दुए रुपइआ में ? मोहना से का लेले हें ? - हाँ, कइसे जानलऽ ? - हमरो देखएलकइ हल, बाकि हमरा भओगर न लगलइ ।)    (बिरायौ॰18.25)
1205    भओना (= भावना)     (मुसलमान चाहे किरिसतान के छूअल पानी फिन आप न पीअम, बाकि इ से उ लोग के मन में हिनतइ के भओना कन्ने जम्मे हे । जदगर बढ़ामन तो छुच्छे हथ, अनपढ़े हथ बाकि उनकर मन में हिनतइ के भओना न बसे ।)    (बिरायौ॰12.13, 14)
1206    भक्खा (= भाखा, भाषा)     (- बिसेसर भाई चुप्पे रहतन ? मोहन बाबू बोललन । - पहिले से तो हम गूँग जरुरे हली बाकि जइसहीं आपलोग सबलोगा भक्खा में कार सुरू करली तइसहीं हम्मर मुँह के बखिआ तड़तड़ाऽ गेल ।)    (बिरायौ॰67.8)
1207    भठना     (आज सरब जात के लोग गुरुअइ कर रहल हे, कलजुग न ठहरल । सब के कइसहुँ भठना ठहरल । ... हम्मर काम हल मुसहरी सेवे के ? ... बाकि का करूँ !)    (बिरायौ॰46.23)
1208    भन्नक (= भनक)     (आध घंटा हो गेल, बोलहटा जा चुकल बाकि अबहीं ले उ न पहुँचलन । छवाड़िक लोग सोंचित हे - जनु उनका कुछ भन्नक मिल गेल हे, अब उ का अएतन । ... खबर आएल । भुमंडल बाबू के जीउ न ठीक हइन, उप्पर हो गेलइन हे ... ।)    (बिरायौ॰80.9)
1209    भरनठ (= भ्रष्ट)     (मल्लिक-मालिक डाँक ठोकलक - त हम दू-दू हर के जोत देबुअ, चार बरिस ले खइहन-बिहन देबुअ आउ रहे लागी पँकइटा के बनल एक कित्ता अप्पन मकान फेर । बाभन मालिक कहलक - मुसलमान हीं रहबऽ त जात भरनठ हो जतवऽ ।)    (बिरायौ॰10.16)
1210    भरभराना     (बिसेसरा भरभराए लगल - आज भोलवा के टोकारा देलिवऽ हल मंगरु चा । कहलिअइ - "देख भोलवा, जिनगी अकारथ जतउ, पढ़वे-लिखबें त लोक-परलोक दुन्नो बनतउ । लाठी-बद्दी के जमाना गेलउ, नाया जमाना में ओही अदमी हे, जे पढ़ल-लिखल हे, देस-परदेस के खबर रक्खे हे ... ।")    (बिरायौ॰13.53
1211    भराना (= अ॰क्रि॰ भर जाना; स॰क्रि॰प्रे॰ भरवाना)     (सोबरनी अँगनवा में ठाड़ा भेल, नदिआ देन्ने ताकलक - सुक्खल ढनढन नद्दी, एक्को ठोप पानी नँ । अब एकरा में कहिओ पानी न अतइ, कातो मुँहवे भरा गेलइ ! हाए रे मोरहर नद्दी !)    (बिरायौ॰5.2)
1212    भराव     (रत-पठसाल खोलल गेल । बजरंग के भराव ओला दरखत नाया-नाया कम्पा से भर गेल । बजरंग फिनो हाँथी-घोड़ा सपनाए लगल ।)    (बिरायौ॰49.25)
1213    भरिआल     (भँगुआल निअर मुँह बनएले जम्हाइ लेवित बिसेसर इँकसल, सामी जी के देख के सलाम करलक - सरकार से भेंट करे ला आज आहीं ला हली बाकि माथा भरिआल निअर हे, सेइ से पड़ल हली ।)    (बिरायौ॰36.10)
1214    भहरना     (आगु-आगु चन्नी माए, पीछु-पीछु बिसेसरा । जइसहीं दस गज बढ़ल कि घरवा के भितिआ भहर गेलइ । - ले बिसेसरा, हें तकदीर ओला । आज चँताइए जएतें हल, भागो सोबरनी आके हमरा जगौलक आउ कहलक कि बरखवा में बिसेसरा भिंजित होतइ, मड़इआ उदाने हइ, बोलाऽ लेतहु हल ।)    (बिरायौ॰76.23)
1215    भाओ-चाँपी     (- चीज-बतुत के दाम बढ़ाऽ के सेठ लोग जे धन अरजित हे ओकरा तुँ कइसन समझे हें ? - "भाओ-चाँपी" से ओकरा रोकल जाए के चाही ?)    (बिरायौ॰63.19)
1216    भागो (= ई भाग के बात हइ कि; भाग्यवश)     (आगु-आगु चन्नी माए, पीछु-पीछु बिसेसरा । जइसहीं दस गज बढ़ल कि घरवा के भितिआ भहर गेलइ । - ले बिसेसरा, हें तकदीर ओला । आज चँताइए जएतें हल, भागो सोबरनी आके हमरा जगौलक आउ कहलक कि बरखवा में बिसेसरा भिंजित होतइ, मड़इआ उदाने हइ, बोलाऽ लेतहु हल ।)    (बिरायौ॰76.24)
1217    भार-भीर     (गलिआ में दू गो चार गो अउरत-मेढ़ानु तो बरमहल अइतहीं-जइतहीं रहऽ हइ, बाकि चन्नी माए के देख के सोबरनी चुप हो गेल । अप्पन सन लेखा केस के हगुआवित-हगुआवित चन्नी माए ठड़े-ठड़े टुभक पड़लन - का भार-भीर परलउ हे गे सोबरनी । एगो लइका भेलउ सेइ से बुढ़ी हो गेलें ।)    (बिरायौ॰6.3)
1218    भारी (= बड़गो, बड़गर; बहुत, बड़ा)     (भारी कटकुटिआ हे बिसेसरा, बात-बात में गलथेथरी करे लगे हे - पंडी जी, पत मुसहरी के दू-चार अदमी पत बरिस भाग के दूसर मुसहरी में सरन ले हे । कोई अइसन उपाह बताइ जे में केकरो जनमभुँई न छोड़े परे ।)    (बिरायौ॰14.25)
1219    भिजुन (= बिजुन; पास)     (घुरती चोटी ओकरा कसइलीचक के नओकेंड़ी बगइचवा भिजुन झोल-पसार हो गेलइ । बिच्चे बगइचा एगो देओचारा हलइ फुसहा, ठँवे एगो बड़का चाकर कुइँआँ फिन । सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत ।)    (बिरायौ॰7.8)
1220    भित्ती (= भीत; मिट्टी की दीवार)     (रात खनी करिवा बादर उठल आउ लगल ह-ह ह-ह करे । भित्ती तर सटक के बिसेसरा बचना चाहलक बाकि चोटगर बरखा आउ ठठ गेल । ओकर कपड़ा-लत्ता भींज के पोतन हो गेल, कहाँ जाए ?)    (बिरायौ॰76.6)
1221    भिनसरवा     (देखी मालिक, दीदा के रोग हे, खेल नँ हे । बउआ के रोहता ठीक लउके हे, इ से हमरा उम्मीद हे । माइँ से एक महिन्ना ले दू घड़ी रोज भिनसरवा में चूड़ा कुटवाइ, हम बहरसी बइठ के 'देवास' करम ।)    (बिरायौ॰9.8)
1222    भिरी (= भीर; पास)     (- ए कनिआ, जदि हमरा इ मालूम रहत हल त हम अएबे न करती । हमनी छुच्छन के आप लोग से हेलमेल रखना नीको न हइ । - न न, तुँ आओ जरुरे दीदी, कल्पना नाया जमाना के अदमी हे । दबाव एक छन न गवारा कर सके हे । आउ छोट-बड़ के सवाल हमरा भिरी आके उठावथ भुमंडल बाबू ।; उपरी पहर दखिनवारी मुसहरी भिरी नद्दी किछारे चमोथा पर गाँव-जेवार के मुसहरन के भारी जमाव होत । बिसेसर भइआ नेओतलन हे भइआरे ।)    (बिरायौ॰65.9; 69.7)
1223    भींजना-तीतना     (सावन-भादो में चार घोंट अहरी के अन्डर बोए पानी के अस्तालक पर सगर दिन लप-निहुर के बरखा-बुन्नी में भींज-तीत के रोपा-डोभा करम हँम, आउ इ जुअनिआ-मुना पसिनिआ के फेर में पइसा जिआन करत, पी-उ के गारी-गुप्ता करत ।)    (बिरायौ॰5.10)
1224    भीर (= भिर, पास)     (बढ़ामन, बाभन, कुरमी सब्भे जात के जोतनुअन के छवाड़िक के रोख बिगड़ल, मँगरुआ के पकड़ लौलक सब भुमंडल बाबू भीर - देखी गेंहुम सिसोह रहल हल । - मार सार के दू-चार तबड़ाक ! मंगरुआ ढनमना गेल ।; पुरबारी मुसहरी । लमगुड्डा झोललका सुअरवा के अकसरे कन्हेटले जा रहल हल । बजरंग बाबू के देखके बड़ा सकुचाऽ गेल । 'सलाम सरकार' कहके हाली-हाली डेग उठएलक । सुअरवा के दुअरिआ भीर बजाड़ के मुड़ल ।)    (बिरायौ॰17.10; 48.4)
1225    भुँइआ (= भूमि, जमीन)     (पहिले मल्लिक मालिक लग केउ मलगुजारी देवे चाहे सलामी देवे जाए त हेंट्ठे बइठे, भुँइए पर । का बाभन रइअत, का कुरमी रइअत । त बाभन लोग गते-गते चँउकी पर बइठे लगल । त फिन कुरमी लोग बइठे लगल ।)    (बिरायौ॰16.2)
1226    भुँजना (= भूँजना, जला डालना)     (बेचारी सोबरनी के केत्ता चोटी कहली - ए गे सोबरनी, तोरा न बनतउ भोलवा से, ओकरा पर बड़जतिअन के पराछुत पड़ल हउ साँझे-बिहने माउग के लतवस्से के । बाकि हम्मर बात पर कान न देलक । अप्पन देह के भुँज देलक बिख के घम्मर में । हाए, सउँसे जिल्ला में बरऽ हल सोबरनी, से देखते-देखते लट के परास हो गेल ।)    (बिरायौ॰77.20)
1227    भुआना     (कद्दर तो पलटुओ के बहुत कम गेलइ हे । मँदरा बजावे में पुछाऽ हल, मार पलटु भइआ, पलटु भइआ ! अब सामी जी के रेडिओ सहिए-साँझ से घोंघिआए लगे हे, अब पलटु के माँदर भुआ जएतन !)    (बिरायौ॰52.22)
1228    भुइँआ     (भुइँआ तो सब ले उत्तिम जात हे । जे लोग अदमी के धिआ-पुता के जनावर समझे हे, कमाए से घिनाऽ हे आउ दूसर के कमाइ खाए में न सरमाए - ओही नीच हे ।; - रेआन के मुखिआ हो जाए से हमनी के केतना हिनसतइ हे । बजरंग कहलक । - ढकनी भर पानी में डूब के मर जाना बेसतर हे एकरा ले ! रेआनो में एकदम भुइँआ । भला कहऽ । भुमंडल बाबू जोड़लन ।)    (बिरायौ॰65.10; 73.24)
1229    भुकना (= भूँकना)     (रहतवे पर एगो कुत्ती आँख मुँदले पड़ल हल, सामी जी के देख के घोंघिआल, बाकि भुक्कल न, लुदकी चाल में उठ के भागल ।)    (बिरायौ॰34.23)
1230    भुक्खे (= भुखले; भूखे)     (भगत इनकारतहीं जाए । आखिर मल्लिक-मलकिनी केंबाड़ी के पल्ला के औंड़ा से कहलन - भगत जी, हम्मर बात रख देथिन, न तो हम भुक्खे जीउ हत देम ... ।)    (बिरायौ॰9.25)
1231    भुक्खे-पिआसे (= भुखले-पियासले)     (चन्नी माए झूठ न कहऽ हथिन, हे इ मरदाना सुद्धे, बाकि हमरे मुँहवा से एक्को नीमन, सोझ बात तो न इँकलइ । दिन भर गिढ़थ के उबिअउनी-खोबसन से जरल-भुनल आवऽ हल घरे भुक्खे-पिआसे हाँए-हाँए करित, हम तनी एक लोटा पानी लाके देतिक, दूगो मीठ बात करतिक, बेचारा के मिजाज एत्ता खराब न होतइ हल ।)    (बिरायौ॰22.16)
1232    भुतिआना (मिजाज ~)     (चल हमरे मेहरिआ नखरा पसारले हल ... । कहुँ के जतरा करऽ, टोक-टाक करे लगतवऽ, बड़ा मिजाज भुतिआऽ गेल, दू लाती लगइली हे त छाती में मुक्का मार के चिचिआए लगल ।)    (बिरायौ॰25.18)
1233    भुमिहार     (कुरमी के जात पंचित होए, चाहे भुमिहार के, भुमंडल बाबू जरुरे रहतन ।; छुट्टा मजूर के मजूरी खुल गेल, डेढ़ रुपइआ आउ पा भर अनाज पनपिआर में । ८ घंटा के खटइआ । मेढ़ानु के मजूरी सवा रुपइआ । कुरमी लोग तो अपनहुँ हर जोत लेत हल, बाकि भुमिहार के हर छूने न । से बाभनो जोतनुआ नओ जाना बेस बुझलक ।)    (बिरायौ॰16.20; 74.18)
1234    भूत-परेत (= भूत-प्रेत)     (घुरती चोटी ओकरा कसइलीचक के नओकेंड़ी बगइचवा भिजुन झोल-पसार हो गेलइ । बिच्चे बगइचा एगो देओचारा हलइ फुसहा, ठँवे एगो बड़का चाकर कुइँआँ फिन । सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत । हमरा का भूत-परेत के डर-भय हे । पाले चूड़ा हइए हे, फाँक के दू घोंट पानी पी जाम ।)    (बिरायौ॰7.10)
1235    भेओ (= भेद)     (नाया डाहट लगवल जाएत - जइसन बढ़ामन ओइसने भुइँआ, भेओ कइसन भेओ कइसन, जात-पाँत ढोंग हे । जातिक ... सब कोउ सांत रहत, दंगा न होवे देवल जाएत ...।; अब इ बेचारी अप्पन बेटवा से इ सब बात खोल सके हे न । का जनी ओकरा कइसन लगइ । मान ले इ भेओ ओकरा मालूम होइ आउ उ जान हते पर अमादा हो जाए ?)    (बिरायौ॰78.19; 79.20)
1236    भोजपुरिआ-मगहिआ     (लोगिन में ओझइ, भूत-परेत के जे भरम फैलल हे ओकरा हटवे के कोरसिस करम । अनपढ़ लोग के अछरउटी सिखवे के कोरसिस करम, भोजपुरिआ-मगहिआ किताब पढ़े के हलफल्ली पैदा करम ।; तेइस मुसहरी में छुट्टा समाज काएम हो गेल हे । अछरउटी सिखवे के काम सब्भे समाज में होइत हे । भोजपुरिआ-मगहिआ गप-गीत पढ़े जुकुर होवे ला लोग एकदम ठान लेलक हे ।)    (बिरायौ॰63.24; 81.5)
1237    भोथर     (कल्हे चोपचक में बाइली अदमी आल आउ अइसन होल ... । न पलटु हमरा साथे घुमत-टहलत हल आउ न इ होत हल । बजरंगवा के मुखिअइ के गुमान हइ त हमहुँ कोई भोथर अदमी न ही ।)    (बिरायौ॰44.11)
1238    मँगनी (= मुफ्त; मुफ्त में)     (हमरा राते एकलटा में ले जाके कहे लगलइ कि देखो हम्मर पठसाला में आवो तो मँगनी के किताब, सिलेट-पिनसिल मिलेगा आउ साथ हीं तुमको भर घर के कपड़ा-लत्ता मुफुत देवेगा, पाँच रुपइआ पत महिन्ना तलब फेर देगा ।; के-के घंटा पर दवइआ देवे ला कहलकथिन हल ? ऊँ ? पूछना कउन जरूरी हइ । होमीपत्थी तो बुझाऽ हइ, मँगनी के बाँटे ला सँहता गुने डकटरवन रक्खऽ हइ । न फएदा करऽ हइ, न हरजे करऽ हइ ।)    (बिरायौ॰19.17; 38.13)
1239    मँगासा (= मंगास; खोपड़ी का ऊपर वाला भाग, सिर)     (अगे मइओ गे, हम्मर माँए के देल सए गहना-गुड़िआ इ मरदाना हेन-पतर कर देलक । केते तुरी गोजी-पएना चला के हम्मर मँगासा फोड़ देलक, कनबोज घवाहिल कर देलक, ठेहुना के हड्डी छटका देलक ।)    (बिरायौ॰5.14)
1240    मँदरा (= मनरा, माँदर, मानर)     (लोगिन बस गेल हुँए, बजे लगल मँदरा रोज बिन नागा । समय के पहाड़ी सोता में दिनन के इँचना पोठिआ रेलाएल गेल निच्चे मुँहे ।)    (बिरायौ॰11.4)
1241    मँदराहा     (पलटु मँदराहा बनल, माँदर धमसल - सुनी जा भाई ! कसइलीचक के मुसहरी में अखाड़ा हे, धुरी लगावे हे बलमा, कमेसरा, पलटु आउ बिसेसरा !; मँदराहा माँदर के चाल तेज कर देलक ।)    (बिरायौ॰30.9; 31.22)
1242    मँहें (= मुँहें, तरफ)     (बिसेसर बाबू ओइसने जदुगर हथ । इनकर जादू से लाख बरिस के गुंगी टूट गेल छुच्छन के घड़ी-घंटा में । आउ देखऽ इ भुइँआ-छवाड़िक के जे भुल-भुलइआ ओला लीख के मेटाऽ के नाया रहता, सोझा रहता निरम के बढ़ रहल हे आगु मँहे ।)    (बिरायौ॰81.25)
1243    मइओ (= मइयो) (अगे ~)     (अगे मइओ गे, हम्मर माँए के देल सए गहना-गुड़िआ इ मरदाना हेन-पतर कर देलक । केते तुरी गोजी-पएना चला के हम्मर मँगासा फोड़ देलक, कनबोज घवाहिल कर देलक, ठेहुना के हड्डी छटका देलक ।)    (बिरायौ॰5.12)
1244    मइला-कुचइला     (भीतरे गेलन घरवा में माए लग । मइला-कुचइला कपड़ा पेन्हले एगो बूढ़ी औरत माए के बेनिआ डोलावित हलइन - इ कहाँ के दाई हथिन माए ?)    (बिरायौ॰79.7)
1245    मइसना-उसना     (नद्दी किछारे आके सए घुड़मुड़िआऽ के बइठ गेल । बलवा के चट्टे मइस-उस के भुसवा के ओइल देलक ।)    (बिरायौ॰26.9)
1246    मकुनी-बिसेसरा     (पलटु बात चलौलक - आज खेला होए के चाही लइकन ! - कउन खेला, 'धोबिआ-धोबिनिआ' कि 'बबुआनी-फुटानी' ? एगो बुतरु पुछलक । - उहूँ, 'मकुनी-बिसेसरा' खेली जो । दूसर लइका कहलक । - हाँ, हाँ 'मकुनिए-बिसेसरा' जमे । बाकि मकुनी के बनत ? हम बनबउ बिसेसरा । पहिल लइकवा कहलकइ ।)    (बिरायौ॰30.4, 5)
1247    मगही     (एगो टिल्हा पर खड़ी होके बिसेसर भइआ कहलन - देखऽ भाई, हमहुँ ही अनपढ़े, हिन्दी बोली न बोल सकऽ ही । अप्पन मगहिए भक्खा में दू-चार बात आप लोगिन से बतिआम ।)    (बिरायौ॰69.9)
1248    मचहल     (लफार पछिआ उठल । देखित-देखित में चउगिरदी करिवा बादर तोप देलक । बड़का-बड़का बूँद टिपटिपावे लगल । छिमा होके तनी देर फुहिआल । फिन झरझराऽ देलक । तनी देर फिन मचहल भेल । फिन लगल ठेठाऽ-ठेठाऽ के उझले ।)    (बिरायौ॰41.10)
1249    मजगर (= मजेदार)     (जे आवित गेल, से दू-चार गो नाया-पुरान गावित गेल, बाकि जम्मल न । न 'धोबिनिया' ओला मजगर बुझाल न 'ननदे-भौजइआ' ओला ।; लिट्टी-अँकुरी के दोकान भीर पहुँचल । मैदवा के लिटिआ बड़ी मजगर बुझाऽ हइ । दू पइसा में एक लिट्टी, बाकि गुल्लर एतबर तो रहवे करऽ हइ । दुअन्नी के चार ठो टटका लिट्टी, एकन्नी के अँकुरी ... अच्छा लगऽ हइ ।)    (बिरायौ॰24.21; 55.7)
1250    मजुरी (= मजूरी; मजदूरी)     (गिढ़थ सालो के कमाई खरिहानिए में छेंकले हलइ, अब खाए का ? बरजोरी पकड़ के गिढ़थ ले जाए खरिहानी दउनी हँकवे ला । भुक्खे ढनमनाऽ के गिर पड़ल खरिहानिए में, बाकि कठकरेज जोतनुआ छेकलहीं रहल मजुरी के अनाज ।)    (बिरायौ॰14.6)
1251    मजूर (= मजदूर)     (हमनी मजूर के आउ तलवरन के विचार-कनखी में भारी फरक हइ कनिआ । हमनी ओही अदमी के सुत्थर कहबइ जेकर बनकस बेस होतइ । छर्रा-सटकार, दोहरा काँटा के, कसावट देहओला हट्ठा-कट्ठा छौंड़ के देख के मजूर के बेटी लोभाएत, तलवरन के बेटी कोठा-सोफा, मोटर-बग्गी, ठाट-बाट, बाबरी-झुल्फी देख के ।)    (बिरायौ॰66.1, 4)
1252    मटिआना     (पहर रात बीत चुकल हे । सामी जी जमल हथ चबुतरा पर, आज अकसरे अएलन हे । चरखा चलावित हथ आउ समझावित हथ - ... देखऽ, रिक्खी लोग मेहनत के पूजा बरोबर करलन हे, जे बेगर कमएले खा हे उ चोर हे । जे मजुरी ले हे, आउ मटिआवे हे, उ कमचोट्टा अदमी नरक में जात ।; आज सोबरनी मथपिरी के बहाना करके मटिआऽ देलक, अएवे न कएल ।; अरे, एकर बोलिआ समिआ निअर बुझाऽ हइ ... समिए हे, बिसेसरा मटिआ देलक ।; मजूर लोग पहिले तो तनी मटिअएबो करऽ हल, गिढ़थ खोबसन देइत रहऽ हल, मजूर मन मारले बढ़ित रहऽ हल । अब पूरा तनदेही से उ लोग काम में जुट गेल ।)    (बिरायौ॰24.2, 17; 57.11; 74.23)
1253    मथपिरी (= सिरदर्द)     (आज सोबरनी मथपिरी के बहाना करके मटिआऽ देलक, अएवे न कएल ।)    (बिरायौ॰24.17)
1254    मद्धे (= मध्य, के बीच, में)     (का गपवा मेरौनिहरवन के इ न समुझ पड़इ कि केकरो मुठान केतनो नीमन होइ, बाकि लेदाह, चाहे मिरकिटाह अदमी के सुत्थर न मानल जा सके हे । बौनो चाहे लमढेंग अदमी के नाक-आँख सुत्थर हो सके हे, त का उ सुत्थर मद्धे गिनाएत ।)    (बिरायौ॰66.10)
1255    मध (= मधु, शहद)     (चन्नी माए के बात से मध चुअ हल, से सोबरनी चुप्पी नाध देलक । मने-मने चन्नी माए के सातो कुरसी के कोसऽ होत, एकरा में सक न ।)    (बिरायौ॰6.13)
1256    मधुआएल (दे॰ मधुआल)     (हम जाइत ही जरा घरे, जरा बढ़ामनी के खबर जनाऽ देउँ ! दू रोज में एगो दू-छपरा सितल्लम ला बनावे पड़त । उदान में रहना ठीक न होत, हम ठहरली दिनगत अदमी ।/ पंडी जी उठके चटपट चल पड़लन । सभी उठ गेल । बजरंग अकेले रह गेल, मधुआएल ।)    (बिरायौ॰47.18)
1257    मधुआल     (- सउँसे गाँव में घुम आव, बाकि एक्को मेहरारू के मुँह खिलता न पएबें । सब अज्जब गिलटावन पठरू निअर मधुआल बुझइतउ ! - काहे न मधुआल निअर बुझाइ, सोबरनी ओला गितवा न इआद हउ - नेहवा के हउआ के झिरके से मसकऽ हइ, जिनगी हइ फरीछ के फूल !)    (बिरायौ॰53.24, 25)
1258    मनी (जरी ~;  तनी ~; ढेर ~)     (जहिआ पढ़ना हल, तहिआ तो अप्पो-दोप्पो में रह गेली । अब का पढ़म । जवानी के जोस हल, आप अइली त मन करलक कि जरी मनी लइकाइ में पढ़ली हल से भुलाऽ गेली हे, फिनो किताब देखे से का जनी आइए जाए ।; पढ़े-लिक्खे से लुर-बुध फरिआत । नबोज लइकन के इस्कुल भेजम, तनी मनी साँझे-बिहने अपनहुँ लइकवन के पढ़ाम-लिखाम ।)    (बिरायौ॰23.14; 29.8)
1259    मनुसदेवा     (एतबर भगतिन । दवा-बिरो, झाड़-फूँक आउ टोटमा में तोर चन्नी माए चन्निए माए हथ, सिनका तो तुँ कलपावें हें, कलपाना चढ़तउ कि का । डाँक बाबा, टिप्पु, राम ठाकुर, जंगली मनुसदेवा, बैमत, देवि दुरगा, गोरइआ, राह बाबा, किच्चिन, भूत-परेत सब्भे खेलवऽ हथ ... न इ बड़ा बेजाए करें हें ...।)    (बिरायौ॰25.11)
1260    मने-मने (= मन में)     (चन्नी माए के बात से मध चुअ हल, से सोबरनी चुप्पी नाध देलक । मने-मने चन्नी माए के सातो कुरसी के कोसऽ होत, एकरा में सक न ।)    (बिरायौ॰6.13)
1261    मन्ना (= मना; माना) (~ करना)     (अच्छा, इ बचवा के बाबूजी के तुँ पढ़े ला मन्ना काहे करऽ हहुन । पढ़-लिख जत्थुन हल त ताड़ी-पानी में पइसा जिआन न करतथुन हल ।)    (बिरायौ॰37.25)
1262    ममस्सर (= ममोसर; मयस्सर)     (हमनी ले बेसी कमासुत तो उ लोग नहिंए हथ । केतना लोग कहऽ हथ कि तुँहनी पिअँक्कड़ जात हें, सेइ से इ हालत में पड़ल हें । हमनी थक्कल-फेदाएल कहिओ दू चुक्कड़ निराली पीली, त पिआँक हो गेली । आउ सेउ अब हमनी के ममस्सर होना कठिन हो गेल ।)    (बिरायौ॰69.22)
1263    ममोड़ना (= ममोरना)     (सए हाउ-हाउ गोहुमा के बलवा के ममोड़े लगल । घड़िए-घंटा में दसन कट्ठा खेत के टुंग-टांग के फँड़िआऽ लेलक । चलती-चलाँत एकक मुट्ठा बूँट के झँगरी ले लेवित गेल ।)    (बिरायौ॰26.4)
1264    मर (~ तोरी के !)     (- अगे, कातो पुन्ना पँड़वा पुरबारी मुसहरिआ में सब्भे के जनेउ देलकइ हे आउ उतरवारिओ मुसहरिआ में जनेउ देवित हइ ! - तोरो हीं लेत्थुन का ? - मर तोरी के, सब कोई लेवे करतइ त उ न काहे लेत्थिन !)    (बिरायौ॰54.11)
1265    मरद-मेहरारु     (ताड़ी-सराब के पिनइ के रसे-रसे कमाऽ देना जरूरी हे, पठसाला में सब कोई लइका-सिआन, बच्चा-सरेक, मरद-मेहरारु आवऽ, तुँहनी खाली साथ द, देखऽ हम तुँहनी लागी का करऽ ही ।)    (बिरायौ॰21.17)
1266    मरदाना (= पुरुष; मर्द; पति)     (अगे मइओ गे, हम्मर माँए के देल सए गहना-गुड़िआ इ मरदाना हेन-पतर कर देलक । केते तुरी गोजी-पएना चला के हम्मर मँगासा फोड़ देलक, कनबोज घवाहिल कर देलक, ठेहुना के हड्डी छटका देलक ।; तोर पुरुख जगत सीधा मरदाना तो गाँओ-जेवार में दीआ लेके ढुँढ़े-खोजे से कहुँ मिलत आउ सेकरा तुँ उगटा-पुरान करे हें !; तोरे निअर हमरा अप्पन पहिल मरदाना से न बनऽ हल । त हम सोचली कि अपनो जिनगी के जराना आउ दुसरो के साँस न लेवे देना ठीक नँ हे । ओहु माउग कर लेलक, हमहुँ मरदाना कर लेली ।; तोर मरदाना साधु हउ, पटरी जरुरे बइठतउ ...।)    (बिरायौ॰5.13; 6.5, 10, 12)
1267    मलगुजारी (= मालगुजारी)     (पहिले मल्लिक मालिक लग केउ मलगुजारी देवे चाहे सलामी देवे जाए त हेंट्ठे बइठे, भुँइए पर । का बाभन रइअत, का कुरमी रइअत । त बाभन लोग गते-गते चँउकी पर बइठे लगल । त फिन कुरमी लोग बइठे लगल ।)    (बिरायौ॰16.1)
1268    मलाल (= मलोल)     (भोलवा बोलल - हम तोरा आज ले तनिक्को सुन सुख न पहुँचा पउली । हमरा बड़ा मलाल हे ।)    (बिरायौ॰41.20)
1269    मलिकान     (जोतनुओ सब्भे हमनिए निअर अदमी हथ । देखऽ तो, उ लोगिन में बिद्दा के सहचार केत्ता जादे हो गेल । मार डाकडर, मास्टर, अफसर, मिसतिरी के कोई आतागम न हे । उ लोग के घर-दुआर के देखऽ, पचासे बरिस पहिले मलिकान छोड़ के आन केउ के घर में दसो-पाँच इँटा न जनाऽ हल, से इ घड़ी कोठा-सोफा हो गेल । बाकि एक ठो हमनी जहाँ के तहाँ रहली ।)    (बिरायौ॰69.17)
1270    मसुरी (= मसूर)     (जउन बेरा अनाज देलिवऽ हल, मसुरी पत मन अठारह रुपइआ बिक्कऽ हल, इ घड़ी बारह हे, डेओढ़िआ देबऽ तइओ हमरा डाँड़े लगित हे, बाकि हरवाहा गुने कम्मे लेइत हिवऽ ... ।)    (बिरायौ॰14.16)
1271    महत (= महत्त्व)     (- मेहनत के महत समझे हें कि न ? - गान्ही बाबा जे मेहनत के महत लोगिन के बतएलन हे, से हम्मर हिरदा में बस गेल हे । बाकि ढकोसला से गान्ही जी के भारी घीन हलइन ।)    (बिरायौ॰63.7, 8)
1272    महतो (= गाँव का जेठ रैयत; कुछ जातियों की उपाधि; कई जाति के लोगों के आसपद)     (सहजु साही के दादा गाँइ के महतो हलन, जेठ जोतनुआ । जमीनदारी किनलन त मल्लिक मालिक जरे लगल ।)    (बिरायौ॰64.16)
1273    महभारत (= महाभारत)     (घर में जेकरा कन नित्तम दिन मुँह-फुलउअल, कहा-सुनी आउ झगड़ा के सुरगुन होइत रहे ओकरा ले बढ़के आउ के अभागा हे ! हाकिमो होए कोई, आउ घर में रोज महभारत मच्चल रहे त ओकरा ले बढ़के घिनावन जिनगी आउ केकर हे !; एही सब तो मातवरी-मेहिनी के चिन्हा हइ । इ सब के परतक कइसे करबें तुँहनी । तुँहनी साँझ के झुमर गएबें, अरमना करबें, हिंआ सास-पुतोह के महभारत सुरु होतउ । तुँहनी रोपनी-डोभनी करबें, कटनी करबें आउ साथ हीं साथ गीतो गएबें । हिंआ कोकसासतर आउ तोता-मैना बाँचल जतउ ।; हमनी के घरुआ-जिनगी जोतनुअन ले हमनी के मेहिन साबित करे हे । हमनी कन सास-पुतोह, ननद-भौजाइ, बाप-बेटा के महभारत न मच्चे ।)    (बिरायौ॰42.3; 65.25; 71.24)
1274    महिन्ना (~ बाँधना)     (हम्मर भाई के गेठिआ सतावित हे । जरी देख ल । बइदक दवाई करइते-करइते घर खोंक्खड़ हो गेल । सुरु बरसात से बेमारी उपटल हे । दू महिन्ना ले लगवहिए उनाह लेलन, एक मन ले आसो-अरिस्ट पी गेलन, सोना फुँकओली, लोहा कुँकओली, बाकि कारन जरी बिचो न होल ।; सामी जी आखरी दाव लगा देलन - देखऽ, तुँ हमरा पठसाला जमवे में साथ द, एकरा ओजी में हम तोरा दस रुपइआ के महिन्ना बाँध दिलवऽ, महिन्ने-महिन्ने देल करबुअ आउ घटला-पड़ला पर मदतो देबुअ ।)    (बिरायौ॰7.25; 37.6)
1275    माँगता-खाता     (आउ हिंआ बइद लोग हमनी के अँगना में अएबे न करत, अप्पन दवा-बिरो के हाल हमनी के बतएवे न करत, संसकिरित पढ़एवे न करत । त आज बइद लोग माँगता-खाता बनल हथ ।)    (बिरायौ॰29.21)
1276    माँदर     (देखी मालिक, दीदा के रोग हे, खेल नँ हे । बउआ के रोहता ठीक लउके हे, इ से हमरा उम्मीद हे । माइँ से एक महिन्ना ले दू घड़ी रोज भिनसरवा में चूड़ा कुटवाइ, हम बहरसी बइठ के 'देवास' करम । माँदर ला हमरा हीं अदमी पेठाइ, रोसनी काहे न आवत ... ।/ रतगरे से चुड़कुट्टी सुरु होए, बहरी माँदर धँमसे, पचड़ा गवाए ।)    (बिरायौ॰9.9, 10)
1277    माउग     (तोरे निअर हमरा अप्पन पहिल मरदाना से न बनऽ हल । त हम सोचली कि अपनो जिनगी के जराना आउ दुसरो के साँस न लेवे देना ठीक नँ हे । ओहु माउग कर लेलक हमहुँ मरदाना कर लेली ।)    (बिरायौ॰6.10)
1278    मातवर (दे॰ मातवरी; धनी)     (से तो हम जानित ही कि तलवर केउ होए बाकि सउँसे मुसहरी में सबले मातवर तुँहीं ह । भोलवा से हमरा सब काम चल जा हल । हक्कम अदमी हल ।)    (बिरायौ॰43.23)
1279    मातवरी (= धनी, सम्पन्न, तलवर)     (अरे कइली से सब्भे अदमी, का बड़का का छोटका, काहे थर-थर करे हे, एही से कि कइली से छिप्पल न हे एक्को तितुली के रग-रेसा ! कहुँ खोल देलक तो मातवरी के टिपोरी आउ कोठा-सोफा के फुटानी एगो लमहर चौल बन जात ।)    (बिरायौ॰39.23)
1280    मातवरी-मेहिनी     (एही सब तो मातवरी-मेहिनी के चिन्हा हइ । इ सब के परतक कइसे करबें तुँहनी । तुँहनी साँझ के झुमर गएबें, अरमना करबें, हिंआ सास-पुतोह के महभारत सुरु होतउ । तुँहनी रोपनी-डोभनी करबें, कटनी करबें आउ साथ हीं साथ गीतो गएबें । हिंआ कोकसासतर आउ तोता-मैना बाँचल जतउ ।)    (बिरायौ॰65.23)
1281    मार     (कुच्छो होइ, सोबरनी गुरु तो बन गेल । मार मजे से बीस रुपइआ पावित हे । हमनी के उ का पढ़ावत, अपनहीं कउन पढ़ल हे । बाकि ए गे, इ महिनवा से सोबरनी हरिआऽ गेलइ हे । भोलवा से बेचारी के पटरी न बइठे से जिनगी कोरहाग हो गेलइ हल ।; जोतनुओ सब्भे हमनिए निअर अदमी हथ । देखऽ तो, उ लोगिन में बिद्दा के सहचार केत्ता जादे हो गेल । मार डाकडर, मास्टर, अफसर, मिसतिरी के कोई आतागम न हे ।)    (बिरायौ॰53.6; 69.15)
1282    मारकिन     (अखाड़ा के ओटा पर बिसेसरा झुलंग अंगरखा, मारकिन के मुरेठा सीट के बान्ह ले आके चुक्के-मुक्के बइठ गेल । दस-बीस गो लइका-लड़की बिसेसरा के घेर के ठाड़ा हो गेल ।)    (बिरायौ॰31.12)
1283    मिद्धी (= ?)     (एक बेरी गिलटु के भाई के कंगरेसिआ दुकान के निराली पिए ला एक बरिस ला कट्टिस कर देवल गेल । साही जी गिलटु के पच्छ ले लेलन - निराली पीना तो निसखोरी न हे, एकर घर करना ठीक न हे । एतना उनकर कहना हल कि भुमंडल बाबू गड़गड़एलन - हूँह, इनकर बेटा माउग साथे रिकसा पर पटना में सगरो बुलित फिरऽ हइन आउ इ पंचित के मिद्धी बने ला हक्कर पेरले हथ । चुप रहऽ ।)    (बिरायौ॰17.3)
1284    मिनती (= विनती, निवेदन)     (हमरा खुशी हे कि बिसेसर बाबू सकार लेलन हे हम्मर मिनती ! आजे उ लोग अप्पन मुलुक के करोड़-करोड़ मजूरन के अँगना में नाया उम्मीद के मंतर फूँके ला, नाया जिनगी के भोर लावे ला बहराइत हथ ।)    (बिरायौ॰82.7)
1285    मिरकिटाह (= मरकटाह, मरकटाहा, मरगटाहा; दुबला, कमजोर)     (का गपवा मेरौनिहरवन के इ न समुझ पड़इ कि केकरो मुठान केतनो नीमन होइ, बाकि लेदाह, चाहे मिरकिटाह अदमी के सुत्थर न मानल जा सके हे । बौनो चाहे लमढेंग अदमी के नाक-आँख सुत्थर हो सके हे, त का उ सुत्थर मद्धे गिनाएत ।)    (बिरायौ॰66.8)
1286    मिलौनिहार     (गाँइ के छवाड़िक लोग के बइठकी भेल । भुमंडल बाबू के हाँ में हाँ मिलौनिहार गिलटु, टोनु आउ सरूप तहाक के लइकन जुटल । भुमंडल बाबू के चचेरा भाई के छोटका लइका किरती कुमार बिन बोलएले पहुँचल ।)    (बिरायौ॰78.13-14)
1287    मिसतिरी (= मिस्त्री)     (जोतनुओ सब्भे हमनिए निअर अदमी हथ । देखऽ तो, उ लोगिन में बिद्दा के सहचार केत्ता जादे हो गेल । मार डाकडर, मास्टर, अफसर, मिसतिरी के कोई आतागम न हे ।)    (बिरायौ॰69.16)
1288    मिसिन (= मशीन)     (नाया जमाना के बात बतावऽ हथिन कि गरीब के जमीन मिलतइ, मिसिन से खेत जोततइ । बड़ी सुभओगर हथिन सहजू बाबू के पुतोह ।)    (बिरायौ॰61.17)
1289    मुँहझौंसा     (- चुप रहे हें कि न ? - अरे मारे न रे मुँहझौंसा, तोरे से हमरा दिन निबहे ला हे ! हमरा तुँ जेत्ता पेर लें, फेर पछतएबें ... पेर ले ...।  - अब का खाउँ, इ कुतिआ हमरा दू कोर खाहुँ देवत !)    (बिरायौ॰33.13)
1290    मुँहफहरी     (- ए दीदी, एगो बात कहिवऽ ? - कह न, मुँहफहरी कहुँ रोके से रुके हे । - अब सगाई कर ल । जब छोड़ा-छोड़ी होइए गेल त फिन .... दस-पाँच दिन में बिसेसरा अएवे करत । ओकरा से तोरा पटरी बइठतवऽ ।)    (बिरायौ॰58.12)
1291    मुँह-फुलउअल     (घर में जेकरा कन नित्तम दिन मुँह-फुलउअल, कहा-सुनी आउ झगड़ा के सुरगुन होइत रहे ओकरा ले बढ़के आउ के अभागा हे !)    (बिरायौ॰42.2)
1292    मुँहलुकान     (- बरिअतिआ आजे न अतउ हो ? - मुँहलुकान होइए रहलइ हे सरकार, अब देरी न हइ ।)    (बिरायौ॰48.6)
1293    मुँहलुकाने     (रात भर भगतवा सोंस पाड़लक, मुँहलुकाने में जतरा बनवे लगल -  त हम अब चलित ही, आपके भलाई न भुलाम ।; लुग्गा फिंचे ला बहराएल कमेसरा बहू मुँहलुकाने में । नदिए पर तोखिआ बहू भेंटा गेलइ ।)    (बिरायौ॰7.19; 52.14)
1294    मुँहे (= तरफ, ओर)     (लोगिन बस गेल हुँए, बजे लगल मँदरा रोज बिन नागा । समय के पहाड़ी सोता में दिनन के इँचना पोठिआ रेलाएल गेल निच्चे मुँहे ।; पलटु एक-दू पिआली घरउआ दारू पीलक, एगो बोंग लाठी लेलक आउ सल्ले-वल्ले उत्तर मुँहे सोझ हो गेल । पिपरिआ आँटे जाके बइठ रहल ।; बुतरुआ के गोदी लेके उ पच्छिम मुँहे बढ़ल । सामी जी जरी सुन पुरुब बढ़ के उत्तर ओली गलिआ धर लेलन, कोई भेंटलइन न ।)    (बिरायौ॰11.5; 25.2; 35.20)
1295    मुआर (= धान की नष्ट फसल जिसमें बाल न फूटे हों, मरहिन्ना)     (देखऽ न, हमरा से पुछलक न मातलक आउ का जनी केकरा तो साथे सेनुर देके आएल हे । हिंआ अब सउँसे मुसहरी भात माँग रहल हे । एँसो हिंआ धान मुआर कटाल हल । भात न देही त सब चटइआ से काट देत ।)    (बिरायौ॰43.21)
1296    मुखिअइ     (कल्हे चोपचक में बाइली अदमी आल आउ अइसन होल ... । न पलटु हमरा साथे घुमत-टहलत हल आउ न इ होत हल । बजरंगवा के मुखिअइ के गुमान हइ त हमहुँ कोई भोथर अदमी न ही । इ का कि कोई के बेराए देखली त ओकर बहू-बेटी के गाएब करवा देली, बेहुरमत करवा देली । अब ओकरा मुखिअइ कएल हो गेल ... ।; भुमंडल बाबू मुखिअइ ला अड्डी रोपलन ।)    (बिरायौ॰44.10, 13, 20)
1297    मुखिआइन     (मुखिआइन हद्दे-बद्दे निछक्का घीउ में कचउड़ी छानलन, हलुआ घोंटलन, पंडी जी पा-उ के ढेकरलन ।)    (बिरायौ॰46.17)
1298    मुखिआ-तुखिआ     (जब सामी जी पीठ पर हथिन त मुखिआ-तुखिआ से के डेराऽ हइन, जे बुझाइन से करथ ... ।)    (बिरायौ॰45.20)
1299    मुट्ठा     (सए हाउ-हाउ गोहुमा के बलवा के ममोड़े लगल । घड़िए-घंटा में दसन कट्ठा खेत के टुंग-टांग के फँड़िआऽ लेलक । चलती-चलाँत एकक मुट्ठा बूँट के झँगरी ले लेवित गेल ।)    (बिरायौ॰26.5)
1300    मुठरी (सत्तु के ~)     (सोबरनी घर लौटल । भोलवा सत्तु के मुठरी इँगल रहल हल । सोबरनी बुतरुआ के उतार देलकइ, बुतरुआ चुपचाप ठाड़ हो गेलइ ।; सोबरनी के जीउ पितपिताऽ गेलइ । बुतरुआ के गोदिआ में लेके टोन छोड़कइ - चल, अइसने कठजीउ के एगो मुठरी देल पार लगतउ ?)    (बिरायौ॰33.7, 10)
1301    मुठान     (एक पट्टी सामी जी उज्जर कपास चद्दर ओढ़ले जम्मल हथ । नाटा खुँटी के, पातर-दुबर, मुठान चकइठ, पर नाक चाकर, सामता रंग, सुकवार । सुत्थर न त छँइछनो न । माथा, मोंछ, डाढ़ी सब घोंटएले ।; उँचका कुरसिआ ओला अदमिआ के मुठनवा अनमन ओकरे निअर हइ । अरे, अबके एकरे न एक बड़जन चउअनिआ ला लगएलिक हल ... दत्तेरी के ! उक्का गटवा भीर कुरतवा चेथरिआएल हइ ।; का गपवा मेरौनिहरवन के इ न समुझ पड़इ कि केकरो मुठान केतनो नीमन होइ, बाकि लेदाह, चाहे मिरकिटाह अदमी के सुत्थर न मानल जा सके हे । बौनो चाहे लमढेंग अदमी के नाक-आँख सुत्थर हो सके हे, त का उ सुत्थर मद्धे गिनाएत ।)    (बिरायौ॰20.17; 52.4; 66.7)
1302    मुरतिआना     (हम्मर इ राय हे कि साल भर में हरवाही के घिनावन रेवाज के खतम करे के निसस रहल जाए आउ उ निसस के मुरतिआवे के कोरसिस कएल जाए । जब दुनिआ भर से गुलामी के रेवाज मिटाऽ देवल गेल त हिंआ इ आजो टेंहटगर हे ।)    (बिरायौ॰67.11)
1303    मुलुक (= मुल्क, देश, प्रदेश)     (हमरा खुशी हे कि बिसेसर बाबू सकार लेलन हे हम्मर मिनती ! आजे उ लोग अप्पन मुलुक के करोड़-करोड़ मजूरन के अँगना में नाया उम्मीद के मंतर फूँके ला, नाया जिनगी के भोर लावे ला बहराइत हथ ।)    (बिरायौ॰82.8)
1304    मुसहर     (गयाजी देन्ने के एगो झुनकुट बूढ़ अपिआ मुसहर संकराँत में पुनपुन्ना नद्दी किछारे लगे ओला राजघाट मेला में आल हल, भारी भगत हल । टोना-जादू, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर, पचड़ा-जोगिड़ा सब्भे कुछ में पम्पाइल ।; अहिरो अपना के केकरो से घट न समझे अब । बाभन के दुरा होए चाहे कुरमी के, खड़ो खटिआ बिछाऽ के बइठ जा हे । डरे केउ रोक-टोक न करे । दुसाधो अपना दुरा पर ठाट से खटिआ-चउँकी पर बइठल रहे हे, केउ आवे, केउ जाए । ... बाकि मुसहर होके मँगरुआ खटिआ पर बइठल रहल । भुमंडल बाबू के देख के तनी उठवो न कएल । भला कहऽ तो, अइसन कलजुग आ गेल !)    (बिरायौ॰7.4; 16.10)
1305    मुसहर-दुसाध     (केतना तो सहरवा में बाल-बुतरु सुधा मेहरारु संगे मोटर पर इँकसऽ हइ । सहर में लमहरो अदमी के मेहरारुन सब परदा में न रहऽ हथी । लोगिन कहे हे कि मुसहर-दुसाध के मेहरारु सब परदा में न रहे हे, इ से लोग छोटजतिआ गिना हे ।)    (बिरायौ॰56.16)
1306    मुसहरनी     (सोबरनिए आवित हल । गोरकी मुसहरनिआ के चिन्हित देर लगइन उनका ? - तोरे से काम हे ... तोर बुतरुआ के का नाँव हवऽ ।; हम्मर मुसहरिआ में एगो मुसहरनी हइ, उ केतना गीत बनाइए के गा दे हइ । बाकि आन औरतिअन चिन्ह ले हइ त रोक दे हइ, त फिनो असली गावे लगऽ हइ ।)    (बिरायौ॰34.25; 56.1)
1307    मुसहरी     (सोबरनी अँगनवा में ठाड़ा भेल, नदिआ देन्ने ताकलक - सुक्खल ढनढन नद्दी, एक्को ठोप पानी नँ । अब एकरा में कहिओ पानी न अतइ, कातो मुँहवे भरा गेलइ ! हाए रे मोरहर नद्दी ! ... कइसन उझंख लग हइ मुसहरिआ, सब फुसवन उड़ गेलइ ... ।)    (बिरायौ॰5.3)
1308    मुसुकबन्द     (कहलक - सरकार, हम्मर पुरखन के जहाँ पिढ़ी हे, हुँआँ से हम कइसे हट सकऽ ही, हुँआँ दीआ-बत्ती के करत ? सलिआना के चढ़ावत ? एही से मुसुकबन्द ही, न तो आप लोगिन के बात न टारती ।)    (बिरायौ॰9.21)
1309    मूँड़ी (= सिर)     (सामी जी, भुमंडल बाबू आउ अनेगा लोग, पलटु मूँड़ी निहुरएले । सामी जी बोलंता के हाव-भाव में बोलित हलन - हमरा पिछु दोख मत दीहें । हम खरचा-बरचा ला तइआर हुक । इ बजरंगवे के बरजाती हे । इ में सक करना बेकार हे ।)    (बिरायौ॰44.6)
1310    मूँढ़ (= मूर, मूलधन)     (बिच्चे मुसहरी गल्ली में अन्हमुहाँने में नक्कीमुठ जमल । मुसहरी के अनबोलता लइकन से लेके अधबइस ले जुटल । कोई दू-चार आना के कउड़ी हारल, कोई दू-चार आना के कउड़ी जीतल, केतना मूँढ़ के मूँढ़ रहल ।)    (बिरायौ॰27.17)
1311    मेंट     (आँइ हो तोखिआ, आज तुँ चन्नी मइआ के पिटलहीं काहे ला ! मायो के पिटे हे अदमी । दुत मरदे । भला कहऽ तो, सउँसे मुसहरी के मेंट चन्नी माए । एतबर भगतिन । दवा-बिरो, झाड़-फूँक आउ टोटमा में तोर चन्नी माए चन्निए माए हथ, सिनका तो तुँ कलपावें हें, कलपाना चढ़तउ कि का ।; एक देने बइठल हे बिसेसरा, साथहीं सोबरनी हे । पंजरे में राज के नामी मेंट सेनापति बाबू । खेतिहर मजूर समाज के मेंट आतमा बाबू, भुमंडल बाबू के चचेरा भाई के लड़का सुबाइ जुवक संघ के मेंट प्रेम बाबू ... कोई आतागम न हे अदमी के ।)    (बिरायौ॰25.8; 80.23; 81.1, 2)
1312    मेंटगिरी     (हम बिसेसर बाबू आउ सोबरनी देइ से मिनती करऽ ही कि उ लोग एतने से संतोख न कर लेथ बलुक घूम-घूम के आनो ठग के मजूरन के मेंटगिरी करथ, राह देखावथ ।)    (बिरायौ॰82.5)
1313    मेढ़ानु (= मेहरारू)     (- त हम तोरा पसन्दे न हुक । केउ दूसर गदराइत मेढ़ानु के देख के लोभाल होतें । - जहिआ हाँथ धरबउ तहिआ तोरे, न तो कुँआरे रहबउ ।)    (बिरायौ॰60.11)
1314    मेराना     (तोखिआ मेरौलक - इक्का डेढ़ बरिस से लोगिन पाँड़े के पँओलग्गी करित हे, आउ अबहीं ले एक्को किताब पढ़े के लुर केकरो न होलइ हे । पाँड़े के फेरा में तो लगे हे अदमी आउ बुड़बक बन जाएत ।; दरोजा के केंवाड़ी ओठँगाऽ देल गेल । पंडी जी मेराऽ-मेराऽ के बात बोले लगलन - देखऽ जजमान, गुरुअइ के काम अदौं से बढ़ामने के रहल हे ।)    (बिरायौ॰27.25; 46.19)
1315    मेरौनिहार     (का गपवा मेरौनिहरवन के इ न समुझ पड़इ कि केकरो मुठान केतनो नीमन होइ, बाकि लेदाह, चाहे मिरकिटाह अदमी के सुत्थर न मानल जा सके हे । बौनो चाहे लमढेंग अदमी के नाक-आँख सुत्थर हो सके हे, त का उ सुत्थर मद्धे गिनाएत ।)    (बिरायौ॰66.7)
1316    मेहरी     (भगतवा के छओ लइकवन, फेर अप्पन मेहरी, लइकन-फइकन जौरे कसइलिए चक बसे ला पहुँचल । भगत के छओ लइकन किजर निअर जुआन, उलटल सीना, केला के थम्ह निअर कल्हा ओला ... ।)    (बिरायौ॰10.4)
1317    मेहिन     (खाली हमनी के गरीब गुने लोग छोटजतिआ कहे हे । लुग्गा-फट्टा के मेहिनी धन के बात हे । जउन जात तलवर हे, तउन मेहिनी हे । दाइ-लउँड़ी, नौकर-नफ्फर, लगुआ-भगुआ सब धन के सिंगार हइ । इ में जात के छोटइ-बड़इ के कउन बात हइ ।; हमनी के घरुआ-जिनगी जोतनुअन ले हमनी के मेहिन साबित करे हे । हमनी कन सास-पुतोह, ननद-भौजाइ, बाप-बेटा के महभारत न मच्चे ।)    (बिरायौ॰56.24; 71.23)
1318    मेहिनी (= ?)     (खाली हमनी के गरीब गुने लोग छोटजतिआ कहे हे । लुग्गा-फट्टा के मेहिनी धन के बात हे । जउन जात तलवर हे, तउन मेहिनी हे । दाइ-लउँड़ी, नौकर-नफ्फर, लगुआ-भगुआ सब धन के सिंगार हइ । इ में जात के छोटइ-बड़इ के कउन बात हइ ।; मुसहरी के लोग बात-बात में जोतनुअन के रेवाज, विचार आउ मेहिनी के दुस्से हे जरुर, बाकि अब हम समझ गेली कि उ गलती रहता हइ । आपुस में भइआरे आउ नेह रहे ।; आजो सहजु साही के जोत-जिरात कम हे बाकि मेहिनी में ... । बेटा हाले अफसर बनलथिन हे । पुतोह बी.ए. एम.ए. पास करकइन हे ।; हमनी इ गुने न ओहर समझल जा ही कि हमनी के मेहिनी घटिआ हे, बलुक हमनिए के मेहिनी के तो आन लोग अपनावित हथ ।)    (बिरायौ॰56.23; 63.14; 64.21; 71.8)
1319    मोकदमा (= मुकदमा)     (ओकर हाँथ न हे त काहे न मुसहरी में आल, खोजो-पुछार तो करत हल । मुखिआ न हल ? बोल का कहें हें, देरी करे से मोकदमा कमजोर हो जतउ ।)    (बिरायौ॰44.15)
1320    मोकाबिला (= मुकाबला)     (परलिआमेंट ओला राज सब ले उत्तिम बुझाऽ हे । हमरा तो बुझाऽ हे कि सरकारो करखाना खोले, खेती करे आउ खुलल मैदान में सेठ आउ किसान के मोकबिला करे ।)    (बिरायौ॰62.25)
1321    मोटाना     (भगवान चहतथुन त महिन्ना लगित-लगित मोटाऽ जतवऽ आउ बेमरिआ भाग जतइ । खोंखी-बुखार के कारन बड़ बुड़बक होवऽ हे ।)    (बिरायौ॰35.16)
1322    मोहनी     (- तोरे इआद आवित हल । - हम्मर ? हमरा ले सुत्थर-सुभओगर आउ केउ न हइ, मोहनी न हइ ?)    (बिरायौ॰59.19)
1323    मोहाल     (एगो बुतरु हे ओकरे माया-मोह हे, न त जलगु ले अप्पन सवाँग ठीक हे, तलगु ले दू गो लिट्टी मोहाल न रहत ।)    (बिरायौ॰5.18)
 

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